आम जनता में कम होते समर्थन ने नक्सलियों को उग्र बना दिया है

मुरामी जैसे एक भोले-भाले नागरिक पर हमले का एकमात्र नतीजा यही बताता है कि अब नक्सल अपने आदिवासी ग्रामीण इलाके को खोते जा रहे हैं.

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के पालनार गांव के ग्राम पंचायत सदस्य, 34 वर्षीय नंदलाल मुरामी अभी रायपुर के एक अस्पताल में भर्ती हैं. 28 अक्टूबर को माओवादियों के जन मिलिशिया कैडर ने उन पर क्रूरता से हमला किया था. नक्सलियों के पास स्थानीय हथियार थे. इससे वे गंभीर रूप से घायल हो गए. मुरामी अभी भी आईसीयू में हैं. उन्होंने इस हमले में अपनी दो अंगुलियां खो दी है और उनका वोकल कोड (आवाज नली) बुरी तरह घायल है. उनके दोस्तों के अनुसार, वे सांकेतिक भाषा का इस्तेमाल कर बातचीत कर पा रहे हैं.
नक्सलवाद नहीं विकासवाद का समर्थन
यह घटना तब हुई जब मुरामी अपने घर पर रात का खाना खा रहे थे. अचानक हथियारों से लैस कुछ अज्ञात पुरुष उनके घर में घुस गए और उन पर हमला बोल दिया. जब उनके परिवार के सदस्यों ने हल्ला मचाया तब हमलावर खून में सने मुरामी को छोड कर निकल गए. हमलावरों का इरादा तो मुरामी को मारने का था, लेकिन मुरामी इस हमले में बच गए. जाने से पहले, हमलावरों ने चेतावनी भरे पर्चे वहां छोड़े थे. उस पर लिखा था, ‘सड़क निर्माण जैसे जन विरोधी काम का जो भी समर्थन करेगा उस व्यक्ति को मौत का सामना करना पड़ेगा.’ माओवादी ग्रस्त इलाके बस्तर की अस्थिर स्थिति का वर्णन करने के लिए यह घटना पर्याप्त है.
कुछ महीने पहले की ही बात है. 2 जून को मैं मुरामी, जो एक बीजेपी कार्यकर्ता हैं, से मुलाकात की थी. मैं बस्तर के मुख्यालय जगदलपुर से 128 किलोमीटर दूर पालनार गांव गया था, जब मैं छत्तीसगढ़ में नक्सल विद्रोह की स्थिति को कवर कर रहा था.
अस्पताल के स्ट्रेचर पर मुरामी के शरीर से बहते हुए खून को देख कर मुझे एक झटका लगा, जिसे दूर होने में शायद काफी समय लगेगा. माओवादियों द्वारा मंगलवार को दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युतानंद साहू और दो पुलिसकर्मी रुद्र प्रताप सिंह और मांगलू की हत्या के साथ वह डरावना दृश्य फिर से सामने आ गया है. जो लोग इस नक्सल घेराबंदी में बंधुआ बन कर जीने को मजबूर हैं उनकी व्यक्तिगत त्रासदियों को दिल्ली बैठे लोगों के शायद समझ भी न आए.

मैं छत्तीसगढ़ के नक्सल पीड़ित जिले बस्तर में लगभग एक महीने के लंबे दौरे पर था. इस दौरान वहां मैंने कई लोगों से मुलाकात की थी. मैं मुरामी के गांव भी गया था. उनके गांव में भी मैंने कई लोगों से बात की थी, लेकिन मैंने मुरामी को साक्षात्कार के इसलिए चुना क्योंकि वह गांव के सबसे तेज और समझदार युवा लड़कों में से एक थे. ग्राम पंचायत के एक सदस्य के तौर पर मुरामी ने काफी स्पष्टता से बात की.
साथी ग्रामीणों की किस्मत बदलने में सहायता करने के प्रति संकल्पित एक व्यक्ति के रूप में वे नजर आ रहे थे. मुरामी खुद स्नातक हैं और उनके दोनों बच्चे भी स्कूल जाते है. वह अपने समुदाय की अगली पीढ़ी के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक विकास के अवसर लाने और उन्हें वैसे अवसर देने के लिए दृढ़ संकल्पित थे, जो गांव वालों को या खुद मुरामी को अब तक नहीं मिला था.
एक दशक पहले जनजातीय गांव पालनार माओवादियों के प्रभाव में था. इन अल्ट्रा-वामपंथी कैडर की मंजूरी के बिना गांव में प्रवेश करने को लेकर कोई बाहरी व्यक्ति सोच भी नहीं सकता था. आज यह गांव डिजिटल केंद्र में परिवर्तित हो गया है.
मुरामी और उसके दोस्तों और ग्रामीणों के समूह के साथ मेरी लंबी बातचीत के दौरान, यह स्पष्ट हो गया कि उनके लिए नक्सलियों के गुस्से और भय के मुकाबले मुख्यधारा में शामिल होना कितना मुश्किल था, जो किसी भी प्रकार के विकास का विरोध करते थे.
2 जून को अपने साक्षात्कार में मुरामी ने मुझसे कहा था, ‘यहां शिक्षा की कोई सुविधा नहीं थी. इसलिए मुझे जगरगुंडा जाना पड़ता था, जो अब सुकमा जिले में है. आज, हमारे पास हॉस्टल की सुविधा वाले स्कूलों का समूह है. यह आस-पास के गांवों के छात्रों को शिक्षा प्रदान करते है. विद्यालयों, सड़कों, बैंकों, एटीएम, चिकित्सा केंद्र इत्यादि के साथ इस गांव में अभूतपूर्व विकास हुआ है. इससे इस नई पीढ़ी को मुख्यधारा का हिस्सा बनने में मदद मिलेगी.’
नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर फ़र्स्टपोस्ट से बात करते हुए, मुरामी के एक करीबी दोस्त ने कहा, ‘उसे माओवादियों (अंदरवाले) के क्रोध का सामना करना पड़ा था क्योंकि वह सक्रिय रूप से गांव के विकास कार्य का समर्थन कर रहा था. वे सड़कों का निर्माण नहीं करना चाहते हैं. कई बार उन्होंने हमें सड़क निर्माण कार्य का समर्थन न करने की धमकी दी.’
माओवादियों से गांव के मुक्त होने के बाद भी, उनका आतंक ऐसा है कि कोई भी उन्हें माओवादी या नक्सल के रूप में बोलने की हिम्मत नहीं करता है. इसके बजाय वे उन्हें ‘अंदरवाले’ या ‘असामाजिक’ नाम से बुलाते है. यह बस्तर में सात नक्सल पीड़ित जिलों में आम बात है.
देश, विकास और जनता के खिलाफ युद्ध
देश के लाल गलियारे के सबसे कुख्यात हिस्से के एक युवा नागरिक मुरामी जैसे नागरिक पर हमला उस क्रूर युद्ध का लक्षण है, जो नक्सलों ने न सिर्फ भारतीय राज्य के खिलाफ बल्कि आम नागरिकों के खिलाफ भी छेड़ रखा है. ये युद्ध ऐसे आम लोगों के खिलाफ है, जो मुख्यधारा में शामिल होकर आगे बढ़ना चाहते हैं और शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं.

नक्सलियों के चेतावनी भरे पर्चे
विवेकानंद, इंस्पेक्टर जनरल, छत्तीसगढ़ पुलिस (बस्तर रेंज) ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, ‘वे माओवादियों के जन मिलिशिया कैडर थे, जिन्होंने पंचायत सदस्य नंदलाल मुरामी पर हमला किया था. उन्होंने धमकी भरे पर्चे भी छोड़े थे, जिसमें लिखा था कि सड़क निर्माण से दूर रहे अन्यथा मौत का सामना करने के लिए तैयार रहे. नक्सल नहीं चाहते कि ग्रामीण विकास परियोजनाओं का समर्थन करें. सड़कों और अन्य निर्माण के कारण, माओवादियों को पीछे धकेला जा रहा है.’
सड़क निर्माण हमेशा एक गंभीर बिंदु रहा है क्योंकि माओवादी हमेशा से विकास विरोधी रहे हैं और मुख्य सड़क के साथ आंतरिक गांवों को जोड़ने वाली सड़क का निर्माण नहीं करना चाहते हैं.
राज्य के आगामी विधानसभा चुनाव में, सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार के लिए विकास सबसे महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा होगा. सीपीआई (माओवादी) आदिवासी बस्तर में चुनाव प्रक्रिया को पटरी से उतारने की कोशिश कर रहा है.
समर्थन खोते नक्सल
केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार ने विकास और सुरक्षा उपायों के सुदृढ़ीकरण के सहारे नक्सलवाद समाप्त करने का दृढ़ संकल्प किया है, जिसे कभी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ कहा था. सरकारी अधिकारियों और ग्रामीणों के मुताबिक, माओवादी दंतेवाड़ा से जागरगुंडा को जोड़ने वाली अरानपुर ( जहां मंगलवार को माओवादी हमला हुआ था) सड़क निर्माण का विरोध कर रहे हैं. ये सड़क सुकमा जिले के दोरनापाल को जोड़ देगी. इससे सुरक्षा बलों को माओवादी गढ़ तक पहुंचने में आसानी हो जाएगी. यह सड़क सुकमा जिले के जरिए तेलंगाना के भद्राचलम शहर से दंतेवाड़ा की दूरी को कम कर देगी.
पुलिस, सीआरपीएफ कर्मियों और सड़क निर्माण कर्मियों पर होने वाले इस तथ्य को स्पष्ट रूप से साबित करते है कि कैसे सरकार इन क्षेत्रों में विकास का एजेंडा लागू करना चाहती है और कैसे नक्सल इसके विरोध में है. हालांकि, मुरामी जैसे एक भोले-भाले नागरिक पर हमले का एकमात्र नतीजा यही बताता है कि अब नक्सल अपने आदिवासी ग्रामीण इलाके को खोते जा रहे हैं.
उन्हें पहले वहां से जो समर्थन मिल जाता था, वो अब समाप्ति की ओर है. अपना समर्थन आधार खोने के डर से ही नक्सल ग्रामीणों के बीच डर पैदा कर रहे हैं. वे लगभग संदेश दे रहे हैं – यदि आप आदिवासी गांवों में विकास, शिक्षा और बुनियादी ढांचे को आने की अनुमति देते हैं और इसमें सक्रिय भूमिका निभाते है तो आप इसकी कीमत चुकाने को तैयार रहिए. जाहिर है, मुरामी अकेला कीमत चुकाने वाला व्यक्ति नहीं है.

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