तो क्या ठांय..ठांय के शोर में भी सोते रहेंगे माई लॉर्ड !

नवेद शिकोह
यदि हुकुमत और पुलिस को ही सज़ा-ए- मौत का अधिकार मिल जाये और सत्ता अपने विरोधियों और भ्रष्ट पुलिस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वालों को रास्ते से हटाने की कहानी गढ़ने लगे तो, सोचो ज़रा ऐसा हो तो क्या हो।
विकास दुबे की पूरी कहानी और उससे जुड़े दो पहलू इस बात की दलील है कि लोकतांत्रिक और न्याय व्यवस्था कमजोर होता जा रहा है। एनकाउंटर में परलोक सिधार चुके ऐसे दुर्दान्त अपराधी जीवित रहेंगे तो धरती नरक बन जायेगी। ये बात ठीक है, लेकिन यदि हम लेट-लतीफ प्रोसीडिंग की खामियों की वजह से कानून पर भरोसा नहीं कर सकते तो पुलिस पर पूरा भरोसा भी कैसे करें ?
जो चश्मदीद पुलिस अपराधी को सजा दिखाने के लिए अदालत में गवाही तक नहीं देती उसे किसी की भी जिन्दगी लेने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है !
विकास दुबे ने इससे पहले भी पुलिस से खचाखच थाने में एक राज्य मंत्री की हत्या की। चश्मदीद पुलिस ने गवाही नहीं दी और वो कानूनी शिकंजे से बचने के कई वर्षों बाद पुलिस नरसंहार करने के लिए प्रेरित हुआ। ये सच उन लोगों को समझना होगा जो कह रहे हैं कि पुलिस द्वारा मुठभेड़ में अपराधियों को मार देना सही है।

सब कुछ जानकर भी इस बात को कैसे सही मान लेंगे कि जो पुलिस अपने थाने में राज्यमंत्री की हत्या की गवाही देने का नैतिक कर्तव्य भी निभाने लायक़ नहीं है उसे मौत और जिन्दगी का अधिकार मिल जाना कितना खतरनाक होगा। आज वो वास्तविक अपराधी को मारेगी तो कल निर्दोषों को भी कहानी गढ़ कर मार सकते हैं।
मुठभेड़ में मारने का अप्रत्यक्ष निर्देश देने वाली किसी भी सत्ता पर आप कैसे भरोसा करेंगे। तमाम दौरों में मुखतलिफ हुकुमतों के रंग आपने देखें है। इसके व्यवहार को समझये – हुकुमत अपनी पुलिस से आरोपी को मुठभेड़ में मरवा सकती है लेकिन राज्यमंत्री हत्याकांड के वक्त की हुकुमत ने अपनी पुलिस से ये सवाल तक नहीं किया कि तुम्हारे सामने तुम्हारे थाने मे ही एक राज्यमंत्री को अपराधी विकास दुबे ने मार दिया पर तुम अदालत में इस बात की गवाही तक देने को तैयार क्यों नहीं हो। जबकि तुम्हारी सरकारी सेवाओं का आधार ही अपराधी को सज़ा दिलाना है।
पुलिस का मुख्य काम ही अदालत के समक्ष जाकर अपराधी को सजा दिलाना है। वही पुलिस जिसने विकास दुबे को हत्या की सजा से बचाया उस पुलिस को क्या हक़ है कि वो इस अपराधी को सज़ा दे।
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हमारी सुरक्षा और कानून व्यवस्था को विकास दुबे की दास्तान ने अलग-अलग तरीके से महसूस किया है। इसी प्रकरण पर एक नजरिये में अच्छे ख़ासे लोगों के विचार हैं कि विकास मरता नहीं तो क्या होता। उसके खिलाफ कोई गवाही नहीं देता। वो धनबल और मंहगे वकूलों की मदद हे जमानत पर छूट जाता।
एक जातिविशेष का बड़ा नेता बन जाता, मंत्री, सांसद या विधायक होता। फिर वो सत्ता के दुरुपयोग से अपने जैसे गुंडे-बदमाशों, माफिया सरगनाओं, गैंगस्टर्स को पालता-पोसता, तैयार करता, ऐसे लोगों को शरण देता। उसकी सत्ता के दुरूपयोग के आगे कानून आंखों पर पट्टी बांधें मूक बधिर की भांति खामोश खड़ा रहता।
चर्चित एनकाउंटर से जुड़े दूसरे पहलू की चर्चा में दूसरे पक्ष के विचार है कि इस दुर्दांत गैंगस्टर ने मध्यप्रदेश के उज्जैन स्थित महाकामेशवर मंदिर में पूरे सुबूतों के साथ सरेंडर किया। वो कानून की शरण में आकर सजा पाना चाहता था।
कानून उसको सख्त से सख्त सज़ा देता, या सज़ा-ए-मौत देता तो सभी इसका स्वागत और सम्मान करते। लेकिन कानूनी प्रक्रिया को नजरअंदाज करके पुलिस को मौत और जिन्दगी का हक़ देना लोकतांत्रिक व्यवस्था का अपमान है।
ऐसे परंपरायें परवान चढ़ती रहीं तो दुनिया हमारी लोकतांत्रिक और न्यायिक कार्यशैली पर सवाल उठायेगी। सत्ता और पुलिस न्याय व्यवस्था को हाशिये पर ले आयेगी। मुठभेड़ की मनगढ़ंत कहानियों से सत्ताधारी और पुलिसतंत्र अपने-अपने विरोधियों और आलोचकों को भी ढेर करते रहेंगे। हर सवाल का एक ही जवाब होगा- एनकाउंटर।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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