गुरुवार के दिन जरुर करें आदि शंकराचार्य रचित अच्युताष्टकम् का पाठ, होगी अक्षय फल की प्राप्ति

जगत के आधार, श्री हरि विष्णु का पूजन प्रत्येक एकादशी और बृहस्पतिवार या गुरुवार के दिन करने का विधान है। बृहस्पतिवार का दिन देवताओं के गुरू बृहस्पति देव को समर्पित है, जिन्हें भगवान विष्णु का ही अशंवातार माना जाता है। इसलिए बृहस्पतिवार के दिन भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है। इस दिन श्री हरि के पूजन से भक्तों की सभी समस्याओं का निराकरण होता है और मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। गुरुवार के दिन भगवान विष्णु के निमित्त व्रत रखने का भी विधान है। इस दिन प्रातःकाल में स्नान आदि से निवृत्त हो कर विष्णु पूजन करना चाहिए। पूजन में भगवान विष्णु को हल्दी, गुड़ और चने का भोग जरूर लगाएं। पूजन के अंत में आरती से पहले आदि शंकराचार्य रचित अच्युताष्टकम् का पाठ करना चाहिए। अच्युत अर्थात कभी समाप्त न होने वाले श्री हरि विष्णु का ये पाठ अक्षय फल प्रदान करता है। आप पर श्री हरि की कृपा हमेशा बनी रहती है। सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।

श्री अच्युतस्याष्टकम् ।

अच्युतं केशवं रामनारायणं

कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम् ।

श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं

जानकीनायकं रामचंद्रं भजे ॥1॥

अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं

माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम् ।

इन्दिरामन्दिरं चेतसा सुन्दरं

देवकीनन्दनं नन्दजं सन्दधे ॥२॥

विष्णवे जिष्णवे शाङ्खिने चक्रिणे

रुक्मिणिरागिणे जानकीजानये ।

बल्लवीवल्लभायार्चितायात्मने

कंसविध्वंसिने वंशिने ते नमः ॥३॥

कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण

श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे ।

अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज

द्वारकानायक द्रौपदीरक्षक ॥४॥

राक्षसक्षोभितः सीतया शोभितो

दण्डकारण्यभूपुण्यताकारणः ।

लक्ष्मणेनान्वितो वानरौः सेवितोऽगस्तसम्पूजितो

राघव पातु माम् ॥५॥

धेनुकारिष्टकानिष्टकृद्द्वेषिहा

केशिहा कंसहृद्वंशिकावादकः ।

पूतनाकोपकःसूरजाखेलनो

बालगोपालकः पातु मां सर्वदा ॥६॥

विद्युदुद्योतवत्प्रस्फुरद्वाससं

प्रावृडम्भोदवत्प्रोल्लसद्विग्रहम् ।

वन्यया मालया शोभितोरःस्थलं

लोहिताङ्घ्रिद्वयं वारिजाक्षं भजे ॥७॥

कुञ्चितैः कुन्तलैर्भ्राजमानाननं

रत्नमौलिं लसत्कुण्डलं गण्डयोः ।

हारकेयूरकं कङ्कणप्रोज्ज्वलं

किङ्किणीमञ्जुलं श्यामलं तं भजे ॥८॥

अच्युतस्याष्टकं यः पठेदिष्टदं

प्रेमतः प्रत्यहं पूरुषः सस्पृहम् ।

वृत्ततः सुन्दरं कर्तृविश्वम्भरस्तस्य

वश्यो हरिर्जायते सत्वरम् ॥९॥

श्री शङ्कराचार्य कृतं!

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