यूँ तो हर जनम नया है मेरे लिए, तेजाब ने मेरा चेहरा जलाया है हुनर नहीं

 
महिलाओं पर अत्याचार, महिलाओं का शोषण, महिलाओं की क़त्ले  ये सब बहुत कमतर और छोटे से अलफ़ाज़ नज़र आते हैं, एक तेज़ाब का शिकार महिला के दर्द के आगे। महिलाओं को जिस्मानी और दीमागी तकलीफें देना कुंठित पुरुषवादी सभ्यता के लिए कोई यह नया शगल नहीं हैं बल्कि जबसे किसी शक्तिशाली पुरुष ने पहली बार किसी कबीले, किसी गांव, किसी नगर, किसी शहर,  किसी राज्य और किसी देश में सत्ता का सपना देखा होगा उसी दिन शायद उसने अपनी और अपनी नस्लों की शुद्धता बरक़रार रखने के लिए महिलाओं की आज़ादी को सबसे पहले निगला होगा उसके बाद उसने फिर कहीं अपनी सत्ता का आसन और शासन बिछाया होगा।
पूरी दुनिया में लड़कियों और औरतों पर एसिड अटैक जैसी भयानकतम वारदातों के साथ एक गंभीर प्रश्न कानून व्यवस्था के साथ बाजार का भी जुड़ा हुआ है। किसी भी पीड़ित के मन में ये सवाल पैदा होना लाज़िमी है कि क्या तेज़ाब जैसी संवेदनशील वस्तु की बिक्री और उपलब्धता बाजार में अन्य सामानों की तरह होनी चाहिए? इसका जवाब और व्यवस्था से जुड़े प्रश्नों की अनदेखी और बाजार में आसानी से तेज़ाब की उपलब्धता भी ऐसी घटनाओं के रोकथाम में सबसे पहले आड़े आ रही है। आइए पहले, रूह कंपा देनी वाले ऐसे जघन्यतम कृत्य पर कवयित्री इंदु रिंकी वर्मा की कुछ पंक्तियों से गुजरते हैं।
वह लिखती हैं- ‘शरीर ही तो झुलसा है, रूह में जान अब भी बाकी है, हिम्मत से लड़ूंगी ज़िन्दगी की लड़ाई, आत्मसम्मान मेरा अब भी बाकी है, मिटाई है लाली होठों की मेरी, पर होठों की मुस्कान अब भी बाकी है, काली हूं मैं, मैं दुर्गा भी हूं, हौसलों में उड़ान अब भी बाकी है, बदसूरत बनाया मुझको तो तूने, बदसीरत है तू ये बात भी सांची है, जलेगा सवालों से पल पल तू मेरे, हर सवाल में तेज़ाब अब भी बाकी है।’ यह रचना तेज़ाब पीड़ित लड़कियों का दुख-दर्द शिद्दत से महसूस करा जाती है।

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