2019 के लोकसभा चुनाव में दलित होंगे चुनाव का बड़ा मुद्दा

एससी/एसटी एक्ट पर 20 मार्च को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित राजनीति में उबाल है. फैसला देने वाले जजों में शामिल एके गोयल की एनजीटी चेयरमैन के रूप में नियुक्ति पर बीजेपी के भी दलित सांसद और मंत्री सवाल उठा रहे हैं. इस एक्ट के बहाने 9 अगस्त को दूसरी बार देशव्यापी दलित आंदोलन होने जा रहा है. इससे पहले 2 अप्रैल को हुआ था. दलित संगठन और नेता सब इस मसले पर सरकार को घेर रहे हैं. सबसे ज्यादा मुखर बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के दलित नेता हैं. इसकी वजह क्या है? क्यों राम विलास पासवान, चिराग पासवान, उदित राज और सावित्री बाई फूले सरीखे बीजेपी के दलित नेता इतने बेचैन हैं? क्या इसके पीछे कोई रणनीति है?

सियासी जानकारों का कहना है कि इस बेचैनी से यह सम“झा जा सकता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में दलित बड़ा मुद्दा होंगे. दरअसल, एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हुए आंदोलन ने सत्तारूढ़ दल की परेशानी बढ़ा दी है. इसीलिए मोदी कैबिनेट ने एससी/एसटी एक्ट पर संशोधन प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. संसद के इसी सत्र में इसे पेश किए जाने की संभावना है.

दरअसल, बीजेपी सांसद उदित राज पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के सामने एससी-एसटी कानून में बदलाव को लेकर नाराजगी जता चुके हैं. उनका मानना है कि इसके चलते दलित समुदाय बीजेपी से नाराज है. एससी-एसटी कानून में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलितों के खिलाफ अत्याचार के मामलों में वृद्धि हुई है, क्योंकि अब कोई डर नहीं रह गया है.केंद्रीय मंत्री एवं लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान ने एससी/एसटी एक्ट और जस्टिस एके गोयल को लेकर गृह मंत्री राजनाथ सिंह को पत्र लिखा है. इसमें कहा है कि एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलितों में सरकार के लिए अच्छा संदेश नहीं गया है. दलितों में सरकार विरोधी माहौल बन रहा है. एससी/एसटी एक्ट संशोधन बिल पर तो सरकार आगे बढ़ रही है लेकिन उसने जस्टिस गोयल की एनजीटी चेयरमैन के रूप में नियुक्ति को लेकर अभी कुछ नहीं कहा है. पासवान और अन्य दलित सांसद गोयल को हटाने की मांग कर रहे हैं.

दलित एक्टिविस्ट डॉ. सतीश कहते हैं “बीजेपी के दलित नेता इसलिए मुखर हो रहे हैं क्योंकि उनको अपनी जमीन खिसकने का डर है. क्योंकि 2 अप्रैल का दलित आंदोलन बिना किसी नेता की अगुवाई के हुआ था. इससे समाज में एक मैसेज गया कि बिना दलित नेताओं के भी आंदोलन हो सकते हैं. काफी नेता उनके काम के नहीं रहे. आम चुनाव नजदीक है. इन नेताओं को डर है कि दलितों की बात नहीं करेंगे तो वोट कौन देगा?”

“दूसरे बीजेपी अपने नेताओं और सहयोगियों से मुद्दा उठवाकर दलित असंतोष का फायदा मायावती को नहीं लेने देना चाहती. इसलिए अपने दलित नेताओं को आगे किया है, ताकि यह लगे कि बीजेपी के दलित नेता एससी/एसटी एक्ट और यूनिवर्सिटी में आरक्षण जैसे मुद्दों पर अन्य दलों से ज्यादा विरोध कर रहे हैं. उन्हें लगता होगा कि शायद इस बहाने दलितों का रुझान बीजेपी की तरफ बना रहेगा. रही बात रामविलास पासवान की तो वो 2 अप्रैल को कहां थे? उन्हें देश बंद करना चाहिए या फिर संसद. वे तो सरकार का हिस्सा हैं वो संसद में दबाव बनाएं.”

हालांकि, भाजपा सांसद उदित राज कहते हैं “स्वदेशी जागरण मंच भी आंदोलन करता है, विश्व हिंदू परिषद भी करता है, वे भी आवाज उठाते हैं, उनकी सरकार भी तो है. इसी तरह हमारी सरकार भी है. हम भी दलितों की आवाज उठा रहे हैं और उठाते रहेंगे. हम उठाते हैं तो सवाल क्यों उठते हैं?”क्या मायावती उठाएंगी दलित असंतोष का फायदा?
दलितों के संख्याबल की वजह से मायावती, रामबिलास पासवान, उदित राज, रामदास अठावले जैसे नेता उभरे हैं. चंद्रशेखर आजाद और जिग्नेश मेवाणी जैसे नए दलित क्षत्रप भी इसी संख्या की बदौलत पैदा हुए हैं. लेकिन सबसे बड़ी नेता मायावती ही मानी जाती हैं. क्योंकि उनकी अपील राष्ट्रीय स्तर पर काम करती है.

ऐसे में मायावती यह मानकर चल रही हैं कि दलितों में उपजे असंतोष का फायदा उनकी पार्टी को ज्यादा मिलेगा. बसपा का मानना है कि मायावती अपने काम की वजह से दबे-कुचले वर्ग में राजनीतिक उत्कर्ष का प्रतीक हैं. इसीलिए उनकी एक आवाज पर दलित गोलबंद हो जाते हैं. गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उप चुनाव में मायावती के समर्थन से भाजपा पर सपा की जीत के बाद यह बात और पुख्ता होती है. ऐसे में सत्ताधारी पार्टी के दलित नेता ज्यादा मुखर हैं.

उदित राज को चंद्रशेखर का मुद्दा लोकसभा में उठाना पड़ा

बीजेपी के दलित सांसद उदित राज ने तो लोकसभा में भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद की रिहाई की मांग उठा डाली, जबकि उन्हीं की पार्टी की सरकार ने उसे जेल में डाल रखा है. यूपी से आने वाली बीजेपी की ही दलित सांसद सावित्री बाई फुले ने कहा है “एससी-एसटी अधिनियम के कमजोर पड़ने से दलित समुदाय के लोगों को भी नुकसान पहुंचा है. देशभर में विरोध-प्रदर्शन के दौरान उन पर हमला किया गया था. प्रदर्शन में जिन लोगों की हत्या हुई थी उनको मुआवजा भी नहीं मिला.”

सियासत में क्यों महत्वपूर्ण हैं दलित?

अब सवाल ये उठता है कि दलित भारतीय राजनीति में इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं? दरअसल, समाज में सबसे कमजोर माने जाने वाले इस वर्ग की बड़ी सियासी ताकत है. यह ताकत है इनकी संख्या की वजह से. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 16.63 फीसदी अनुसूचित जाति और 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजाति हैं. 150 से ज्यादा संसदीय सीटों पर एससी/एसटी का प्रभाव माना जाता है.

सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 46,859 गांव ऐसे हैं जहां दलितों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है. 75,624 गांवों में उनकी आबादी 40 फीसदी से अधिक है. देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा की 84 सीटें एससी के लिए जबकि 47 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं. विधानसभाओं में 607 सीटें एससी और 554 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं. इसलिए दलितों का हितैषी बनने के लिए सभी दलों में होड़ लगी हुई है. ऐसी होड़ कि कहीं ये वोट बैंक हाथ से छूट न जाए.

दलित वोटों की चिंता किसी एक की नहीं

दलित वोट बैंक किसके साथ होगा इसकी सबसे ज्यादा कसमसाहट बीजेपी के दलित नेताओं में है. बेचैनी उन लोगों में भी है, जो अपने आपको अब तक दलितों का सबसे बड़ा खैरख्वाह मानते आए हैं. चिंता आरएसएस को भी है और बीजेपी को भी. कांग्रेस यह सपना देखने लगी है कि वर्षों पहले उसका कोर वोटर रहा दलित उसकी ओर लौट आए. मायावती तो अपने आपको दलित वोटों का स्वाभाविक हकदार मानकर चल रही हैं. मतलब हर दल दलितों के मुद्दों को उठाकर फायदा लेने की फिराक में है. फिलहाल तो जब तक एससी/एसटी एक्ट पर संशोधन बिल संसद में पास नहीं हो जाता तब तक इस पर सियासत जारी रहने की संभावना है.

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