महाराष्ट्र: यहाँ पर होता है इतना भव्य दशहरा, महारानी भी महल की खिड़की से देखती रहती हैं…
मैसूर. बुराई पर अच्छाई की जीत के तौर पर भारत के साथ-साथ दुनियाभर में दशहरा को धूमधाम से मनाया जाता है। वैसे तो दशहरे पर देश के तमाम शहरों में किया जाने वाला रावण वध खास होता है, लेकिन एक शहर ऐसा है जहां दशहरा उत्सव देखने दुनियाभर से लोग आते हैं जबकि यहां न रावण का दहन होता है और न राम की पूजा। जी हां, कर्नाटक के मैसूर में दशहरे को मनाने की एक अलग तरीके की परंपरा है। यहां पर इसको ‘कर्नाटक का नाडा हब्बा’ कहते हैं। हर बार की तरह इस साल भी मैसूर राजघराने की भव्यता देखने को मिली। इस दौरान महारानी त्रिशिका वाडियार भी महल की खिड़की से महाराजा यदुवीर वाडियार को ताकने लगीं।
500 साल पुरानी परंपरा…
– तकरीबन 500 साल पुरानी परंपरा के अनुसार यहां के राजा नवरात्रों में नौ दिनों तक दरबार लगाते हैं। इन दिनों मैसूर के राजा यदुवीर हैं।
– इसी रीति-रिवाज को निभाते हुए राजा यदुवीर वाडियार दशहरे के दिन हाथी की सवारी करके नगर भ्रमण पर निकले हैं।
– इस जंबू सवारी को देखने के लिए हर साल करीब 6 लाख लोग मैसूर पहुंचते हैं। ये परंपरा करीब 500 साल पुरानी है।
– माना जाता है कि 15वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने इस पर्व को कर्नाटक में शुरू किया था।
– 14वीं सदी में इसकी ऐतिहासिक भूमिका थी और उस वक्त हम्पी नगर में इसको महानवमी कहा जाता था।
– इस साम्राज्य के पतन के बाद मैसूर के वाडियार राजाओं ने महानवमी (दशहरा) मनाने की परंपरा को जारी रखा।
– कृष्णराज वाडियार तृतीय ने मैसूर पैलेस में विशेष दरबार लगाने की परंपरा शुरू की थी।
– दिसंबर, 2013 में कृष्णराज वाडियार की मृत्यु के बाद इस परंपरा को उनके वारिस यदुवीर आगे बढ़ा रहे हैं।
– इसी रीति-रिवाज को निभाते हुए राजा यदुवीर वाडियार दशहरे के दिन हाथी की सवारी करके नगर भ्रमण पर निकले हैं।
– इस जंबू सवारी को देखने के लिए हर साल करीब 6 लाख लोग मैसूर पहुंचते हैं। ये परंपरा करीब 500 साल पुरानी है।
– माना जाता है कि 15वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने इस पर्व को कर्नाटक में शुरू किया था।
– 14वीं सदी में इसकी ऐतिहासिक भूमिका थी और उस वक्त हम्पी नगर में इसको महानवमी कहा जाता था।
– इस साम्राज्य के पतन के बाद मैसूर के वाडियार राजाओं ने महानवमी (दशहरा) मनाने की परंपरा को जारी रखा।
– कृष्णराज वाडियार तृतीय ने मैसूर पैलेस में विशेष दरबार लगाने की परंपरा शुरू की थी।
– दिसंबर, 2013 में कृष्णराज वाडियार की मृत्यु के बाद इस परंपरा को उनके वारिस यदुवीर आगे बढ़ा रहे हैं।
इसलिए है खास मैसूर का दशहरा
– दशहरे पर मैसूर के राजमहल में खास लाइटिंग होती है। सोने-चांदी से सजे हाथियों का काफिला 21 तोपों की सलामी के बाद मैसूर राजमहल से निकलता है।
– काफिले की अगुआई करने वाले हाथी की पीठ पर 750 किलो शुद्ध सोने का अम्बारी (सिंहासन) होता है, जिसमें माता चामुंडेश्वरी की मूर्ति रखी होती है। जो करीब 6 किमी दूर बन्नी मंडप में खत्म होता है जहां माता की पूजा की जाती है।
– पहले इस अम्बारी पर मैसूर के राजा बैठते थे, लेकिन 26वें संविधान संशोधन के बाद 1971 में राजशाही खत्म हो गई। तब से अम्बारी पर राजा की जगह माता चामुंडेश्वरी देवी की मूर्ति रखी गई।
– काफिले की अगुआई करने वाले हाथी की पीठ पर 750 किलो शुद्ध सोने का अम्बारी (सिंहासन) होता है, जिसमें माता चामुंडेश्वरी की मूर्ति रखी होती है। जो करीब 6 किमी दूर बन्नी मंडप में खत्म होता है जहां माता की पूजा की जाती है।
– पहले इस अम्बारी पर मैसूर के राजा बैठते थे, लेकिन 26वें संविधान संशोधन के बाद 1971 में राजशाही खत्म हो गई। तब से अम्बारी पर राजा की जगह माता चामुंडेश्वरी देवी की मूर्ति रखी गई।
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रावण का पुतला नहीं जलाया जाता
– खासकर साल 1972 के बाद से इस रिवाज में थोड़ा बदलाव आ गया है। जब से सरकार ने इस दशहरे के आयोजन का जिम्मा खुद लिया तब से राजपरिवार अपने महल में शाही अंदाज में दशहरा मनाता है जबकि बाहर राज्य सरकार बाहर का जिम्मा उठाती है।
– इस दशहरे की खासियत यह है कि यहां रावण का पुतला नहीं जलाया जाता और न ही राम को पूजा जाता है, बल्कि यहां दशहरे का पर्व इसलिए मनाया जाता है क्योंकि चामुंडेश्वरी देवी ने राक्षस महिषासुर का वध किया था।