हिन्दी साहित्य 150 रुपये किलो

दिनेश चौधरी
‘हिंदी साहित्य 150 रुपये किलो’ के विज्ञापन देख कर रहा नहीं गया। मैंने झोला निकाला और आदतन श्रीमती जी से पूछा, ‘क्या लाना है?’ उन्होंने कहा, ‘ 2 किलो नॉवेल, 1 किलो कविता, एकाध किलो संस्मरण और 1 पाव आलोचना।’ मैंने पूछा ‘आलोचना इतनी सी?’ उन्होंने कहा, ‘तीखी होती है और ज्यादा खपती भी नहीं।’
दुकान में भीड़ थी। राजभाषा वाले मित्र मिल गए। दो बोरियाँ लेकर आए थे। मैंने पूछा, ‘ क्या साल भर का स्टॉक एक साथ ले जाते हैं?’ उन्होंने कहा, ‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। हिंदी पखवाड़े के लिए दो लाख का बजट था। गेस्ट के फ्लाईट और रहने का खर्च, प्रिंटिंग, एड, रिफ्रेशमेंट वगैरह में सारे पैसे खप गए। तीनेक हजार बचे थे तो सोचा 12-15 किलो साहित्य खरीद लूँ। आखिर अपनी दाल-रोटी इसी से चलनी है।’
‘और क्या चल रहा है, डिपार्टमेंट में?’ मैंने पूछा। उन्होंने कहा कि ‘काम का प्रेशर बहुत है। रोज हिंदी का एक नया शब्द निकालना पड़ता है। फिर अंग्रेजी में उसका अर्थ और समानार्थी शब्द। कामकाज में उसकी उपयोगिता। रोज एंट्रेस के ब्लैक बोर्ड में इसे लिखना होता है। आजकल काम का दबाव कुछ ज्यादा ही हो गया है।’ मैंने कहा, ‘ सही कह रहे हैं। रोज एक शब्द लिखवाकर सिर्फ एक लाख की सैलरी देना मजदूरों का शोषण है।’ ‘हाँ, वो तो है’ कहकर वे साहित्य तुलवाने में लग गए। बड़ा ग्राहक देखकर दुकान वाले ने थोड़ा साहित्य ऊपर से भी डाल दिया।
कार से एक मेमसाब भी उतरी थीं। उन्हें ब्लू कवर वाले साहित्य की जरूरत थी। उन्होंने बताया की रेड कवर वाली पहले से बहुत हैं। अभी ड्राइंग रूम में ब्लू कलर के परदे लगवाएं हैं, इसलिए मैचिंग लिट्रेचर की जरूरत है। मेम साहब की बिटिया नाक-भौं सिकोड़ रही थी। हिंदी लिटरेचर लेना उसे अपमान जनक लग रहा था। मेम कह रही थीं, ‘ पढ़ना तो है नहीं, सेल्फ में लगानी हैं तो थोड़ा चीप लिट्रेचर लेना ही ठीक रहेगा।’
दुकानदार से दुआ-सलाम है। बैठने के लिए कुर्सी दी और चाय भी मंगवाई। मैंने कहा, ‘हिंदी साहित्य का रेट कुछ ज्यादा ही नहीं गिर गया है?’ उसने कहा, ‘नहीं बाऊजी, ये तो सीजन का रेट है। अभी हिंदी पखवाड़ा चल रहा है तो उठाव भी ज्यादा है। ऑफ़ सीजन में तो हम लोग 100 रुपये किलो बेचते हैं।’

‘इतना माल कहाँ से आ जाता है’ मैंने पूछा। उसने कहा, ‘माल की कमी नहीं है। दीवाली की पुताई से पहले लोग बहुत सारा माल अपने घर से निकालते हैं। अभी जो मेमसाब आई थीं, उनके पर्दे बदल जाएंगे तो सारा माल यही छोड़ जाएंगी। राजभाषा विभाग हर साल यही करता है। इस साल का सरप्लस हमारे पास पटक जाता है और अगले साल उसी को खरीद भी लेता है। वैसे सबसे ज्यादा आवक कविता की है।’
‘कविता की?’ मैंने हैरानी से पूछा। उसने कहा, ‘हाँ। आप तो जानते ही हैं, हिंदी में सबसे ज्यादा कविता ही लिखी जाती है। पढ़ी कम जाती है, लिखी ज्यादा जाती है। हर मोहल्ले में 4-5 कवि तो होते ही हैं। कविता कहीं छपती नहीं है। लौटकर आ जाती है तो अपने खर्चे से उन्हीं का संग्रह छपवा लेते हैं। बाँटे तो कितना बाँटे? जिसे देते हैं, वो कहता है कि पहले से एक पड़ी है। तो वो सारा माल यहीं आ जाता है।’
‘एक मजेदार किस्सा है। पड़ोस के मोहल्ले में एक कवि रसराज रसिक रहते हैं। दो बेटे हैं, दोनों किरानी। आमदनी अच्छी है। रसिक को को काव्य संग्रह छपाने का शौक है। बेटे जानते हैं कि फिजूलखर्ची है पर कहते हैं कि चलो ठीक ही है। बाप अगर क्लब में जाता, जुआ खेलता, दारु पीता तो इससे ज्यादा खर्च होता। इससे अच्छा है कि कविता लिखता है।’
‘तो एक बार यूँ हुआ कि रसिक जी ने जोश-जोश में अपने काव्य संग्रह की 5 हजार प्रति छपवा ली। अब बाँटे तो कितना बाँटें। एक नौजवान मिला। कहा कि आप उच्च कोटि के कवि हैं, आपके साहित्य का प्रचार मैं करूँगा। रोज 3-4 प्रतियाँ ले जाता। एक दिन रसिक जी को मालूम पड़ा कि वह पनवाड़ी है तो मारे गुस्से के सारी प्रतियाँ यहाँ पटक गए। अब यह 50 रुपये किलो में भी क्या बुरा है?’
मैंने पूछा, ‘ साहित्य नग के हिसाब से नहीं बेचते?’ जैसे शास्त्रीय संगीत का गवैया उस्तादों के नाम लेते हुए कान पकड़ लेता है, उसने कान छूकर बताया कि वेद प्रकाश जी और सुरेन्द्र मोहन जी की बिकती हैं। पहले मनोहर कहानियाँ और सत्य-कथा भी बिकती थी पर अब तो टीवी चैनल ज्यादा सच्चे और ज्यादा मनोहारी हो गए हैं। नग वाला जमाना चला गया है, अब तो किलो का ही हिसाब चलता है।’
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‘अंग्रेजी का साहित्य नहीं रखते’ मैंने पूछा। पटरे पर बैठकर सब्जी बेचने वाले से जैसे बेबी कॉर्न या बटन मशरूम मांग लिया गया हो, उसने सकुचाते हुए कहा, ‘नहीं बाऊजी, उसके लिए तो आपको बिग बाज़ार जाना पड़ेगा। शो रूम भी हैं। यह बड़े डीलरों वाला काम है।’
मैंने पाँच-छः किलो साहित्य तुलवाया। दुकानदार अंदर गया। लौटकर कहा आपके लिए स्पेशल गिफ्ट है। परसाई जी की किताब थी, ‘प्रेमचन्द के फ़टे जूते।’
जिस भाषा का साहित्य 150 रूपये किलो बिकता हो, उसके लेखक को फटे जूते नसीब हो जाएँ, यही बड़ी बात है

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