वसीम बारी कई बार अकेले ही राष्‍ट्रध्‍वज लेकर निकल पड़ते थे सड़को पर, पढ़े पूरी खबर

उत्तरी कश्मीर का बांदीपोर जिहादियों का मजबूत गढ़ रहा है। वसीम बारी व उसके परिवार ने यहां उनके वर्चस्व को सीधी चुनाैती ही नहीं दी, कई जगह ध्‍वस्‍त करने में भी सफल रहे। वसीम बारी कई बार अकेले ही राष्‍ट्रध्‍वज लेकर सड़क पर निकल पड़ते थे। यही वजह है कि उनका परिवार कश्‍मीर में अमन और विकास के दुश्‍मनों के आंखों की किरकिरी बना हुआ था। उन्होंने आतंकवाद व अलगाववाद की सियासत के आगे घु़टने टेकने के बजाय स्वाभिमान की मौत को गले लगाना मुनासिब समझा।

गुलाम कश्मीर से घसपैठ करने वाले आतंकियों के लिए बांडीपोर एक ट्रांजिट कैंप भी है, जहां से वह वादी के अन्य जिलों में अपने ठिकानों पर जाते हैं। इसी वजह से कोई भी आसानी से आतंकियों का रास्ता काटना पसंद नहीं करता और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समझौते की जिंदगी जीने को प्राथमिकता देता है। आतंकी किसी भी ग्रामीण को लेशमात्र संदेह होने पर अगवा कर मौत के घाट उतार देते हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी जैसे क्षेत्रीय दल भी इस क्षेत्र में अपनी सियासी गतिविधियां संभलकर चलाते हैं। ऐसे में भाजपा के साथ जुड़ना और तिरंगा लेकर खुलेआम जम्‍मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम का समर्थन करने का साहस कम लोग ही कर पाए। इन सबके बीच वसीम बारी और उनके परिवार ने बेखौफ राष्‍ट्रवाद का ध्‍वज उठाए रखा।

वसीम बारी का पूरा परिवार भाजपा से जुड़ा हुआ था। उनके पिता भी भाजपा की जिला इकाई के उपाध्यक्ष रह चुके हैं। भाई उमर भी युवा इकाई के वरिष्ठ नेताओं में एक था। बहन भी भाजपा की महिला इकाई से जुड़ी है। वसीम के पिता बशीर मूल रूप से दक्षिण कश्मीर में अनंतनाग के रहने वाले थे। उन्होंने बांदीपोर में शादी की और यहीं पर बस गए थे। बारी का एक मामा इख्वान कमांडर रह चुका है। सज्जाद नामक एक युवक कहते हैं कि वसीम बारी के बारे मे यहां के दूरदराज के इलाके के गरीब लोगों से पूछाे, सभी उसे भला आदमी कहेंगे। उसने उज्ज्वला योजना का लाभ सही लोगों तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसने जनधन खाते भी खुलवाए। वह अक्सर लोगों की समस्याओं को लेकर नौकरशाहों से भी भिड़ जाता था। सज्जाद ने बताया कि वसीम बारी का पूरा परिवार थाने के पास करीब 22 साल पहले आकर ही बसा था, क्योंकि उसका मामा इख्वानी रहा है और परिवार हमेशा आतंकियों की हिटलिस्ट में था।

बारी के एक पड़ोसी ने कहा कि हम उसे कई बार कहते थे कि वह आतंकियों और अलगाववादियों के मुद्दे पर चुप रहा करे, लेकिन वह कभी डरा नहीं। स्वतंत्रता दिवस हाे या गणतंत्र दिवस, राष्ट्रध्वज लेकर वह चौक में पहुंच जाता था। अगर काेई साथ खड़ा न हाे तो वह अकेला ही बाजार में राष्ट्रध्वज लेकर निकल पड़ता था। उसने कई बार कस्बे में तिरंगा रैली निकाली। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम लागू होने के बाद खुलेआम उसका समर्थन किया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती और पुण्यतिथि पर वह हमेशा समारोह आयाेजित करता था। वह कहता था कि हमें रावलपिंडी और इस्लामाबाद के बजाय दिल्ली की तरफ देखना चाहिए। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बड़ा फैन था। पूरा परिवार हिटलिस्ट में था,लेकिन वह कभी पीछे नहीं हटा।

2014 में सड़कों पर अबकी बार मोदी सरकार का नारा लगाते दिखता था: वरिष्ठ पत्रकार आसिफ कुरैशी ने कहा कि कश्मीर में आम लोग भाजपा के प्रति सात-आठ साल पहले तक क्या साेचते थे, यह किसी को बताने की आवश्‍यकता नहीं है। ऐसे हालात में बांदीपोर जैसे क्षेत्र में भाजपा का झंडा बुलंद करना, खुलेआम बिना किसी सुरक्षा के राष्ट्रध्वज लेकर चलना माैत को दावत देने जैसा है। यह वसीम बारी और उनका पूरा परिवार जानता था, लेकिन वह कभी पीछे नहीं हटे। करीब छह साल पहले जब यहां चुनाव चल रहे थे तो मैं बांदीपोर गया। वहां मैंने बाजार में एक अकेले युवक को देखा, जो भाजपा का प्रचार करते हुए लाेगाें से नरेंद्र मोदी के लिए वाेट मांग रहा था। मैं हैरान रह गया था। मैंने सोचा कि शायद काेई पागल है जो इस तरह नाचते हुए जा रहा है। मैंने जब उससे बात की तो उसने कहा कि देश में मोदी सरकार और यहां बारी सरकार। मुझे वोट नहीं, अमन-तरक्की चाहिए।

युवाओं का तेजी से मिल रहा था साथ: नसीर नामक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया कि लाकडाउन में भी वसीम व उसके साथी काफी सक्रिय रहे। भाजपा के साथ कई लोग जुड़ रहे थे। स्थानीय युवाओं का एक बड़ा वर्ग जुड़ा था। यह लड़के अब गली-माेहल्लों में खुलकर पाकिस्तान और जिहादियाें की आलोचना करते थे। इसलिए वह उनकी आंख का कांटा बना हुआ था। वसीम व उसके पिता और भाई की हत्या को अंजाम देकर आतंकी लोगों को डराना चाहते हैं कि यहां राष्ट्रवाद की आवाज को चुप करा दिया जाएगा, लेकिन जिस तरह से बारी की माैत के बाद स्थानीय लोगों में गुस्सा दिख रहा है, उसे देखते हुए मैं यही कहूंगा कि यह गुस्सा फूटा तो कश्मीर में आतंकवाद की जड़ें ध्‍वस्‍त हो जाएंगी।

इख्‍वान भी यहीं से रहे: बांदीपोर शुरू से ही आतंकवाद और अलगाववाद का गढ़ रहा है। कश्मीर में आतंकवाद काे चुनौती देने वाल इख्वान भी यहीं से थे। आतंक की राह छोड़कर मुख्यधारा में शामिल हुए आतंकियों को इख्वान कहते हैं। उन्होंने सेना व पुलिस के साथ मिलकर आतंकियों को खदेड़ने में अहम भूमिका निभाई। कूका पर्रे, जावेद शाह और उस्मान मजीद के नाम उल्लेखनीय है। जावेद शाह व कूका पर्रे दोनों आतंकियाें के हमले में शहीद हो चुके हैं। सिर्फ उस्मान मजीद ही जिंदा हैं और वह बांदीपोर का जम्मू-कश्मीर विधानसभा में दो बार प्रतिनिधित्व भी कर चुके हैं और आतंकियों की हिटलिस्ट में हैं।

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