लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण ये भी माना जा रहा …पढ़े पूरी खबर

हलिया लोकसभा चुनाव मध्य प्रदेश में कांग्रेस की करारी हार के कई कारण हैं। इनमें से एक वंशवाद भी है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भले ही गांधी परिवार पर परिवारवाद-वंशवाद के आरोपों से बचने के लिए फूंक-फूंक कर कदम उठाने का प्रयास करते हों, लेकिन मध्यदेश में कांग्रेस नेता बिंदास होकर अपने वंश-परिवारजन को राजनीतिक विरासत सौंपने में आगे हैं। प्रदेश के बड़े नेताओं ने अपने परिवार सदस्यों को राजनीति में उतारने के लिए बाकायदा ‘लांचिंग’ तक की है।

वहीं कुछ नेता पुत्रों या परिजन को सहानुभूति के नाम परजनीति में प्रवेश मिला। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के भीतर वंशवाद या परिवारवाद प्रथम मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल के जमाने से ही हावी रहा। बाद में अर्जुन सिंह से लेकर दिग्विजय सिंह और अब कमलनाथ तक जितने भी मुख्यमंत्री आए सभी ने अपनी विरासत की चिंता की। संगठन से जुड़े नेताओं ने भी अपनी राजनीतिक पूंजी अपने वारिसों में बांटने की परवाह की। हालांकि कुछ नेता पुत्र या रिश्तेदारविरासत को सही ढंग से संभाल नहीं सके और राजनीति की भीड़ में गुम हो गए। पूर्व राष्ट्रपति स्व. शंकरदयाल शर्मा के परिजन आशुतोष दयाल आगे नहीं बढ़ सके। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने और मौजूदा मुख्यमंत्री कमलनाथ ने तो अपने पुत्रों की लांचिंग भी धूमधाम से की थी।

विस में बेटे को हराया, लोस में पिता को: परिवारवाद के आरोपों की वजह से झाबुआ-रतलाम की राजनीति में विरोध झेल रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया ने बेटे डॉ. विक्रांत भूरिया और भतीजी कलावती भूरिया के लिए पार्टी पर लगातार दबाव बनाकर रखा। यही वजह रही कि बेटे को क्षेत्र की जनता ने हरा दिया और खुद भी अपनी लोकसभा सीट नहीं बचा सके। पूर्व उप मुख्यमंत्री सुभाष यादव की राजनीतिक विरासत पाने वाले अरुण यादव ने अपने भाई को राजनीति में प्रवेश कराया। उन्हें कमलनाथ सरकार में मंत्री बनवाया। दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री काल में मंत्री रहे प्रताप सिंह बघेल के बेटे सुरेंद्र सिंह बघेल हनी भी आगे बढ़े और आज मंत्री पद तक पहुंच गए हैं।

राजा-महाराजा की राजनीतिक विरासत: 2003 में 10 साल के लिए चुनाव नहीं लड़ने केएलान के बाद दिग्विजय सिंह ने अपनी राजनीतिक

विरासत जयवर्धन सिंह को सौंपी और 2013 में टिकट दिलाकर वहां से जितवाया। वह अपने छोटे भाई लक्ष्मण सिंह को पहले ही लोकसभा में पहुंचा चुके थे। इसके साथ ही रिश्तेदार प्रियव्रत सिंह को भी विधायक बनाकर लाए जो अब राजनीति में स्थापित हो चुके हैं। पिता माधवराव सिंधिया की राजनीतिक विरासत संभाल रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने लोकसभा क्षेत्र में पत्नी प्रियदर्शिनी राजे को चुनाव प्रचार में उतारा है। हालांकि वह पत्नी को चुनाव मैदान में उतारने के पक्षधर नहीं थे। जबकि मुख्यमंत्री कमलनाथ व कांग्रेस के कुछ अन्य नेता लोकसभा चुनाव में उनकी पत्नी को गुना से प्रत्याशी बनाए जाने का दबाव बना रहे थे।

पुत्र मोह में हाईकमान को चुनौती : वंशवाद के मोह में फंसे कुछ कांग्रेस नेता तो हाईकमान को चुनौती देने में भी पीछे नहीं रहे हैं। इनमें बागी पूर्व सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी का नाम है। उन्होंने बेटे को विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं दिए जाने पर हाईकमान को भी चुनौती दे दी थी। पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी की बजाय अपने बेटे के चुनाव प्रचार में जुटे रहे। इसी तरह लोकसभा चुनाव में विधायक विक्रम सिंह नातीराजा ने पत्नी को खजुराहो का प्रत्याशी बनवा लिया, लेकिन कमलनाथ सरकार के गृह मंत्री बाला बच्चन की पत्नी को राजनीति में लाने की कोशिशें पूरी नहीं हो सकीं। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के निकटस्थ रहे स्व. इंद्रजीत पटेल की राजनीतिक विरासत कमलेश्वर पटेल ने तो पूर्व नेता प्रतिपक्ष रहीं स्व. जमुना देवी की राजनीतिक विरासत भतीजे उमंग सिंघार ने संभाली है। ये दोनों ही दूसरी बार विधायक बने हैं, जिन्हें अब मंत्रिमंडल में भी स्थान मिला है।

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