12 साल की उम्र में घर त्यागकर बने थे संत, हनुमान अवतार के रूप में होती है पूजा

नई दिल्ली : 9 फरवरी को स्वामी रामदास की जयंती है. स्वामी रामदास महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त थे. दक्षिण भारत में हनुमानजी के अवतार के रूप में उनकी पूजा की जाती है. वे छत्रपति शिवाजी के भी गुरु थे. उन्होंने मराठी भाषा में एक ग्रन्थ ‘दासबोध’ की रचना की थी. स्वामी रामदास को समर्थ रामदास के नाम से भी जाना जाता है. उनका जन्म 9 फरवरी, 1608 में हुआ था. उनके पिता का नाम सूर्याय पंत था. पिता सूर्यदेव के उपासक थे और प्रतिदिन ‘आदित्यह्रदय’ स्तोत्र का पाठ करते थे. उनकी माता का नाम राणुबाई था. माता भी सूर्य नारायण की उपासिका थीं. स्वामी रामदास के बड़े भाई का नाम गंगाधर था और वे भी अध्यात्मिक पुरुष थे.

मां की बात दिल से लग गई और बन गए संत

कहा जाता है कि मां की एक बात को उन्होंने दिल से लगा लिया. उसके बाद एक कमरे में ध्यान करने चले गए और दिनभर ध्यान में डूबे रहे. जब उनकी मां उन्हें खोजते-खोजते उस कमरे तक गई जहां वे ध्यानमग्न थे तो मां को बहुत आश्चर्य हुआ. फिर मां ने उनसे पूछा कि यह क्या कर रहे हो तो रामदास ने जवाब दिया कि मैं पूरी दुनिया की चिंता कर रहा हूं. मां ने उनसे कहा था कि तुम पूरा दिन शरारत करते हो और तुम्हारे बड़े भाई घर परिवार की चिंता करते हैं. यही बात रामदास ने मन में बैठ गई और वे ध्यान करने के लिए एक कमरे में चले गए.

12 साल की उम्र में घर को त्याग दिया था
स्वामी रामदास 12 साल की उम्र में घर को त्यागकर नासिक के टाकली गांव में आ गए. यहां पर उन्होंने कठोर तप शुरू किया. वे हर रोज सुबह उठकर 1200 सूर्यनमस्कार करते थे. उसके बाद गोदावरी नदी में खड़े होकर राम नाम और गायत्री मंत्र का जाप करते थे. कठोर तप के दौरान ही उन्होंने एक रामायण लिखा जो ‘करुणाष्टक’ नाम से प्रसिद्ध है. वे 12 साल तक कठोर तप करते रहे. 24 साल की उम्र में उन्हें आत्म साक्षात्कार हुआ.

राम नाम का जप करते हुए छोड़ दिया शरीर
स्वामी रामदास अपने जीवन के अंतिम समय में सतारा के पास एक किले पर थे. इस किले को सज्जनगढ़ के नाम से जाना जाता है. तमिलनाडू के एक कारीगर ने प्रभु श्री रामचंद्र, माता सीता और लक्ष्मण की मूर्ति बनाकर सज्जनगढ़ को भेज दी. इसी मूर्ति के सामने स्वामी रामदास ने अपने जीवन के अंतिम पांच दिन निर्जल उपवास किया. फिर रामनाम जाप करते हुए पद्मासन में बैठकर ब्रह्मलीन हो गए. यहीं पर उनकी समाधि है. उनका समाधी दिवस ‘दासनवमी’ के नाम से जाना जाता हैं.

 
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