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क्षमा का अर्थ है, ‘किसी के द्वारा की गई गलती को स्वेच्छा से समाप्त कर देना।’ जैन धर्म में क्षमा ‘क्षमावाणी’ पर्व रूप में मनाई जाती है। इस पर्व को जैन धर्म के अनुयायी दशलक्षण महापर्व के रूप में मनाते हैं। दस दिन, दस सिद्धांतों को मानते हुए दसवें दिन क्षमावाणी का पर्व मनाया जाता है।जैन संत विद्यासागर जी महाराज कहते हैं, ‘अपने मन में क्रोध को पैदा न होने देना और अगर हो भी जाए तो अपने विवेक से, नम्रता से उसे विफल कर देना चाहिए। स्वयं से जाने-अनजाने में हुई गलतियों के लिए खुद को क्षमा करना और दूसरे के प्रति भी इसी भाव को रखना इस पर्व का महत्व है।

अन्य धर्मों में क्षमा-

जैन धर्म ही नहीं, बल्कि संसार का हर धर्म क्षमा के महत्व को मानता है। क्षमा मांगने से अहंकार खत्म हो जाता है। महाभारत में क्षमा के बारे में उल्लेख मिलता है, ‘दुष्टों का बल हिंसा है, राजाओं का बल दंड है और गुणवानों का क्षमा है।’ ठीक इसी तरह श्रीमद्भागवद् में उल्लेखित है, ‘वही साधुता है कि स्वयं समर्थ होने पर क्षमाभाव रखे।’

इस्लाम धर्म के पवित्र ग्रंथ कुरान में उल्लेखित है, जो क्षमा करता है और बीती बातों को भूल जाता है, उसे ईश्वर की ओर से पुरस्कार मिलता है। वहीं, खलील जिब्रान ने कहा है, ‘जो मनुष्य नारी को क्षमा नहीं कर सकता, उसे उसके महान गुणों का उपयोग करने का अवसर कभी प्राप्त न होगा।’

क्षमा का मनोविज्ञान-

मनोविज्ञानी भी क्षमा के महत्व को मानते हैं। कई मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार, ‘क्षमा का मनुष्य के व्यक्तित्व में बहुत महत्व होता है। यदि कोई आदमी माफी मांगने पर भी किसी को माफ न करे तो उसके व्यक्तित्व में भी ‘अहम’ संबंधी विकार होता है। यानी माफी मांगना और माफ करना दोनों ही मनुष्य के व्यक्तित्व को पूर्ण करने वाले तत्व हैं।

 

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