EDITORs TALK : कंगना – मोहरा या वजीर ?

डॉ उत्कर्ष सिन्हा
बॉलीवुड की बगावत क्वीन कंगना राणावत हमेशा ही सुर्खियों में रहना पसंद करती है। पहले नेपोटिज्म के खिलाफ मोर्चा खोला और अब उससे आगे बढ़ते हुए महाराष्ट्र की सरकार के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया।
शिवसेना को जब कंगना ने ललकारा तो शिवसेना ने भी अपने ही चिर परिचित अंदाज में कंगना का आफिस गिरा दिया। शिवसेना के अखबार सामना की हेडलाईंन बनी “उखाड़ दिया”
मगर ऐसे मामले से राजनीति कभी दूर नहीं रहती तो इस मामले में भी राजनीति की सुगंध आ ही गई। भाजपा नेताओं ने कंगना के पक्ष में बयान देने तो शुरू कर ही दिए, साधु संतों की फौज भी कंगना के साथ आने लगी। अब ये मत पूछिएगा की वैरागी साधुओं को सिनेमा की एक अभिनेत्री के पक्ष में क्यों आना पड़ा। हर बात पूछने की नहीं समझने की भी होती है।
एक करनी सेना है, खास मौकों पर आती है, खासकर सिनेमा से जुड़े मामलों में पब्लिसिटी की गुंजाईश ज्यादा होती है तो वो आती ही है, तो वो भी आ गई। अब इसके सियासी पहलूँ को जरा गौर से देखिए। शिवसेना इसे मुंबई के अपमान से जोड़ कर सियासत कर रही है, भाजपा इसे वंशवाद और फिर उत्तरभारत बनाम महाराष्ट्र बनाने में लगी है और मायानगरी भी दो फाड़ में बंट गई है।
बात पीओके से शुरू हो कर दाऊद के घर तक पहुंच गई है। ये वो मुद्दे हैं जों उत्तर भारत को रोमांचित करते रहे हैं, अब फिर कर रहे हैं, चुनावी फसल कैसी होगी ये देखना है क्योंकि बीज और खाद तो डाला जा चुका है।
कंगना केंद्र में हैं मगर क्या वो इस खेल की वजीर है या फिर महज एक मोहरा ? आज इसे समझने की कोशिश करेंगे

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