उत्तराखंड के चंपावत में मैक्स के खाई में गिरने से दस लोगों की हुई मौत

देहरादून: कुल भौगोलिक क्षेत्र के 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में वनों को बचाने के लिहाज से एक बड़ी चुनौती सिर पर खड़ी है। वह भी दो-चार दिन नहीं, बल्कि पूरे चार माह की और इस दौरान बड़े पैमाने पर खाक होती है अनमोल वन संपदा। 15 फरवरी से 15 जून तक चलने वाले फायर सीजन के पिछले 11 सालों के आंकड़े बताते हैं कि इस अवधि में राज्य में हर साल औसतन 2200 हेक्टेयर जंगल आग से तबाह हो रहे हैं।उत्तराखंड के चंपावत में मैक्स के खाई में गिरने से दस लोगों की हुई मौत

जाहिर है, इससे वनों, वन्यजीवों के साथ ही मानव हानि तो उठानी ही पड़ रही, पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी कम नहीं है। ग्लेश्यिरों के पिघलने के पीछे एक बड़ा कारण यह भी बताया जा रहा है। उस पर तुर्रा ये कि यहां आग बुझाने को झांपा (हरी टहनियों को तोड़कर बनाया जाने वाला झाड़ू) ही मुख्य हथियार है, जबकि दुनियाभर में वनों की आग बुझाने को अत्याधुनिक उपकरणों का प्रयोग किया जा रहा है। वन विभाग को वनाग्नि पर नियंत्रण के लिए मिलने वाला बजट ऊंट के मुंह में जीरे के समान है।

अब तो सर्दियों में भी सुलग रहे जंगल

इस मर्तबा जैसे हालात हैं, उससे चिंता बढ़ने लगी है। सर्दियों में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बुग्याल यानी घास के हरे मैदानों तक भी आग पहुंची है। क्षति के आंकड़े बताते हैं कि हर तीसरे साल में आग विकराल रूप लेती है और 2016 के बाद यह तीसरा साल है। हालांकि, इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, लेकिन माना जाता है कि इस अवधि में पत्तियों के ढेर अधिक जमा हो जाते हैं। गर्मी बढ़ने पर ये आग के फैलाव का कारण बनते हैं। 

हो रहा गंभीर नुकसान 

हर साल ही बड़े पैमाने पर आग जंगलों को लील रही है जिससे जैव विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है। वन संपदा खाक होने के साथ ही बड़ी संख्या में तमाम छोटे जीव भी होम हो जाते हैं। यही नहीं, आग लगने से न सिर्फ राज्य बल्कि दूसरे क्षेत्रों के पर्यावरण पर भी असर पड़ता है। विशेषज्ञों के मुताबिक आग के धुएं की धुंध जहां दिक्कतें खड़ी करती है, वहीं तापमान बढ़ने से ग्लेश्यिरों के पिघलने की रफ्तार भी बढ़ती है। 

ऐसे लगती-बुझती है आग

आग लगने के कारणों पर गौर करें तो ये प्राकृतिक कम और मानवजनित अधिक हैं। जंगलों से गुजर रही सड़कों के किनारे जलती बीड़ी-सिगरेट फेंकने के साथ ही वन सीमा से सटे गांवों में खेतों में कचरा जलाने पर भी यह आग के फैलाव की वजह बनती है। 

दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, मगर

यहां आग बुझाने को झांपा ही मुख्य हथियार है। सरफेस फायर से निबटने को संसाधनों का भारी टोटा है। यही नहीं, जनसहभागिता की कमी भी एक बड़ा सवाल है। संसाधन भी बढ़ाने होंगे, मगर इसके लिए बजट की कमी है। इस साल ही 37 करोड़ की मांग के सापेक्ष इस मद में करीब नौ करोड़ राज्य के वन विभाग को मिले हैं। 

हालांकि, विभाग के मुखिया जयराज का कहना है कि आग से निबटने को तैयारियां पूरी हैं। बता दें कि साल 2016 में आग इतनी भयंकर थी कि काबू पाने को सेना, वायुसेना तक की मदद लेनी पड़ी थी। 

गंभीरता से उठाने होंगे कदम 

पर्यावरणविद् सुरेश भाई के मुताबिक उत्तराखंड में वनों में आग से जैव विविधता पर सर्वाधिक असर पड रहा है और तमाम जडी-बूटियां विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं। वन्यजीव स्थान बदल रहे हैं। इससे कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है, जिसका दुष्परिणाम है कि ग्लेश्यिर पिघल रहे हैं और सूख रहे हैं। लिहाजा, इससे निबटने के लिए पूरी गंभीरता के साथ कदम उठाने होंगे, जिसमें आमजन की भागीदारी भी सुनिश्चित हो।

नमी की कमी है मुख्य कारण 

पाणी राखो आंदोलन से जुड़े पर्यावरणविद् सच्चिदानंद भारती के मुताबिक यहां के जंगलों में नमी का अभाव आग लगने का मुख्य कारण है। इस पर ध्यान देने की जरूरत है और इसके लिए वर्षा जल संरक्षण के पारंपरिक तौर-तरीके कारगर साबित होंगे। आग से पूरा पारिस्थितिकीय तंत्र प्रभावित हो रहा है। तमाम वनस्पतियां और छोटे जीव खत्म हो रहे हैं।

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