अब महोबा जिले के एक गांव में बनेगा कार्बन निगेटिव विलेज, इस हानिकारक गैस का घटाया जाएगा उत्सर्जन

वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा कम करने के हिमायती नासा के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. मुरलीधर राव अब महोबा जिले के एक गांव को कार्बन नेगेटिव बनाने जा रहे हैं। यह ऐसा गांव होगा जहां धुआं रहित चूल्हे और अन्य साधनों में लकड़ी के प्रयोग से इस हानिकारक गैस का उत्सर्जन घटाया जाएगा।

बर्रा में आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए डॉ. राव ने पत्रकारों से बातचीत में बताया कि वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा अधिक होने के कारण रातें अब पहले जैसी ठंडी नहीं होती हैं। इसे कम करने के लिए कार्बन डाई ऑक्साइड के अवशोषण और ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने की जरूरत है। चूंकि पेड़ कार्बन डाई ऑक्साइड अवशोषित करते हैं, जिससे टहनियां बनती हैं। इसलिए पेड़ों की पतली टहनियों की छंटाई करते रहें। साथ ही लकडिय़ों का उपयोग इस तरह से करें कि वह प्रदूषण उत्पन्न करने की बजाय उपयोगी बनें। धुआं रहित उन्नत चूल्हा इसका महत्वपूर्ण विकल्प है। इसमें लकड़ी जलने के बाद कोयला बन जाती है, जो पांच रुपये प्रति किलो की दर से बिकती है।

बची हुई सामग्री खाद के रूप में काम आती है। उन्होंने बताया कि महोबा जिले के एक गांव में ग्रामीणों व प्रधान से वार्ता हो गई है। इसी गांव को कार्बन नेगेटिव बनाया जाएगा। यह गांव ऐसा होगा जो कार्बन अवशोषित करेगा और उत्सर्जन बिल्कुल नहीं होगा। इसके लिए खाना पकाने से लेकर ट्रांसपोर्टेशन तक के काम में लकड़ी और गैसी फायर (हवा के बिना कचरे से गैस बनाने की तकनीक)का इस्तेमाल किया जाएगा। शवदाह में कम से कम लकड़ी इस्तेमाल की जाएगी और पौधे ऐसे लगाए जाएंगे जो खारे पानी को शुद्ध करें। इस दौरान डॉ. राव, अरविंद कुशवाहा प्रमुख जल बिरादरी, पर्यावरणविद् ज्ञानेंद्र रावत, कार्यक्रम संयोजक बृजेंद्र प्रताप सिंह ने लोअर गंगा कैनाल नहर में फावड़ा चलाकर स्वच्छता का संदेश दिया।

ऐसे बनाया धुआं रहित चूल्हा

डॉ. राव ने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर 40 ईंटों को एक के ऊपर एक रखकर तीन फिट का चूल्हा बनाने की तकनीक ईजाद की है। उन्होंने बताया कि इस चूल्हे को बनाने के लिए निचले हिस्से में ईंटों के बीच गैप रखें, ताकि जलने वाली लकड़ी को ऑक्सीजन मिल सके। लकड़ी जलाने के बाद जो अपशिष्ट बचेगा उसी से कोयला बनेगा। इससे जो बचेगा उससे खाद बनेगी। बताया कि उत्तराखंड, राजस्थान, हरियाणा, फतेहपुर जैसे इलाकों में इन चूल्हों का इस्तेमाल हो रहा है।

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