बिहार: लगातार सियासी ठिकाने बदलते रहे हैं शरद, जानिए नये दल से कितना मिलेगा संबल

पटना। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के चौथे वर्ष में प्रवेश करने के तुरंत बाद शरद यादव ने अपनी नई पार्टी का गठन कर भाजपा के खिलाफ जंग का ऐलान तो कर दिया, लेकिन सवाल है कि नए दल से उन्हें कितना संबल मिल पाएगा? सियासत में क्रांति करना कितना मुश्किल होता है, यह शरद से बेहतर और कोई नहीं जान सकता, क्योंकि लोकतांत्रिक जनता दल (लोजद) के गठन से पहले खुद शरद कई दलों के निर्माता-निर्देशक रह चुके हैं।

चुनाव से पहले नए दल के गठन का बिहार में पुराना इतिहास रहा है। राजद प्रमुख लालू प्रसाद के रिश्तेदार साधु यादव, करीबी रंजन यादव एवं आनंद मोहन जैसे कई नेता अपना दल बना चुके हैं। संघर्ष के रास्ते पर चलकर देख चुके हैं और हाशिये पर जाने का दर्द भी महसूस कर चुके हैं।

चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में फिलहाल 32 पार्टियों का निबंधन है। अनिबंधित दलों की संख्या भी दर्जनों है। राज्य की सियासत में प्रमुख स्थान रखने वाले राजद, जदयू, लोजपा, रालोसपा एवं हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) को छोड़कर अन्य दलों की आम लोगों के बीच पहचान भी मुश्किल है।नए दल के लिए शरद को अभी लंबा संघर्ष करना पड़ेगा। समर्पित नेताओं-कार्यकर्ताओं का काफिला बनाना पड़ेगा, जिसके आसार कम नजर आ रहे हैं, क्योंकि कई बार अपनी ही बनाई पार्टियों को छोड़कर शरद आगे निकल गए हैं।

नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह, देवीलाल, जार्ज फर्नांडीज, कर्पूरी ठाकुर एवं मधु लिमये जैसे बड़े नेताओं के साथ शरद बार-बार जुड़ते-बिछड़ते रहे हैं। सियासी जमीन भी नहीं तलाश पाए हैं। पहली बार जबलपुर से 1974 में सांसद बनने से लेकर अभी तक कई प्रदेशों की कई संसदीय सीटों से चुनाव लड़कर हार-जीत चुके हैं।मौजूदा दौर में जिस फार्मूले के आधार पर किसी को जनाधार वाला नेता माना जाता है, उसपर शरद यादव फिट नहीं बैठते हैं। करीब पांच दशकों के संसदीय जीवन में उन्होंने जनाधार के जुगाड़ की जरूरत ही नहीं समझी।

शरद के बदलते रहे सियासी ठिकाने

जय प्रकाश नारायण की कृपा से पहली बार 1974 में जबलपुर से युवा सांसद बने शरद कई पार्टियों की कमान संभाल चुके हैं। पहली बार वह हलधर किसान चुनाव चिह्न से जीते थे, जो 1977 में जनता पार्टी का चुनाव चिह्न बना। तब शरद जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज के छात्र अध्यक्ष थे। 1977 में जनता दल से दोबारा यहीं से चुने गए।

1995 में जनता दल के कार्यकारी अध्यक्ष बने। 1997 में लालू के हटने पर अध्यक्ष। महज साल भर में ही मोहभंग हो गया तो 1998 में जॉर्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर जनता दल का गुट अलग कर लिया। 2003 में इसी गुट में समता पार्टी और लोकशक्ति पार्टी का विलय करवाकर जदयू का गठन किया और पार्टी से निकाले जाने के कुछ महीने पहले तक जदयू के अध्यक्ष बने रहे।

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