अमर प्रेम का रहस्यमयी किला भूरागढ़

डॉ अभिनदंन सिंह भदौरिया
वैसे आज बुंदेलखंड के बाँदा जनपद की पहचान लड़ाई झगड़े को लेकर होती है लेकिन आइए हम आज आपको भूरागढ़ दुर्ग के सीने में दफन प्रेम की उस महागाथा की ओर लेकर चलें जिसको साक्षी मानकर आज भी प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे को पाने की मिन्नतें माँगते है।
लगभग 400 साल पहले राजा छत्रसाल के बड़े पुत्र राजा हृदय शाह और उनके छोटे पुत्र जगतराय ने केन नदी के किनारे की इस सुन्दर पहाड़ी पर 17वी शताब्दी में इस ऐतिहासिक दुर्ग का निर्माण कराया, आगे चलकर जगतराय के पुत्र कीरत सिंह ने सन 1746 में भूरागढ़ दुर्ग का जीर्णोद्धार कराया।
कीरत सिंह के पश्चात गुमान सिंह ने इस दुर्ग पर भूरे पत्थरों का इस्तेमाल करके इसे भूरागढ़ नाम से प्रसिद्ध कर दिया, राजा गुमान सिंह के इस किले की देखरेख महोबा जिले के सुगरा के रहने वाले नौने अर्जुन सिंह करते थे जो इस किले के किलेदार थे।
उसी समय इक्कीस साल का एक नट जाति का युवा किले में नौकर था, जो मूलरूप से मध्यप्रदेश के सरवई गांव का रहने वाला था। किलेदार नौने शाह की एक सुन्दर कन्या भी थी, राजकुमारी को इक्कीस साल के नट युवा से प्यार हो गया, लेकिन दोनों का मिलना धरती और आसमान के जितना कठिन था। लेकिन अर्जुन सिंह को अपनी बेटी के सामने मजबूर होना पड़ा और अर्जुन सिंह ने वीरन के आगे एक शर्त रखी, अगर वीरन नदी के उस पार बाम्बेस्वर पर्वत से किले तक सूत (कच्चा धागा ) पर चढ़कर नदी पार कर किले तक आ जाये तो उसकी शादी राजकुमार से कर दी जाएगी, वीरन ने ये शर्त स्वीकार कर ली और उसने घोषणा कि मकर संक्रांति के दिन वह सूत पर चलकर नदी पार करेगा और किले पर पहुँचेगा।
मकर संक्रांति के दिन बाम्बेस्वर से किले तक कच्चे सूत की रस्सी बाँधी गयी, वीरन ने नदी पार करना शुरू किया जब वीरन किले में पहुँचने ही वाला था तो किलेदार अर्जुन सिंह नौने ने किले की दिवार से बंधे सूत को काट दिया। वीरन नीचे गिर गया और किले की चट्टानों से टकरा कर उसकी मृत्यु हो गयी। किले की खिड़की से किलेदार की बेटी यह सब देख रही थी उसने अपने प्रेमी को मरते देख उसी खिड़की से छलाँग लगा दी और उसकी भी मृत्यु हो गयी, दोनों की मृत्यु के पश्चात के उनकी समाधि बना दी गयी, जो बाद में मंदिर में रूपांतरित कर दी गयी आज भी मकर संक्रांति से पाँच दिनों तक यहाँ नट-बलि का मेला लगता है और प्रेमी-प्रेमिका दूर दूर से यहाँ अपनी मनोकामना लेकर यहाँ आते है।
दोनों की मृत्यु के पश्चात के उनकी समाधि बना दी गयी,जो बाद में मंदिर में रूपांतरित कर दी गयी आज भी मकर संक्रांति से पाँच दिनों तक यहाँ नट-बली का मेला लगता है और प्रेमी-प्रेमिका दूर दूर से आज भी अपनी मनोकामना लेकर यहाँ आते है। लेकिन इतिहास नट बलि के इस मेले को दूसरे दृष्टिकोण से देखता है मराठा बाजीराव और मस्तानी की औलाद नवाब अली बहादुर ने सन 1787 में इस किले को प्राप्त करने का प्रयास शुरू कर दिया।
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क़िले में स्थित नट-बली का मंदिरसन 1792 में अर्जुन सिंह और नवाब अली बहादुर के बीच युद्ध हुआ, इस समय गुमान सिंह का नाती शासन में था और अर्जुन सिंह ही मुख्य रूप से शासन देख रहे थे क्योंकि गुमान सिंह के नाती की उम्र ज़्यादा नहीं थी।
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कुछ समय के लिये नवाब शासन में तो आये लेकिन राजाराम दाऊआ और लक्ष्मण दाऊआ ने नवाबों से जीतकर इसे फ़िर अर्जुन सिंह के हवाले कर दिया और इसी दौरान अर्जुन सिंह की मृत्यु हो गयी और नवाबों ने फिर से किले में कब्जा कर लिया। 1802 ई में नवाब की भी मृत्यु हो गयी और उस दौर में गौरीहार महाराज ने इसका शासन संभाला।

सन 1857 क्रांति के समय यहाँ पर नवाब अली बहादुर द्वितीय शासन कर रहा था, यहाँ भी क्रांति की चिंगारी भड़क उठी और नवाब अली बहादुर द्वितीय ने क्रांति का नेतृत्व किया। 14 जून सन 1857 को अंग्रेजों से युद्ध प्रारंभ हो गया,15 जून सन 1857 को क्रांतिकारियों ने तत्कालीन ज्वाइंट मजिस्ट्रेट मिस्टर कोकरेल की हत्या कर दी। स्थिति को नियंत्रित करने के लिये हिटलक को बाँदा भेजा गया, हिटलक और विद्रोही सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ इस युद्ध में तीन हज़ार क्रांतिकारी मारे गये, लेकिन सरकारी गज़ेटियर में केवल 800 लोंगो का जिक्र मिलता है।
गज़ेटियर में 28 व्यक्तियों के नाम विशेष रूप से मिलते है जिन्हें मृत्युदंड व काले पानी की सजा सुनाई गई। किले में राव महिपत सिंह सुगरा स्टेट को उनके अस्सी सिपहसालारो को यहीं फाँसी दी गयी थी। इस भयंकर युद्ध में सरवई के निकट रहने वाले नटो ने भी अपना बलिदान दिया था, जिनकी स्मृति में मकर संक्रांति के दिन आज भी मेले का आयोजन किया जाता है।
महल में सतखंडा भवन, बाउली, रंगमहल आदि सुंदर स्थान है साथ ही यहाँ शहीदों की बहुत सारी मजारे भी है। किले से सूर्यास्त के नजारा देखना एक सुखद अनुभव देता है।
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