आईए जानें कैसी है कुणाल खेमू और श्वेता त्रिपाठी की फिल्म ‘कंजूस मक्खीचूस’…

कंजूस मक्खीचूस’ की कहानी लखनऊ में सेट है। कहानी अपनी कंजूसी के लिए बदनाम जमुना प्रसाद पांडे (कुणाल खेमू) के इर्द-गिर्द घूमती है। जमुना प्रसाद के पिता गंगा प्रसाद पांडे (पीयूष मिश्रा), मां सरस्वती पांडे (अलका अमीन), पत्नी माधुरी (श्वेता त्रिपाठी) और बेटा कृष उसकी कंजूसी वाली आदतों से तंग आ चुके हैं।

यह है कहानी

जमुना प्रसाद इतना बड़ा कंजूस है कि एक अगरबत्ती का इस्तेमाल पूरे महीने करता है। परिवार को खाना खिलाने के लिए भंडारे में ले जाता है। जब तक बहुत ज्यादा जरूरी न हो, तब तक वह एक रुपया भी खर्च नहीं करता है। हालांकि, परिवार को इस बात की खबर ही नहीं है कि जमना अपने पिता की चारधाम यात्रा पर जाने की इच्छा को पूरा करने के लिए पैसे बचा रहा है। फिर माता-पिता तीर्थ यात्रा पर निकल जाते हैं। वहां पर बादल फटने की वजह से  भारी बारिश और बाढ़ की वजह से वह लापता हो जाते हैं।

लापता हो जाते हैं कंजूस जमुना प्रसाद के माता-पिता

सरकार 25 दिनों से अधिक समय से लापता लोगों को मृत घोषित कर देती है और बाढ़ में लापता हुए प्रत्‍येक व्‍यक्ति के लिए सात लाख रुपये का मुआवजा जारी करती है। इसलिए जमुना को 14 लाख रुपये मिलने वाले हैं, लेकिन उसे सिर्फ 10 लाख ही मिल पाता है, क्योंकि सरकारी अधिकारी बीच में ही चार लाख रुपये आपस में बांट लेते हैं। घटनाक्रम कुछ ऐसे मोड़ लेते हैं कि जमुना इस तरह की बेईमानी के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला लेता है। क्या आम तौर पर लाचार और कमजोर समझा जाने वाला आठवीं फेल जमना ऐसी ताकतवर और भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ जीत हासिल कर पाएगा?

व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर बेस्ड है फिल्म

सिनेमा में कई बार गंभीर मुद्दों को कॉमेडी के जरिए उठाया गया है। विपुल मेहता की कंजूस मक्खीचूस भी व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर है। फिल्म का कॉन्सेप्ट अच्छा है लेकिन फिल्म देखते हुए लगता है कि निर्माताओं ने स्‍क्रीन प्‍ले को ज्‍यादा अहमियत नहीं दी। फिल्म के संवाद और उसमें प्रदर्शित प्रसंगों में ताजगी का अभाव नजर आता है। जमुना को अपने माता पिता के बेहद करीब बताया है लेकिन स्‍क्रीन पर वैसा कुछ भी नजर नहीं आता है। फिल्‍म का शीर्षक भी भ्रामक है। जमुना अव्वल दर्जे का कंजूस है, लेकिन कहानी में उसका यह स्‍वभाव, लेखक समुचित तरीके से उपयोग नहीं कर पाए हैं। ड्रामा और कॉमेडी में संतुलन बनाने की कोशिश में लेखक संघर्ष करते नजर आते हैं। कामेडी कहीं-कहीं पर जबरन थोपी हुई लगती है। भ्रष्‍ट पुलिस अधिकारी की भूमिका में राजीव गुप्‍ता के किरदार को भी  समुचित तरीके से गढ़ा नहीं गया है।

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