माया ने अपनाया ‘सीटें कम-जीतें ज्यादा’ का फॉर्मूला, नए कलेवर में दिखेगा सोशल इंजीनियरिंग

बसपा और सपा के बीच गठबंधन का एलान होने के बाद सबकी निगाहें बसपा की नई सोशल इंजीनियरिंग पर हैं। पहली बार लोकसभा चुनाव में गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरने जा रही बसपा के पास सर्वसमाज को साधने के लिए सीटें आधी से भी कम रह गई हैं और लक्ष्य पहले से भी अधिक सीटें पाने का है।माया ने अपनाया ‘सीटें कम-जीतें ज्यादा’ का फॉर्मूला, नए कलेवर में दिखेगा सोशल इंजीनियरिंग

केंद्र की सत्ता में बैलेंस ऑफ पावर बनने के लक्ष्य के साथ बसपा पिछले कई आम चुनावों से प्रदेश की सभी 80 सीटों पर लड़ती आई है। 1989 से 2014 के आम चुनाव तक बसपा ने सर्वाधिक 20 सीटें 2009 में तब जीतीं, जब वह अपने बलबूते प्रदेश की सत्ता पर काबिज थी। यह उपलब्धि 2007 के विधानसभा चुनाव से शुरू की गई सोशल इंजीनियरिंग का नतीजा मानी जाती रही है।

हालांकि इस उपलब्धि को कभी वह दोहरा नहीं पाई। 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता नहीं खुला और 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 19 सीटों पर सिमट गई, लेकिन पार्टी ने सर्वसमाज को आनुपातिक हिस्सेदारी देने की अपनी सोशल इंजीनियरिंग नहीं छोड़ी। अब जबकि समाजवादी पार्टी से गठबंधन में सीटें आधी से भी कम रह गई हैं, बसपा किस फॉर्मूले पर आगे बढ़ेगी, इस पर लोगों की नजरें लगी हुई हैं।

नए कलेवर में आएगा सोशल इंजीनियरिंग

बसपा के एक जिम्मेदार नेता ने बताया कि पार्टी सोशल इंजीनियरिंग से पीछे नहीं हटने जा रही है। गठबंधन की वजह से सीटें आधी से भी कम रह गई हैं। ऐसे में इस बार सोशल इंजीनियरिंग नए कलेवर में सामने आएगा। इस बार की सोशल इंजीनियरिंग में ‘सीटें कम-जीतें ज्यादा’ की ध्वनि होगी और पार्टी अपने सर्वकालिक प्रदर्शन से अच्छे नतीजे लाएगी।

आम चुनावों में प्रदेश में बसपा की सीटें
वर्ष–सीटें जीती
1991–01
1996–06
1998–04
1999–14
2004–19
2009–20
2014–00

2014 में बसपा की सोशल इंजीनियरिंग हो गई थी फेल

बसपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में  21 ब्राह्मण, 19 मुस्लिम, 17 अनुसूचित जाति, 8 ठाकुर और अन्य पिछड़ा वर्ग से 15 लोगों को टिकट दिए थे। इस बार सोशल इंजीनियरिंग 38 सीटों में करनी होगी।

गठबंधन इसलिए भी…
बसपा के एक वरिष्ठ नेता गठबंधन का निहितार्थ समझाते हुए कहते हैं,पार्टी के पास कुछ भी खोने को नहीं है। बेस वोट बने रहने के बावजूद पार्टी सीटें नहीं निकाल पा रही थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न मिलने के बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में उम्मीद से बहुत कम कामयाबी मिली। दर्जनों सीटें 500 से 5000 वोट में अटक रही थीं।

गठबंधन से पार्टी के बेस वोट के साथ सपा का कुछ प्रतिशत भी मतदाता साथ आ गया तो तमाम सीटों पर वोटों का नतीजे में बदलना पक्का है। हालांकि वह यह भी कहते हैं कि सीटें कम होने से पार्टी का वोट शेयर घटने का खतरा भी रहता है, लेकिन जीती गई सीटों के सामने वोट शेयर का महत्व बाद में देखा जाता है।

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