उत्तराखंड में जंगल से बाहर निकली आदिम जनजाति, और सरकार से की ये मांग

डीडीहाट, पिथौरागढ़: तहसील धारचूला और डीडीहाट के नौ गांवों में रहने वाली प्रदेश की एकमात्र आदिम जनजाति अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रही है। जंगल से निकल पहली बार जनजाति की महिलाएं बिजली, स्वास्थ्य सुविधा, रोजगार आदि मांगों को लेकर सड़क पर जुलूस निकालते हुए तहसील मुख्यालय पहुंची। मातृशक्ति की अगुवाई में ही यहां मुख्यमंत्री को संबोधित ज्ञापन एसडीएम विवेक कुमार को सौंपा गया। उत्तराखंड में जंगल से बाहर निकली आदिम जनजाति, और सरकार से की ये मांग

तहसील डीडीहाट के कूटा चौरानी और मदनपुरी में रहने वाली महिलाओं ने अधिकारों को हासिल करने के लिए बकायदा वनराजि संगठन बनाया गया है। जिसकी अध्यक्ष हरुली देवी है। इस संगठन ने मंगलवार को वनराजि समाज की समस्याओं को शासन-प्रशासन तक पहुंचाया। सीएम को भेजे ज्ञापन में कहा गया है कि वनराजि समाज अभी भी 19वीं सदी का ही जीवन जी रहा है। आजादी के 70 साल बाद भी वे वनों पर निर्भर हैं। वहीं, वन अधिनियम भी उन्हें वनों से भी दूर कर रहा है। 

कूटा चौरानी गांव अभी भी बिजली से वंचित 

कूटा चौरानी गांव आज भी अंधेरे में है। इस गांव तक बिजली नहीं पहुंची है, जबकि आसपास के गांव कई दशक पूर्व से जगमगा रहे हैं। जंगल के निकट का गांव होने से हर वक्त गांव में जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है। गांव में अभी तक पक्के मकान नहीं हैं। झोपड़ियों में रहना पड़ता है। जिसके चलते अधिकांश बच्चे बीमार रहते हैं, लेकिन उपचार की कोई व्यवस्था नहीं है। वनराजि समाज के लोगों को मनरेगा के तहत कोई रोजगार नहीं मिलता है। महिलाओं की स्थिति बद से बदतर हो चुकी है। वनराजि समाज की काष्ठकला के संरक्षण के आज तक उपाय नहीं हो पाए हैं। 

कौन हैं वनराजि 

अतीत से ही वनों में गिरि और कंदराओं में निवास करने वाली वनराजि को स्थानीय भाषा में वनरावत कहा जाता है। वनरावत अस्कोट क्षेत्र के तहसील डीडीहाट और धारचूला के नौ गांवों में रहते हैं। गरीबी, अशिक्षा, संसाधनहीनता के चलते वनराजि समाज में बाल मृत्युदर अधिक होने से इनकी संख्या निरंतर घटती जा रही है। इस समय नौ गावों में रहने वाले वनराजियों की जनसंख्या 600 से 700 के बीच है। वनराजि भूमिहीन, भवनहीन हैं। जीवन यापन के लिए वनों पर निर्भरता बनी है। वन एक्ट 1980 लागू होने के बाद इनका एकमात्र उद्यम काष्ठ के बर्तन बनाना बंद हो गया और वनराजि हाशिए में चले गए। अब वनराजि संगठन के बैनर तले संगठित होकर यह जनजाति सरकार से हक मांगने की राह पर उतरी है। 

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