Barwani News दुनियाभर के विभिन्न् आदिवासी समाजों में पत्थलगड़ी की यह परंपरा मौजूदा समय में भी है बरकरार

‘हमारे गांव में हमारा राज” और ‘न लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊपर ग्रामसभा” इन वाक्यों को ध्येय बनाकर जिले में आदिवासी संगठनों ने एक आंदोलन की शुरुआत की है। इसके तहत ‘पत्थलगड़ी” परंपरा की तर्ज पर गांव की सीमा तय कर एक बोर्ड लगाया जा रहा है। इस बोर्ड पर विभिन्ना कानूनों का उल्लेख कर ‘पेसा (पंचायत एक्सटेंशन ओवर शिड्यूल एरियाज एक्ट-1996) कानून व वन अधिकार कानून लागू करने की मांग की जा रही है। साथ ही सामुदायिक पट्टों की मांग भी की जा रही है।

ज्ञात हो कि प्रदेश के अन्य आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों छत्तीसगढ़, झारखंड आदि में पत्थलगड़ी परंपरा का अलगाववाद व नक्सलवाद से जुड़ाव होने के चलते, इसे विवादास्पद भी माना गया है। दूसरी ओर स्थिति यह है कि जिले में लग रहे इन बोर्ड की जानकारी न तो प्रशासन को है और न ही जनप्रतिनिधियों को।

प्रदेश के गृहमंत्री के गृह जिले में लग रहे इन बोर्ड की जानकारी शासन-प्रशासन को न होना भी कई सवाल खड़े कर रहा है। हालांकि जिले में लगाए जा रहे सूचना बोर्डों को लेकर संगठन सदस्यों द्वारा जंगल को बचाने, गांव की प्राथमिकता गांव में तय करने, विकास कार्य स्वयं तय करने आदि के तर्क दिए जा रहे हैं। वर्तमान में जिले में बन रही परिस्थितियों पर नईदुनिया की खास रिपोर्ट-

क्या है पत्थलगड़ी परंपरा

पत्थलगड़ी उन पत्थर स्मारकों को कहा जाता है, जिसकी शुरुआत इंसानी समाज ने हजारों साल पहले की थी। यह एक पाषाणकालीन परंपरा है, जो आदिवासियों में आज भी प्रचलित है। माना जाता है कि मृतकों की याद संजोने, खगोल विज्ञान को समझने, कबीलों के अधिकार क्षेत्रों के सीमांकन को दर्शाने, बसाहटों की सूचना देने, सामूहिक मान्यताओं को सार्वजनिक करने आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रागैतिहासिक मानव समाज ने पत्थर स्मारकों की रचना की। पत्थलगड़ी की इस आदिवासी परंपरा को पुरातात्विक वैज्ञानिक शब्दावली में ‘महापाषाण, शिलावर्त और मेगालिथ” कहा जाता है। दुनियाभर के विभिन्न् आदिवासी समाजों में पत्थलगड़ी की यह परंपरा मौजूदा समय में भी बरकरार है। झारखंड के मुंडा आदिवासी समुदाय इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं।

पत्थलगड़ी के साथ क्या है विवाद

देश के विभिन्न राज्यों में गत वर्ष जून माह के आसपास नक्सलवाद के बाद एक नया आंदोलन जोर पकड़ता नजर आया, इसे पत्थलगड़ी कहा गया। इस आंदोलन की आहट मप्र सहित झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना व पश्चिम बंगाल के विभिन्न् इलाकों में सुनी गई। इस दौरान विभिन्न् जगहों पर गांवों के बाहर एक पत्थर लगाया गया, इस पर लिखा गया कि ‘यहां ग्रामसभा का शासन है, सरकारी आदेशों और सरकारी संस्थानों की यहां कोई मान्यता नहीं है”। इस प्रक्रिया को नक्सलवाद व अलगावाद से जोड़कर देखा गया। इसी के चलते यह मुद्दा खासा विवादास्पद भी रहा है।

मिलना चाहिए अधिकार

बोर्ड लगने की जानकारी नहीं है लेकि न आदिवासियों को संविधान के अनुसार उनका अधिकार मिलना चाहिए और इस कानून को लागू कि या जाना चाहिए। लोकतंत्र में सभी स्वतंत्र हैं और संगठनों द्वारा जो मांग की जा रही है, उनका अधिकार है।-अंतरसिंह आर्य, पूर्व कैबिनेट मंत्री

पेसा कानून हमारे वचन पत्र में है

ऐसा पहली बार सुना कि कोई बोर्ड लगाए जा रहे हैं, लेकि न सरकार को यदि कहीं काम करना है तो वो विधिवत तरीकों से करेगी। पेसा कानून हमारे वचन पत्र में है। 2006 में जो वन अधिकार अधिनियम मनमोहनसिंह ने बनाया, उसे वैसा ही लागू करने से मप्र की कांग्रेस सरकार और सीएम कमलनाथ को कोई परहेज नहीं है। वनों में रहने वाली जनता के विकास के लिए सरकार इस कानून को लागू कर पालन करवाएगी। मप्र में कोई नक्सली गतिविधि पनप नहीं सकती। आवश्यकता होने पर संगठन के लोगों से मिलकर बात की जाएगी।– बाला बच्चन, गृहमंत्री मप्र शासन

पूरे मामले को समझा जाएगा

जिले में इस तरह के बोर्ड लग रहे हैं, यह जानकारी आपसे मिली है। मामले को दिखवाया जाएगा और संगठन की कोई मांग या समस्या है तो उसको लेकर भी बात की जाएगी। पूरे मामले को समझने के बाद ही कि सी निर्णय पर पहुंच पाएंगे। – अमित तोमर, कलेक्टर बड़वानी

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