वक़्त का नब्ज़ : घाटी का दर्द

मैंने कश्मीर घाटी के अच्छे दिन भी देखे हैं और बुरे दिन भी। पिछले महीने मैं यह सोचकर श्रीनगर गई कि बुरे दिनों का दौर देखने को मिलेगा। ऐसा इसलिए कि दिल्ली में विशेषज्ञ पिछले तीन साल से यह प्रचार करते फिर रहे हैं कि इतना बुरा समय कश्मीर घाटी में पहले कभी नहीं रहा। बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से मैं कश्मीर नहीं गई थी, क्योंकि उसने अपने हर वीडियो में स्पष्ट किया था कि उसका ‘जेहाद’ आजादी के लिए नहीं, कश्मीर घाटी में शरीयत लाने के लिए है।
मौत के बाद बुरहान वानी कश्मीर में इतना बड़ा हीरो बन गया था कि मुझे यकीन हो गया था कि घाटी में अब कट्टरपंथी इस्लाम का बोलबाला कायम हो गया होगा। मैं उन जगहों में जाना पसंद नहीं करती, जहां जेहादी इस्लाम की तानाशाही कायम हो गई होती है।

सो इस बार यह सोचकर श्रीनगर पहुंची कि वही बुरे दिन देखने को मिलेंगे, जो मैंने बीती सदी के नब्बे के दशक में देखे थे, जब आतंकवादी शराब की दुकानें और सिनमाघरों को जबर्दस्ती बंद करवाते हुए सड़कों पर घूमा करते थे, पांच सितारा होटलों के अंदर पहुंच कर लोगों को धमकाया करते थे। मुझे याद है कि एक दिन मैं ब्रॉड्वे होटल में दोपहर का भोजन कर रही थी, जब कुछ दाढ़ीवाले युवक अंदर आए और मैनेजर को धमकाया कि होटल का बार फौरन बंद नहीं किया गया, तो बुरा होगा।

उन युवकों ने न अपना कोई परिचय बताया, न यह बताया कि किस संस्था का आदेश था। केवल यही कहा कि इस्लाम के उसूलों के मुताबिक कश्मीर में शराब पर प्रतिबंध लग गया है। कुछ महीनों बाद वह प्रसिद्ध होटल ही बंद हो गया था और वह सिनमा हॉल भी, जो होटल के कश्मीरी पंडित मालिक चलाया करते थे।

 

बुरे दिनों की ऐसी यादें लेकर पिछले महीने एक लंबे अरसे के बाद श्रीनगर गई थी। लेकिन आश्चर्य हुआ, जब इस सुंदर शहर में चारों ओर शांति का माहौल दिखा। श्रीनगर शांत तो था, लेकिन उस पर एक उदास-सी वीरानी चादर की तरह बिछी हुई थी। पुलवामा के आत्मघाती जेहादी हमले के बाद श्रीनगर के होटल और हाउसबोट खाली पड़ गए हैं।

लोगों से मालूम हुआ कि पुलवामा की घटना से पहले श्रीनगर में इतने सैलानी आ रहे थे कि होटलों में कमरा मिलना मुश्किल था, लेकिन पुलवामा के बाद सब बदल गया। श्रीनगर में मैंने यह भी पाया कि आम कश्मीरी हिंसा और अराजकता के इस लंबे दौर से थक गया है। मैंने आम लोगों से भी बातें कीं और राजनीतिज्ञों से भी, सबने कहा कि अमन-शांति के लिए लोग तरस रहे हैं।

अराजकता के लंबे दौर के बाद कश्मीर घाटी में शांति लाना आसान नहीं होगा, लेकिन नए सिरे से प्रयास करने के लिए समय अच्छा है। प्रयास शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री को स्पष्ट करना पड़ेगा कि उनके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता, जो घाटी में इस्लामी खिलाफत की स्थापना करना चाहते हैं। हां, उनसे जरूर बातें हो सकती हैं, जो अब भी काल्पनिक आजादी के सपने देख रहे हैं। भारत की सीमाएं तो बदल नहीं सकतीं, पर आजादी का यह आंदोलन चूंकि दशकों से चलता आ रहा है, इसलिए इस आजादी का मतलब समझने की कोशिश किए बिना आगे बढ़ना मुश्किल होगा।

आगे बढ़ने से पहले नरेंद्र मोदी को अपने उन साथियों पर अंकुश लगाना होगा, जो हर दूसरे दिन कहते फिरते हैं कि अनुच्छेद 370 को समाप्त करना कश्मीर समस्या का समाधान है। शांति धमकियों से कभी नहीं आती, शांति बातचीत करने और लोगों का विश्वास जीतने से आती है। सबका साथ, सबका विश्वास की यह महत्वपूर्ण परीक्षा है।

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