क्या कारण है कि सद्गुरु के शिष्य तो थोड़े होते हैं लेकिन असदगुरु के इर्द-गिर्द अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है?

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यह बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसा होना ही चाहिए। क्योंकि सदगुरु को कितने लोग पहचान सकेंगे? वही–जिनकी प्यास है; जिनके लिए जीवन व्यर्थ हो गया; जिनके लिए जीवन संताप और स्वप्न हो गया।
असदगुरु के पास भीड़ इकट्ठी होगी। क्योंकि असदगुरु भीड़ की आकांक्षाएं तृप्त कर रहा है। ताबीज बांध रहा है, राख राख निकाल रहा है, जादू कर रहा है। मूढ़ बड़ी संख्या में वहां इकट्ठे हो जाएंगे। वही वे चाहते हैं। उनकी आकांक्षाएं जो तृप्त कर रहा है, वहां वे इकट्ठे होंगे।
सदगुरु तो छीन लेगा। सदगुरु तो तुम्हें मिटाएगा। वह निशाना लगा-लगाकर तीर छोड़ेगा। वह तुम्हें मिटाएगा, वह तुम्हें मार ही डालेगा। क्योंकि तुम मिटोगे, तभी तुम्हारी राख पर परमात्मा का आविर्भाव है। तुम रोग हो। वह तुम्हें सहारा न देगा, वह तुम्हें गिराएगा। वह तुम्हें जड़ों से खोद डालेगा।
तो सदगुरु के पास तो वही आएगा जो मरने को तैयार है। सदगुरु यानी मृत्यु; मृत्यु से भी बड़ी मृत्यु–महामृत्यु। क्योंकि मृत्यु के बाद तो तुम फिर पैदा हो जाओगे। लेकिन अगर सदगुरु की मृत्यु में तुम डूब गए, तो फिर तुम्हारा लौटना नहीं। फिर दुबारा तुम पैदा न हो सकोगे।
इसलिए बहुत थोड़े से हिम्मतवर लोग वहां इकट्ठे होंगे। सब का वहां काम भी नहीं है। बच्चों की वहां जरूरत भी है। अभी जो खिलौनों से खेल रहे हैं, उनका वहां क्या प्रयोजन?

लोग खिलौनों से ही खेलते रहते हैं जिंदगी भर। बचपन में छोटी सी कार से खेलते हैं, चाबी भरकर चलाते हैं, फिर बड़े हो जाते हैं, तो बड़ी कार पर खेल जारी रहता है। बचपन में छोटे गुड्डे-गुड्डियों की शादी करते हैं, बड़े हो जाते हैं, तो राम-लीला करते हैं, राम-सीता की बारात निकालते हैं, खेल जारी है। छोटे बच्चे होते हैं, कंकड़ पत्थर इकट्ठे करते हैं। बड़े हो जाते हैं, हीरे-जवाहरात इकट्ठे करते हैं–कंकड़ पत्थर ही हैं आखिरी हिसाब में। खेल जारी रहता है। छोटे बच्चे सिगरेट के डब्बे, माचिस के डब्बे, टिकटें इकट्ठी करते रहते हैं। बड़े हो गए, नोट इकट्ठे करते रहते हैं–मामला एक ही है। सारा खेल खिलौनों का है।

सदगुरु के पास तो केवल वही आ सकता है, जो प्रौढ़ हो गया,जिसने सारे खिलौने फेंक दिए और जिसने कहा, बहुत हो चुकी नासमझी। अब जागने का क्षण आ गया। निश्चित, जागने में खतरा है। क्योंकि तुम्हारे सब सपने टूट जाएंगे। सपनों में एक सुरक्षा है। तुम्हारे सपने–उनमें मधुर सपने भी हैं। माना, कि दुखद सपने भी हैं, लेकिन वे सब संयुक्त हैं। अगर दुखद सपने तोड़ने हों, तो सुखद सपने भी टूट जाएंगे। अगर जागना है, तो दुख, सुख दोनों से जागना होगा।

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तुम भी चाहते हो जागना, लेकिन चाहते हो, कि सुखद सपना तो बरकरार रहे, सिर्फ दुख टूट जाए। तुम भी चाहते हो जागना,लेकिन बस, दुख छूटे, सुख न छूट जाए। तो तुम असदगुरु के पास इकट्ठे हो जाओगे। वहां भीड़ लगेगी।
लेकिन सदगुरु के पास तो सुख भी छूटेगा, दुख भी छूटेगा; तभी तो शांति का जन्म होता है। जब सारे द्वंद्व मिट जाते हैं, तभी तो निर्द्वंद्व आकाश–तभी तो उस असीम के साथ संबंध जुड़ता है। तभी तो तार जुड़ते हैं उसके पहले तो तार नहीं जुड़ते।

स्वभावतः जहां तुम्हारी बीमारी ठीक करने के लिए कोई आश्वासन दिया जा रहा हो, मुकदमे जिताने का कोई भरोसा दिया जा रहा हो,धन पाने की कोई महत्वाकांक्षा को पूरा करने की बात कही जा रही हो, वहां भीड़ इकट्ठी होगी। साधारण से लोगों से लेकर जिनकी, तुम असाधारण कहते हो, वे भी ऐसे लोगों के आसपास इकट्ठे होंगे। आशीर्वाद चाहिए तुम्हारी मूर्खताओं के लिए।

जिंदगी का नियम ऐसा है, कि अगर तुम भी आंख बंद करके एक झाड़ के नीचे बैठे जाओ; और जो भी आए उसको आशीर्वाद देते जाओ, तो भी पचास प्रतिशत तो आशीर्वाद पूरे होने की वाले हैं। इसलिए तुम्हें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है। तुम एक गधे को भी बिठाल दो सजाकर और वह भी बस हाथ उठाकर आशीर्वाद देता जाए बिना देखे, कौन आ रहा है, इससे कोई लेना-देना नहीं है।
जितने मरीज आएंगे, उनमें से सीधे गणित में कम से कम पचास प्रतिशत तो ठीक होने वाले हैं, ज्यादा भी ठीक हो जाएंगे। क्योंकि सभी बीमारियां मार तो नहीं डालती हैं। डाक्टर भी इलाज थोड़े ही करता हैं, सिर्फ सहारा देता है। कहावत है पश्चिम में, कि अगर सर्दी-जुकाम हो जाए, तो बिना दवा के सात दिन में ठीक हो जाता है और दवा लो, तो एक सप्ताह में। दवा और न दवा का कोई बड़ा सवाल नहीं है। बीमारी तो सब ठीक हो जाती है। सभी बीमारियों में आदमी मर थोड़े ही जाता है! समय की बात है। बैठे रहो।
मुकदमे भी आखिर दो लोग लड़ेंगे मुकदमा, तो एक तो जीतेगा। और अक्सर ऐसा होता है, कि एक ही असदगुरु के पास दोनों चले आते हैं–हारनेवाला, जीतनेवाला; एक तो जीतेगा ही। और यह खेल जारी रहता है। जो पचास प्रतिशत सफल हो जाते हैं, तुम्हारे आशीर्वाद से, वे दुबारा लौट आते हैं फूलमालाएं लेकर, और प्रचार कर आते हैं और पचास नासमझों को साथ ले आते हैं।
जो हार गए, वे किसी दूसरे गुरु की तलाश करते हैं। वे फिर तुम्हारे पास नहीं आते। वे भी कहीं न कहीं ठहर जाएंगे। कहीं न कहीं,कभी न कभी तो जीतेंगे। वहीं ठहर जाएंगे। इसमें गुरु का कुछ लेना-देना नहीं है। यह सब खेल तुम्हारी नासमझी से चलता है।
लेकिन सदगुरु के पास तुम्हारा कोई खेल नहीं चल सकता। भीड़,वहां इकट्ठी नहीं हो सकती। वहां तो खेल तोड़ने का ही आयोजन है।
इसलिए बहुत थोड़े से चुने हुए लोग, छंटे हुए लोग, जो सच में ही राजी हैं छलांग लेने को, जो उस घड़ी में आ गए हैं, जहां कुछ रूपांतरण आवश्यक हो गया है, अब जिनकी आकांक्षा बाहर की नहीं है; अब जो क्रांति भीतर चाहते हैं, वे थोड़े से लोग ही वहां पहुंच सकते हैं।
और उन थोड़े से लोगों को भी बड़ी हिम्मत रहे, तो ही वहां टिक सकते हैं। अन्यथा वे भी भाग खड़े होंगे। क्योंकि सदगुरु तुम्हें कोई सहारा नहीं देता टिकने का। वह तुम्हारे अहंकार की कोई तृप्ति नहीं करता। जिस अहंकार को मिटाना ही है, उसको किसी तरह का सहारा देना उचित नहीं है। तुम वहां अगर टिके, तो अपनी हिम्मत से ही टिकोगे। वह तो तुम्हारे पैरों के नीचे की जमीन खींचता चला जाता है।
तो यह थोड़े से दुस्साहसियों का काम है। पर वैसे ही दुस्साहसी जीवन के परम सत्य को उपलब्ध भी होते हैं। वह दुस्साहस करने योग्य है।

(गुरूपूर्णिमा की पूर्व संध्या पर विशेष-साभार-)

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