सपा-बसपा गठबंधन में हुई रालोद की वापसी

सपा-बसपा गठबन्धन में नया दल अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल भी शामिल हो गया है। इस प्रकार अब इस गठबन्धन की मजबूती को कितना और किस प्रकार देखा जाये? अन्य छोटे दलों को गठबन्धन का अंग बनाने का प्रयत्न इसलिए नहीं हो पायेगा क्योंकि सीटों के बंटवारे में अब कुछ बचा ही नहीं, जिसे दूसरे दलों को दिया जाय। इस प्रकार क्या इस गठबन्धन को पर्याप्त कहा जा सकता है। यदि नहीं, तो कांग्रेस तथा सपा के विद्रोही जब सभी सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा को दोहरायेंगे तो उससे यह मोर्चा कमजोर होगा या नहीं? यह मानना कि भाजपा और कांग्रेस का मूल आधार जो उच्च वर्ग बचा है, उसके प्रभाव वाले वोटों के गठबंधन के विपरीत जाने का लाभ भी इसे मिलेगा, लेकिन यह तभी सही प्रमाणित हो पायेगा जब इन विरोधों की सीमाएं केवल उच्च वर्ग या सवर्ण तक ही सीमित हो जाएं जिसके लाभ के लिए मोदी ने संसद में संविधान संशोधन के जरिए आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने की व्यवस्था की है, उस वर्ग की स्वीकार्यता ही निर्णायक पक्ष में जाने वाली हो? यदि यह आकर्षण का केन्द्र बनता है तो, उसका प्रभाव नये गठबंधन पर कैसा होगा? पिछली बार विधान सभा चुनाव में भाजपा को जो अपूर्व समर्थन मिला, जिससे बहुमत वाली सपा की सीटें घटकर 47 तक सीमित हो गयीं, क्या उसका मूल कारण पिछड़ी जातियों का सपा के खिलाफ विद्रोहात्मक प्रवृत्ति थी? उनका यह मन बन गया था कि यह केवल यदि यादव पार्टी में परिवर्तित हो जाएगी तो केवल 10 प्रतिशत मत और उसमें अल्पसंख्यक ही रह जाएंगे, ऐसी स्थिति में चुनावों में उसे निराशा ही मिलेगी।
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जब चुनाव परिणाम आये, जिसके बारे में सपा की यह धारणा थी कि वह पुनरू सत्ता में आ रही है, निर्मूल और निरर्थक सिद्ध हो गयी तभी उसे मजबूत करने के लिए 24 वर्ष पुरानी दुश्मनी को भुलाकर उसे बसपा की शर्तों के अनुसार समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन यह सवाल अपनी जगह पर ही रह गया कि क्या अन्य पिछड़ा वर्ग पुनरू सपा के खेमे में आने या उसका समर्थन करने के लिए तैयार हो गया है। जहां तक बसपा का सम्बन्ध है, वह उस समय अपने बल पर एक बार सत्ता में आ चुकी है जब ब्राहमण वर्ग के बहुमत का समर्थन उससे जुड़ गया था, लेकिन सरकार की नीतियों से इस समुदाय को निराशा ही मिली। परिणामस्वरूप 2017 के चुनाव में वह तीसरे स्थान पर पहुंच गयी। इस प्रकार चुनावी हानि-लाभ का मूल्यांकन करना होगा तो उसके पडऩे वाले प्रभावों की अनदेखी नहीं हो सकती। इसलिए सपा और बसपा के अतिरिक्त अन्य पिछड़े वर्गो तथा जाट जो प्रमुख रूप से किसान मतदाता के रूप में मौजूद है, उन दोनों का संयुक्त समर्थन अपेक्षित था। इसी प्रकार बसपा के खिलाफ जन्मी वितृष्णा कम होनी थी क्योंकि अनुसूचित जाति और जनजाति का उसे अधिक समर्थन इसलिए मिलता है क्योंकि अन्य कोई वैकल्पिक नेतृत्व जन्मा ही नहीं, जो उसका स्थान ले सके। इस फैसले से कांग्रेस जो आज भी एक प्रमुख संगठन है, उसकी प्रतिष्ठा और सीटें हाल के चुनावों में बढ़ी हैं।
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इसी के फलस्वरूप दो प्रदेशों में वह सबसे बड़े दल और छत्तीसगढ़ में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच गयी। इससे यह मानना पड़ेगा कि अब वह पुरानी कांग्रेस नहीं रह गयी बल्कि तीसरे दल की विकल्पहीनता के कारण उन राज्यों में प्रभाव पड़ा है, इसीलिए मध्य प्रदेश और राजस्थान में बहुमत के आसपास तक पहुंचने में समर्थ रही। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज भी राजनीति अवसरवाद और लाभ के सिद्धान्तों से मुक्त नहीं हो पायी है। इस प्रकार कांग्रेस का अलग चुनाव लडऩा भाजपा विरोधी गठबन्धन को किस रूप में लाभ पहुंचा सकेगा? क्या भाजपा विरोध ही ऐसा तत्व है जो इससे प्रभावित हो रहा है। इस रूप में अन्य पिछड़े वर्ग और सपा परिवार के विद्रोही शिवपाल की नयी पार्टी तथा उसके समर्थन को किस रूप में देखा जाय। जब सपा-बसपा का समझौता हो गया है तब उसका आकार और स्वरूप भावी चुनाव के लिए उसकी कमियों तथा जनभावनाओं की क्या स्थिति है, यह देखना पड़ेगा। इसी प्रकार जाट समुदाय जिस प्रकार भाजपा के समर्थन में आया था, यह अजित सिंह का विरोध ही है जो नया आधार बना रहा है। पहले जाटों में यह भावना थी कि किसी जाट नेता की हार वैयक्तिक मानी जाती थी लेकिन अजित सिंह की हार को वह अपने समुदाय की हार के रूप में देखता था। क्या इस स्थिति में कोई परिवर्तन आया है या नहीं, यह भी देखना होगा?
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सपा और बसपा के समझौते को बुआ और बबुआ सफलता का माध्यम मान रहे हैं, लेकिन यह सिद्ध भी उसी प्रकार हो, इसे कैसे देखा जाय। इस समझौते से एक बड़ी सफलता यह मिली है कि अल्पसंख्यक वोट जो पहले सबसे अधिक सपा और उससे कम बसपा के खाते में जाता था, उसमें अब बिखराव कम हो जायेगा। लेकिन क्या अल्पसंख्यकों का मतानुपात बढऩा ही जीत के पर्याय के रूप में देखा जा सकता है? कहीं यह अति आत्मविश्वास राजनैतिक दृष्टि से गलत दिशा की ओर जाने वाला तो नहीं सिद्ध होगा। इस क्रम में रालोद नेता जयन्त व सपा प्रमुख अखिलेश की वार्ता और उसमें हुए निर्णय को एक अच्छा कदम माना जा सकता है, लेकिन भाजपा विरोधी मतों के विभाजन को किस रूप में देखा जाय, यह भी प्रमुख तत्व होगा?जहां तक भाजपा का यह आत्मविश्वास कि उसे पहले की अपेक्षा इस बार अधिक समर्थन मिलेगा और उसके सीटों की संख्या घटने के बजाय भले तुलनात्मक दृष्टि से थोड़ी ही, पर बढेंघ्गी। भाजपा के इस विश्वास की वास्तविकता का मूल्यांकन जरूरी है। भाजपा के विरुद्ध संगठित विकल्प पर्याप्त है या केवल कुछ दलों का एक होना ही इस आवश्यकता के लिए पर्याप्त है। यह वास्तविकताओं के कितना निकट होगा, उसे भी देखना पड़ेगा।

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