गर्भवती महिलाओं को जरूर पढ़नी चाहिए ये खास खबर

प्रेग्नेंसी के दौरान हर गलती के लिए अगर खुद को जिम्मेदार ठहराती हैं तो ये खबर शायद आपके लिए ही है। अगर आप प्रेग्नेंसी के चेकअप के लिए जाएं और डॉक्टर आपसे होने वाले बच्चे,आपके वजन और उल्टियां कितनी हो रही हैं इसके अलावा ये सवाल पूछे – “क्या आप चीजों का मजाकिया हिस्सा देख पाती हैं? कुछ गलत होने पर खुद को बेवजह जिम्मेदार ठहराती हैं?” तो थोड़ी देर के लिए आप जरूर हैरान हो जाएंगी। गर्भवती महिलाओं को जरूर पढ़नी चाहिए ये खास खबरखास तौर पर तब, जब आप पहली बार मां बनने जा रही हों। एक तो पहली बार मां बनने पर होने वाले सारे एहसास नए होते हैं उस पर इस तरह के सवाल आपके मन में कई आशंकाएं भी पैदा करते हैं।आस्ट्रेलिया में रहने वाली कादम्बरी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। कादम्बरी दूसरी बार मां बनने जा रही थीं। इस बार वो आस्ट्रेलिया में रह रहीं थी। उनकी पहली बेटी भारत में पैदा हुई थी। कादम्बरी जब आस्ट्रेलिया में डॉक्टर से मिलने गईं, तो उनसे डॉक्टर ने ऐसे ही पांच-सात सवाल एक साथ पूछे- “क्या आप अक्सर दुखी रहती हैं और रोने की इच्छा होती है?” “क्या आपको खुद को नुकसान पहुंचाने का ख्याल आता है?”

सवाल सुन कर कादम्बरी को जरा भी एहसास नहीं हुआ कि जो सवाल उनसे पूछे गए हैं वो किसी बीमारी से जुड़े हैं।  पहली बार तो उन्होंने बिना जाने और बिना कोई सवाल पूछे सभी जवाब दे दिए। लेकिन, दूसरी बार जब उसी से मिलते-जुलते सवाल पूछे गए तो वो खुद को रोक नहीं पाई। उन्होंने पूछ ही लिया, “आख़िर इन सवालों का मेरी प्रग्नेंसी से क्या लेना देना है।” कादम्बरी का ये सवाल कुछ हद तक सही भी था। जब वह पहली बार मां बनी थीं तो वो भारत में थीं। उस वक्त डॉक्टर ने कभी उनसे ऐसा कोई सवाल नहीं पूछा था। 

पोस्टपार्टम डिप्रेशन

कादम्बरी को जवाब मिला, “ये सभी सवाल इसलिए हैं ताकि हम पता लगा पाएं कि कहीं आप पोस्टपार्टम डिप्रेशन से तो नहीं जूझ रही हैं।” तब पहली बार कादम्बरी को पोस्टपार्टम डिप्रेशन के बारे में पता चला। डॉक्टर ने उन्हें बताया कि प्रसव के बाद महिलाओं के व्यवहार में उदासी, तनाव, चिड़चिड़ाहट और गुस्से जैसे बदलाव आते हैं। ऐसे में उन्हें पारिवारिक सहयोग और इलाज की जरूरत होती है।

कादम्बरी बताती हैं, “यह मेरे लिए पहला और बहुत सुखद अनुभव था। अभी तक सिर्फ शारीरिक परेशानियों पर बात होती थी, लेकिन अब कोई मेरी मानसिक स्थिति पर भी बात कर रहा था जिसे आमतौर पर समझा पाना बहुत मुश्किल होता है।”

“जब डॉक्टर ने मुझे पोस्टपार्टम डिप्रेशन के बारे में बताया तो मुझे अहसास हुआ कि पहले प्रसव के बाद भी मैंने अपने व्यवहार में ऐसे ही बदलाव महसूस किए थे। तब मैंने जिस अस्पताल में इलाज कराया था वहां के डॉक्टर ने मुझे ऐसे किसी भी बदलाव के बारे में नहीं समझाया। मुझे परिवार से बहुत सहयोग मिला इसलिए ये परेशानियां अपने आप खत्म हो गईं।”

क्या होता है पोस्टपार्टम डिप्रेशन?

कादम्बरी कहती हैं, ”जब पहला बच्चा हुआ तो मुझे नहीं पता था कि बच्चे की देखभाल कैसे करनी होती है। मुझे अपने शरीर को लेकर भी थोड़ी चिंता थी। इसके कारण मैं थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई थी। मैं अपने आप को संभाल नहीं पाती थी और बहुत गुस्सा आता था। यहां तक कि ऑफिस में रहो तो घर की चिंता और घर पर रहो तो ऑफिस का तनाव रहता था।” मनोचिकित्सक डॉ. प्रवीण त्रिपाठी कहते हैं ये समस्या करीब 20 से 70 प्रतिशत महिलाओं में होती है। शुरुआती स्तर पर इसे पोस्टपार्टम ब्लूज कहते हैं।

इसके लक्षण बहुत सामान्य होते हैं। जैसे मूड स्विंग, उदासी, चिड़चिड़ापन, रोने की इच्छा होना और बच्चे को संभाल पाऊंगी या नहीं इसकी चिंता होना। व्यवहार में आया ये बदलाव कुछ समय बाद अपने आप ठीक हो जाता है। इसके लिए दवाइयों की जरूरत नहीं होती। लेकिन, अगर लक्षण बढ़ जाएं तो इलाज जरूरी हो जाता है। बीमारी बढ़ने पर नींद नहीं आती, भूख नहीं लगती, मरीज अपने आप में गुम रहता है और उसे आत्महत्या के ख्याल आते हैं। ये बीमारी का अगला स्तर है और इसे पोस्टपार्टम डिप्रेशन कहते हैं।

इसमें कई बार महिला अपना बच्चा संभालना भी छोड़ देती है। वो बच्चे के लिए खतरनाक भी साबित हो जाती है। हालांकि, ऐसा बहुत कम मामलों में होता है। दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में स्त्रीरोग विशेषज्ञ भानुप्रिया बताती हैं कि प्रसव के बाद होने वाली मानसिक परेशानियां किसी भी तरह की हो सकती हैं। जैसे कि इसका एक और हिस्सा है पोस्टपार्टम एंग्ज़ाइटी।  इसमें महिला अपने बच्चे के लिए बहुत डर जाती है। उसे हर चीज में खतरा महसूस होने लगता है। कई बार वह बच्चे को किसी को हाथ भी नहीं लगाने देती।

पोस्टपार्टम डिप्रेशन के कारण

डॉ. प्रवीण त्रिपाठी कहते हैं कि मां के व्यवहार में बदलाव के कई कारण हो सकते हैं। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

  • एक तो यह कि प्रसव के बाद महिलाओं के हार्मोन्स में बदलाव होते हैं। इसमें एस्ट्रोजन, प्रोजेस्ट्रोन, टेस्टोस्टेरोन जैसे हार्मोन्स में बदलाव होता है जिसका असर उसके व्यवहार पर पड़ता है।
  • इसके अलावा सामाजिक कारण भी हो सकते हैं।  जैसे कि बेटे की चाह हो और बेटी हो जाए तो महिला को काफी तनाव और दबाव का सामना करना पड़ता है।
  • साथ ही महिलाओं पर बहुत से दूसरे दबाव होते हैं। बच्चे और घर की अधिक ज़िम्मेदारी उन पर होती है और वो शारीरिक रूप से कमज़ोर भी होती हैं।
  • इन सबके बीच अगर ऑफिस हो तो उनके अंदर काम में अच्छा प्रदर्शन न कर पाने का डर भी बना रहता है। ऑफिस आने में देरी या बच्चे के कारण बार-बार छुट्टियां लेने से उन्हें महसूस होने लगता है कि वो पिछड़ रही हैं। करियर की वजह से भी बैचेनी हो सकती है।
  • यह भी मायने रखता है कि कोई महिला किस तरह सोचती है। वह अपने शरीर के बेडॉल हो जाने से परेशान हो सकती है।

पोस्टपार्टम डिप्रेशन का इलाज 

पोस्टपार्टम डिप्रेशन का इलाज 

अगर लक्षण शुरुआती हैं तो इसके लिए दवाइयों की जरूरत नहीं होती। लेकिन बीमारी बढ़ जाने पर मनोचिकित्सक को दिखाना जरूरी है। डॉ. प्रवीण बताते हैं कि प्रसव के बाद महिलाओं को परिवार के सहयोग की बहुत जरूरत होती है। वह कई शारीरिक और मानसिक बदलावों से गुजर रही होती हैं। ऐसे में उन पर अच्छी मां बनने का दबाव न डालें और बच्चे की देखभाल करने में मदद करें। उन्हें भावनात्मक सहयोग दें और धैर्य रखें।

इसके अलावा मेडिकेशन थेरेपी दी जाती है और दवाइयों के साथ-साथ काउंसेलिंग से इलाज किया जाता है। इसमें एक और बात मायने रखती है और वो है अस्पताल की तरफ से सही जानकारी दिया जाना, जैसा कि कादम्बरी के मामले में हुआ। ना सिर्फ गर्भधारण के दौरान उनकी मनोदशा पर बात की गई बल्कि प्रसव के बाद घर पर चेकअप के लिए आने वाली नर्स घरवालों के व्यवहार के बारे में पूछती थी।

यहां तक कि कादम्बरी के पति से भी पूछा गया कि क्या वो भी किसी तनाव या परेशानी से गुजर रहे हैं। ऐसे में अगर अस्पताल की तरफ से समय पर और सही जानकारी मिले तो मरीज की काफी मदद हो सकती है।

तंत्र-मंत्र का सहारा

पोस्टपार्टम डिप्रेशन को लेकर भारत में जागरूकता की बहुत कमी है। डॉ. भानुप्रिया कहती हैं, “लोग महिला के व्यवहार में अचानक आए इस बदलाव को अक्सर दूसरे कारणों से जोड़ देते हैं। कोई इसे शारीरिक कमजोरी मान लेता है तो कोई भूत-प्रेत का साया। ऐसे में वो लोग जानबूझकर डॉक्टर के पास नहीं आते बल्कि तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं।”

इस बीमारी का सबसे अच्छा इलाज है कि लोगों को इसके प्रति जागरूक किया जाए। महिलाओं और उसके परिवार को गर्भधारण के समय ही इसकी जानकारी दी जाए।

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