दलित बुद्धिजीवियों की लड़ाई पहले सिर्फ ‘लेफ्ट’ से है, ’राईट’ से तो वो बाद में निबट लेंगे..

विगत कुछ दिनों से लगातार कुछ दलित बुद्धिजीवी चिंतकों कार्यकर्ताओं के पोस्ट देख रहा हूँ, जिसमे वो ‘लेफ्ट’ को किसी भी “दलित आन्दोलन” से दूर रहने की सलाह दे रहे हैं और कह रहे हैं कि वो अपने दम पर ही इन आंदोलनों को अंजाम तक पहुंचाएंगे।

दलित बुद्धिजीवियों की लड़ाई पहले सिर्फ ‘लेफ्ट’ से है …’राईट’ से तो वो बाद में निबट लेंगे..….अच्छी बात है… यहाँ किसी के दम-ख़म पर सवाल नहीं है… किन्तु ऐसे चिंतकों की वैचारिक दरिद्रता का स्तर ये है कि वो कन्हैया कुमार को “भूमिहार” और कविता कृष्णन को “सवर्ण” नेता घोषित कर देते हैं।

अरे भाई, टिप्पणी लिखते हुए ये तो तय कर लेते कि कन्हैया कुमार की कौन-सी गतिविधि उन्हें भूमिहारों का नेता बना रही है आपकी नजरों में?

कविता कृष्णन और कन्हैया ब्राह्मणवाद के समर्थक और प्रवक्ता हैं या अपने जीवनऔर कर्म में इसके विरोधी हैं?

उना यात्रा में दलित-मुस्लिम कार्यकर्ताओं-नेताओं के अलावे कई वामपंथी चेहरे शामिल रहे, जिसमें एसएफआई और किसान सभा के राष्ट्रीय नेता विक्रम और विजू कृष्णन भी शामिल रहे…

क्या इस आन्दोलन में इन सबके शामिल होने पर सवाल उठाये जायेंगे…

क्या वामपंथियों को मिथकीय आख्यानों में शामिल चरित्र सीता की तरह अग्निपरीक्षा देनी पड़ेगी?

क्या उस यात्रा में शामिल रहकर ग्राउंड रिपोर्टिंग करने वाले वाम पृष्ठभूमि वाले पत्रकारों को आन्दोलन के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराने के लिए भी दलित न होने के कारण सफाई देनी पड़ेगी?

क्या ऐसे तमाम लोगों को दलित पृष्ठभूमि से न होने के बावजूद दलित मुद्दों पर सक्रिय रहने पर संदेह के नजरिये से देखा जायेगा और उन्हें अपने सही होने की बार-बार सफाई देनी होगी?

क्या अपने वास्तविक दुश्मनों और थोड़े बहुत निजी लाभों के लिए उनके धुन पर नाचते, प्रभु वर्गों के साथ एकता की चाहत रखने वाले हमारे बीच के ही अवसरवादी, चारण नेताओं की शिनाख्त और उन सबके खिलाफ एक व्यापक मोर्चा बनाने की खवाहिश वाकई इतनी मुश्किल है?

क्या हम आंदोलनों की शुरुआत इस कदर बिखराव से करेंगे और फिर भी इस ब्राह्मणवादी, वर्णवादी व्यवस्था के पोषक सत्ता के शीर्ष पर काबिज लोगों से जीतने का सपना देखेंगे?

क्या इस तरह से हम एक और किस्म के नए ब्राह्मणवाद को खाद-पानी नहीं दे रहे होंगे?

सवाल कई हैं… जवाब भी हैं लेकिन हम सोचना नहीं चाहते..

बथानी टोला से लेकर लक्ष्मणपुर बाथे तक की दलित हत्याओं के दौर में और उसके बाद भी वाम के अलावे कौन से संगठन वहां लड़ते रहे हैं, दलित-वंचित जनता के पक्ष में ये किसी से छुपा नहीं है…

उत्तर प्रदेश के चकिया-चंदौली से लेकर दुद्धी-सोनभद्र और ऐसे ही तमाम जगहों की दलित-आदिवासी जनता के बीच कौन लड़ता रहा है?

तो आपके सवालों के तर्ज पर ये सवाल भी उठाना चाहिए कि क्यों नहीं गुजरात से, क्यों नहीं महाराष्ट्र से और क्यों नहीं देश भर से तमाम दलित हित-चिन्तक संगठन वहां कूच कर गए। क्यों नहीं उन्होंने आवाज उठाई।

ये देखना दरअसल बहुत ही दुखद है कि खुद को दलितों के हित के प्रवक्ता घोषित करनेवाले तथाकथित कई दलित चिन्तक-कार्यकर्त्ता अपने विचारों में बुरी तरह अलगाव् में पड़े हुए हैं…

एक तरफ तमाम वाम खेमे और संगठन आपस में ही एकता के बिंदु न तलाश कर एक-दूसरे के खिलाफ लगातार तलवार भांजने में अपनी उर्जा नष्ट करते रहे और इस प्रकार पूंजीवाद के खिलाफ तैयार अपनी सारी जमीन खो दी, उसी प्रकार दलित आन्दोलन के भीतर भी ब्राह्मणवाद के खिलाफ व्यापक एकता और मोर्चे को जमीन पर उतारने की जगह किसी भी आन्दोलन को बिखेरने की कोशिश की जा रही है…

निश्चय ही ये सब शासक वर्गों के लिए तो राहत की बात होगी ….

आप लोग तय करते रहें कि जिग्नेश के मंच पर कन्हैया, कविता और जेएनयू वालों को नहीं जाने देंगे और फिर दूसरे लोग तय करें कि जिग्नेश की जगह सिर्फ अपने दलित खेमे में ही है…तो फिर ये आन्दोलन भी चल चुका…

ऐसे महान व मौलिक चिंतकों की एक भी पोस्ट तमाम दलित-पिछड़े नेताओं के खिलाफ नहीं दीखती, जिन्होंने एक पड़ाव के बाद दलित-पिछड़ी अस्मिताओं का सिर्फ और सिर्फ नुकसान ही किया है और नव-ब्राह्मणवादी व्यवस्था को ही आगे बढाया है….

कितने लोग हैं जो उदित राज, चंद्रभान प्रसाद, रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी, रामदास अठावले, नरेन्द्र जाधव जैसे दलित बुद्धिजीवी नेताओं एवं यहाँ तक कि मायावती, मुलायम, लालू-नीतीश के भयानक अवसरवाद के खिलाफ पोस्ट लिखते हैं….

जी नहीं, उनकी लड़ाई पहले सिर्फ’लेफ्ट’से है …

‘राईट’ और ‘मध्यमार्गियों’ से तो वो बाद में निबट लेंगे…

तो अगर आप ऐसा सोचते हैं तो ये समझ लीजिये कि वक़्त इतना मासूम कभी नहीं होता कि आपकी हरेक गलती पर आपको माफ़ करता चले।

अगर आज आन्दोलन बिखरता है तो इसका कई गुना आपसे और हमसे ही वसूल करेगा … हमारी आने वाली पीढ़ियों से भी…

वैसे भी कोई भी जनांदोलन किसी की बपौती नहीं कि वो अपने मन-मुताबिक हर किसी को बाहर रखने का निर्णय कर ले…

ऐसे तमाम लोगों से गुजारिश यही है कि आन्दोलन को व्यापक बनाने के लिए अपनी भूमिका के बारे में सोचें न कि आन्दोलन के दायरे को सीमित करने के बारे में…

पुनश्च,महेंद्र मिश्र ने अपने विस्तृत आलेख “दलित आन्दोलन का दर्द” में विभिन्न पहलुओं पर बेहतरीन तरीके से बात रखी है …लेकिन, उनका क्या कर सकते हैं जिनके लिए ये लेख सिर्फ किन्ही “मिसिर” जी की लेखनी से निकलने के कारण “अछूत” हो जाये…

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