SP-BSP गठबंधन से भाजपा को मिलेगी बेहद बड़ी चुनौती, मुस्लिम वोट बैंक बिगाड़ेगा गणित

सपा-बसपा गठबंधन लोकसभा की चुनाव कसौटियों पर कितना खरा उतरेगा, यह तो लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद पता चलेगा लेकिन दोनों पार्टियों के नेताओं के बीच हो रहे इस गठबंधन से भाजपा का चुनावी गणित प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। भले ही भाजपा की तरफ से गठबंधन से लोकसभा चुनाव के गणित पर कोई फर्क न पड़ने के दावे किए जा रहे हों लेकिन जमीनी सच्चाई इसके ठीक उलट है।SP-BSP गठबंधन से भाजपा को मिलेगी बेहद बड़ी चुनौती, मुस्लिम वोट बैंक बिगाड़ेगा गणितगठबंधन के बाद होने वाले चुनावी समीकरण और जातीय गणित भाजपा के चुनावी संघर्ष को 2014 के मुकाबले ज्यादा कांटे का बनाते दिख रहे हैं। हालांकि अखिलेश और मायावती के बीच हो रहे इस गठबंधन की अपनी भी चुनौतियां हैं लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि दोनों नेताओं ने इन चुनौतियों से पार पा लिया तो यह प्रयोग कम से कम उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनावी गणित को काफी प्रभावित करेगा।

कारण, गठबंधन की मजबूती प्रदेश के मुस्लिमों को भी भाजपा के खिलाफ मजबूत विकल्प मुहैया करा देगी क्योंकि गठबंधन के साथ अनुसूचित जाति और पिछड़ों में भी ज्यादातर का समर्थन रहने की संभावना जो दिख रही है।

लोकसभा चुनाव में पहली बार गठबंधन

वैसे तो सपा और बसपा 25 साल बाद एक साथ आ रहे हैं। पर, लोकसभा चुनाव में दोनों पहली बार गठबंधन करके भाजपा से लड़ेंगे। अयोध्या का विवादित ढांचा गिरने के बाद भाजपा की हवा रोकने के लिए सपा के तत्कालीन मुखिया मुलायम सिंह यादव और बसपा सुप्रीमो कांशीराम ने गठबंधन किया था। वैसे इस गठबंधन के पीछे 1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान मुलायम और कांशीराम के बीच हुई दोस्ती की भी भूमिका थी।

बहरहाल 1993 में बसपा का गठन हुए तब नौ वर्ष ही हुए थे। सपा तो नई-नई बनी थी। मुलायम सिंह यादव ने चंद्रशेखर से नाता तोड़कर समाजवादी पार्टी का गठन किया था। सपा ने 264 सीटों पर चुनाव लड़ा था और बसपा ने 164 सीटों पर। सपा को 109 सीटों पर जीत मिली जबकि बसपा को 67 पर। भाजपा को अकेले 177 सीटों पर जीत मिली थी।

भाजपा की सीटों की संख्या सपा और बसपा को मिली सीटों से भी ज्यादा थी, पर चुनाव पूर्व गठबंधन के नाते तत्कालीन राज्यपाल ने गठबंधन के नेता मुलायम सिंह यादव को बुलाकर शपथ दिलाई। कांग्रेस ने इस गठबंधन का समर्थन किया। एक साल होते-होते महत्वाकांक्षाओं की टकराहट सार्वजनिक होने लगी और 2 जून 1995 को स्टेट गेस्ट हाउस कांड ने दोनों का गठबंधन तोड़ दिया।

ये है लोकसभा चुनाव का गणित

– लोकसभा चुनाव 1989 में पहली बार बसपा के दो सदस्य जीते थे। यह संख्या बढ़कर 2009 में 21 तक पहुंच गई। 2014 में बसपा को 19.60 प्रतिशत वोट मिले लेकिन सीट एक भी नहीं मिल पाई। सपा को 22.20 प्रतिशत वोट मिले और इसे लोकसभा की सिर्फ पांच सीटों पर जीत मिली। सपा और बसपा के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाए तो यह 41.80 प्रतिशत पहुंच जाता है।

– एनडीए गठबंधन में शामिल अपना दल का वोट प्रतिशत छोड़ भी दें तो भाजपा को 42.30 प्रतिशत वोट मिले थे और वह 71 सीटों पर जीती।  इसके बाद विधानसभा 2017 के  चुनाव में भी सपा को 21.8 प्रतिशत और बसपा को 22.2 प्रतिशत वोट मिले। मतलब सपा का तो वोट प्रतिशत कुछ घटा लेकिन बसपा का बढ़ गया। यह मिलकर 44 प्रतिशत हो जाता है। इसके बावजूद सपा और बसपा को क्रमश: 47 व 19 सीटें ही मिलीं।

– भाजपा को 39.7 प्रतिशत वोट ही मिले। मतलब लोकसभा चुनाव के मुकाबले लगभग 2.10 प्रतिशत कम। बावजूद इसके भाजपा के 312 विधायक जीते। संभवत: इसी गणित ने सपा को कांग्रेस के बजाय बसपा के साथ गठबंधन करने को मजबूर किया है तो बसपा को भी लग रहा है कि सपा को साथ लिए बिना आगे बढ़ पाना मुश्किल है।

मुस्लिमों का मिल सकता है साथ, 19 प्रतिशत है प्रदेश में आबादी

कांग्रेस इस गठबंधन में शामिल नहीं हो रही है। उसकी तरफ से भी मुस्लिमों को अपने पाले में खींचने की कोशिश होगी लेकिन जैसा अब तक देखा गया है कि भाजपा को हराने वाली पार्टी की तरफ ही मुस्लिम मतों का रुझान होता है। उसके मद्देनजर माना जा रहा है कि प्रदेश की 19 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के ज्यादातर मतदाताओं का समर्थन गठबंधन के साथ जा सकता है। इससे भाजपा की चुनौती बढ़ेगी।

कहा जा सकता है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस गठबंधन करके लड़े थे। बावजूद इसके मुस्लिमों का मत एकमुश्त भाजपा के विरोध में इस गठबंधन को नहीं गया था। पर, तब और अब के समीकरण अलग-अलग हैं। इस बार सपा और बसपा साथ हैं।

इसके चलते दो बड़ी आबादी 24 प्रतिशत अनुसूचित जाति में खासतौर से 15 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले जाटव और 54 प्रतिशत पिछड़ों में 20 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले यादव जाति के ज्यादातर मतदाताओं का समर्थन और सहानुभूति इस गठबंधन को मिलने की संभावनाएं बन सकती हैं। रालोद के चलते पिछड़ों में 4 प्रतिशत भागीदारी रखने वाले जाट बिरादरी का वोट भी गठबंधन के पक्ष में जाने की संभावनाएं बनती हैं।

ज्यादा प्रभावित करेगा सपा व बसपा का साथ

आमतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा को भी मुस्लिमों का मत मिलता रहा है। इस नाते 2017 में मुस्लिम मतों में सपा और बसपा के बीच बंटवारा भी हुआ था। इस बार चूंकि बसपा और सपा साथ हैं, इसलिए मुस्लिम मतों के इस गठबंधन के साथ ही रहने की उम्मीद दिखती है।

खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर जैसे स्थानों पर जहां मुस्लिम आबादी 40 से 50 प्रतिशत तक है वहां भाजपा को गठबंधन से कड़ा मुकाबला करना पड़ेगा। पांचों ही सीटों पर इस समय भाजपा के सांसद हैं। प्रदेश में लगभग 20 जिलों में मुस्लिम आबादी प्रभावी संख्या में है।

इनके  साथ अगर पिछड़ों और अनुसूचित जाति खासतौर से पश्चिम के कई जिलों में प्रभावी संख्या में मौजूद जाट और जाटव के मतों को जोड़ दें तो लोकसभा का चुनावी संघर्ष पश्चिमी उत्तर प्रदेश में काफी कांटे का बनता दिखता है।

पश्चिम की तरह मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में पिछड़ों और अनुसूचित जाति की आबादी के साथ मुस्लिम समीकरण भाजपा की गणित को बिगाड़ सकता है। हालांकि यह सब कुछ सपा और बसपा के गठबंधन के टिकाऊ होने पर निर्भर करेगा।

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