बुआ-बबुआ के गठबंधन से बिगड़ा बीजेपी का खेल

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश में सियासी जंग की तस्वीर काफी हद तक साफ हो चुकी है। इसमें एक तरफ भाजपा होगी और उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के रूप में बसपा और सपा का गठजोड़ होगा, जिनका इस चुनाव में बहुत-कुछ दांव पर लगा है। देश का यह सबसे बड़ा प्रदेश भाजपा का नया गढ़ है, जिसने पिछले आम चुनाव में उसे पूर्ण बहुमत से सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन अब लगता है कि उसकी नींव यहां हिलने लगी है।
यूपी के दोनों प्रमुख क्षेत्रीय दल बसपा और सपा के बीच भले ही कड़वाहट का लंबा दौर रहा हो, लेकिन बदली परिस्थितियों में इनके नेताओं ने साथ आते हुए अपनी एकजुटता का ऐलान कर दिया। इससे पता चलता है कि विरोधियों की इन्हें साथ आने से रोकने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं। अतीत में मुलायम सिंह यादव और मायावती के मध्य एकजुटता नामुमकिन थी, लेकिन नई पीढ़ी के अखिलेश यादव के उभार के बाद दोनों दलों के बीच तल्खी कम होने लगी और धीरे-धीरे वे इस मुकाम तक पहुंच गए कि बुआ-भतीजा अब एक जाजम पर हैं। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है, जो लोकसभा में सर्वाधिक 80 प्रतिनिधि चुनकर भेजता है। लिहाजा, यही राज्य अगले तीन-चार माह में होने वाले लोकसभा चुनाव के साथ-साथ आने वाले वर्षों के लिए भी एजेंडा तय करेगा। जहां तक भाजपा की बात है तो उसके लिए यह मुश्किल लड़ाई जरूर है, लेकिन ऐसी भी नहीं कि उसे खारिज ही कर दिया जाए या पराजित मान लिया जाए। उसके रणनीतिकार दिन-रात मेहनत कर रहे हैं।
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यदि अखिलेश-मायावती शातिर व चालाक हैं तो मोदी-शाह की जोड़ी भी चुनावी सियासत में माहिर और दूरदर्शी है। भले कुछ साल पहले यह लगने लगा था कि जातिवाद दम तोड़ रहा है, लेकिन चुनावी राजनीति ने यह सुनिश्चित किया कि यह पूरी ताकत के साथ बना रहे। धार्मिक ध्रुवीकरण का खेल भी चलता रहेगा। भाजपा ने वहां पर यादवों, जाटों और मुस्लिमों के पारंपरिक सियासी वर्चस्व को देखते हुए, जो कि इसके विरोधियों के मुख्य ताकत रहे हैं, पिछले आम चुनाव में एक चतुराईपूर्ण खेल खेला, जब इसने हाशिए पर पड़ी कुछ जातियों व समूहों का राजनीतिकरण कर दिया। इस बार भी भाजपा अपने जातीय जनाधार को और व्यापक करना चाहेगी, वहीं सपा और बसपा अपने पारंपरिक वोट बैंकों को एकजुट करने की कोशिशों में लगे हैं। भाजपा ने अपनी हिंदुत्व की राजनीति को प्रमोट करने के लिहाज से अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के भीतर मौर्यों, कुर्मियों और लोधियों को प्राथमिकता दी है और इसी वजह से वह इन जातीय समूहों को जमकर लुभा भी रही है। वर्ष 2014 में हुए आम चुनाव में सपा ने 22.35 फीसदी वोट शेयर के साथ पांच सीटें जीती थीं, जबकि बसपा 19.77 प्रतिशत वोट हासिल करने के बावजूद एक भी सीट जीतने में नाकाम रही थी। वर्ष 2017 में हुए पिछले यूपी विधानसभा चुनाव में भी सपा और बसपा क्रमश: 50 और 20 सीटों पर ही सिमट गई थीं। इसके बाद ये दोनों क्षेत्रीय दल साझेदारी की राह पर आगे बढ़े और उन्हें इसका फायदा भी मिला। इसके साथ ही इस राज्य में जातिवादी राजनीति भी अपने पूरे शबाब पर आ गई।
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गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में जीत हासिल करना सपा और बसपा दोनों के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी, जिन्होंने वर्ष 1993 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद पहली बार चुनावी समझौता किया था। यह एक तथ्य है कि मुसलमानों ने कभी भी भाजपा को बड़ी संख्या में वोट नहीं दिए, लेकिन इस बार मुस्लिम पुरुष मतदाता भाजपा से नाराज हैं और इसकी प्रमुख वजह है भाजपा द्वारा तीन तलाक को अवैध घोषित करने की पहल करना। निश्चित तौर पर मुस्लिम महिलाओं का एक वर्ग तीन तलाक की कुप्रथा से निजात दिलाने के लिए इस भगवा पार्टी के पक्ष में जा सकता है, लेकिन यह देखना अभी बाकी है कि क्या बड़े पैमाने पर मुस्लिम महिलाएं अपने शौहर या परिवार के अन्य पुरुष सदस्यों के फरमान की अवहेलना करने की हिम्मत कर पाएंगी? सपा-बसपा के इस गठजोड़ का एक और दिलचस्प पहलू है। अखिलेश-मायावती ने कांग्रेस के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रभाव रखने वाली अजीत सिंह की रालोद को भी अपनी इस साझेदारी से बाहर रखा। हालांकि इन दोनों क्षेत्रीय पार्टियों ने इतनी रियायत जरूर की कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सीटों पर अपने प्रत्याशी नहीं उतारने का फैसला किया। हालांकि कांग्रेस को सपा-बसपा के इस गठजोड़ का हिस्सा न बन पाने का नुकसान उठाना पड़ेगा। राज्य के मुस्लिम मतदाता भाजपा के खिलाफ अपना वोट कांग्रेस को देकर बर्बाद करने के बजाय सपा-बसपा गठबंधन को देना पसंद करेंगे।
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पिछले दिनों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने के बाद कांग्रेस उन्माद में थी, लेकिन यूपी का यह घटनाक्रम उसके लिए किसी झटके से कम नहीं। हालांकि वह उम्मीद कर रही है कि इन तीनों राज्यों में प्रदर्शित हुए भाजपा-विरोधी मूड का उसे यूपी में भी फायदा मिल सकता है। यह बात अलग है कि कांग्रेस यूपी में संगठनात्मक रूप से भी कमजोर है। इस बदले घटनाक्रम में कांग्रेस द्वारा यूपी में सभी 80 सीटों पर चुनाव लडऩे की घोषणा भले ही दुस्साहसिक लगती हो, लेकिन राहुल गांधी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि यदि यूपी में उनकी पार्टी का सफाया हो गया तो वह राष्ट्रीय स्तर पर विजेता के रूप में नहीं उभर सकती। वास्तव में राहुल गांधी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं में उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकता है। हालांकि चुनाव निपटने के बाद सपा-बसपा के कांग्रेस के साथ आने की संभावनाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता। इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा कि लोकसभा चुनाव में विपक्ष के लिए विधानसभा चुनावों के मुकाबले अलग तरह की चुनौतियां होंगी। विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर। इसके अलावा विपक्ष के पास नरेंद्र मोदी जैसा भी कोई चेहरा नहीं, जो सबको लुभा सके। यदि लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम राहुल की जंग के रूप में प्रोजेक्ट किया जाता है तो लगता नहीं कि मोदी का विजयरथ रुकेगा। फिर मोदी इस वक्त सत्ता में भी हैं और वे मतदाताओं के लिए अनेक तरह की सौगातें लुटाते हुए उन्हें अपने पक्ष में कर सकते हैं। गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की हालिया पहल भले ही न्याय के कठघरे में पहुंचकर लडख़ड़ा जाए, लेकिन तब तक चुनाव निपट चुके होंगे। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में चुनावी जंग काफी दिलचस्प होने वाली है।

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