व्यंग्य : लैला मजनू संवाद

उर्मिल कुमार थपलियाल
लैला— हाय मेरे मिज्जू।मजनू— हाय मेरी लिल्ली। आज बहुत दिनों के बाद मिल्ली। कहां थी!लैला— लोगों को बुला रही थी।मजनू— क्यूं।लैला— ताकि उनसे कह सकूं कि पत्थर से न मारो मेरे दीवान को। ईंटों से मारो।मजनू— क्यूं।लैला— ताकि जल्दी मर जाये और मेरी शादी जो जाये।मजनू— क्यूं तू शादी क्यूं कर रही है।लैला— क्यूं क्या किसी की जिंदगी तबाह करने का हक तुझे नहीं है।मजनू— तो मुझसे कर ले।लैला— तेरी भी कोई जिंदगी है।मजनू— तू अपना करेक्टर देख।लैला— खूब देखा है। मेरे पापा मुझे स्कूल भेजते समय दो लड़के आगे और पीछे लगाकर भेजते थे।मजनू— इसका क्या मतलब!लैला— तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर।मजनू— मैं तेरे लिए कुछ भी कर सकता हूं।लैला— फरहाद की तरह पहाड़ उठाकर ला सकता है।मजनू— तू भी क्या शीरी की तरह डूब कर मर सकती है!लैला— कुछ भी हो, हम आपस में शादी नहीं कर सकते।मजनू— लेकिन क्यूं।लैला— इसके बाद तो हमरा किस्सा ही समाप्त हो जाएगा।मजनू— वाकई हमारे बच्चे लैला मजनू नहीं होंगे।लैला— वो तो भाई बहन कहे जाएंगे।मजनू— मगर शीरी फरहाद और शशी पुन्नो के बच्चे लैला मजनू जैसे हो सकते हैं।लैला— नहीं, वो आधुनिक होंगे। हम जैसे पुराने नहीं।मजनू— यानी।लैला— यानी मिज्जू और लिल्ली।
(इसके बाद पत्थरबाजों के न आने पर दोनों एक दूसरे पर पत्थर मारने लगते हैं।)
The post व्यंग्य : लैला मजनू संवाद appeared first on Vishwavarta | Hindi News Paper & E-Paper.

Back to top button