संपादकीय : संघ प्रमुख से बयान से आरक्षण पर बहस

mohanbhagwat_21_09_2015राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की फिलहाल जो सियासी अहमियत है, उसके मद्देनजर इसमें कोई हैरत नहीं कि आरक्षण के मुद्दे पर संघ प्रमुख के सुझाव पर त्वरित और तीखी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं हुई हैं। मोहन भागवत ने संघ के मुखपत्रों- ‘पांचजन्य” और ‘ऑर्गनाइजर” को दिए इंटरव्यू में कहा – ‘हमारा मानना है कि समूचे राष्ट्र के हित का सचमुच खयाल रखने वाले और सामाजिक समता के लिए प्रतिबद्ध व्यक्तियों की एक समिति बने, जो विचार करे कि किन वर्गों को और कब तक आरक्षण की जरूरत है। गैर-राजनीतिक समिति को स्वायत्त आयोग की तरह उस (नीति) पर अमल का अधिकार मिले। राजनीतिक अधिकारी उनकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा की निगरानी करें।”

भागवत ने जोड़ा कि लोकतंत्र में निहित-स्वार्थी समूह बनते हैं, लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे समूह दूसरों की कीमत पर अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के प्रयास न करें। संभव है कि आरक्षण की राजनीति जिस बेतुके स्तर पर पहुंच चुकी है, उसे देखते हुए संघ प्रमुख ने यह हस्तक्षेप किया हो। आखिर अभी सिर्फ एक साल गुजरा है, जब उन्होंने कहा था कि जब तक समाज में विषमता है, तब तक आरक्षण की जरूरत है।

मगर ताजा बयान उन्होंने बिहार चुनाव से ठीक पहले दिया है, जहां सारी चुनावी चर्चा सवर्ण, पिछड़े, अति-पिछड़े, दलित, महादलित आदि शब्दावलियों में सिमटी हुई है। जब जातीय भावनाओं पर आधारित समीकरण उभारे जा रहे हों, तब ऐसे वक्तव्य से सियासी विवाद खड़ा होना लाजिमी है। तो लालू प्रसाद यादव ने फौरन चुनौती दे डाली। लालू ने कहा कि आरएसएस, बीजेपी आरक्षण खत्म करने का कितना भी सुनियोजित माहौल बना लें, देश के 80 फीसदी दलित, पिछड़े उनका मुंहतोड़ जवाब देंगे। जदयू ने कहा कि आरक्षण नीति में किसी बदलाव की जरूरत नहीं है। सोशल मीडिया पर राय जताई गई कि संघ हमेशा से आरक्षण का विरोधी था, अब वह अपने असली रंग में आया है।

यहां यह उल्लेख प्रासंगिक होगा कि गुजरात में आरक्षण के लिए पटेल समुदाय के आंदोलन के पीछे कुछ हलकों से संघ का हाथ होने का शक जताया गया था। कहा गया कि मकसद ऐसा माहौल बनाना है, जिसमें आरक्षण खत्म करना संभव हो जाए। अब भागवत के बयान को उसी कोशिश का हिस्सा बताया जाए, तो इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं होगा। मगर बेहतर होगा कि संघ प्रमुख की टिप्पणियों से छिड़ी बहस को उचित संदर्भ में ले जाया जाए।

आरक्षण के इतिहास, इसकी आवश्यकता, इसकी कसौटियों, इसके तरीके, लाभार्थियों की सही पहचान आदि पहलुओं पर खुलकर बात हो। कुछ वर्ग आरक्षण के कारण खुद को वंचित महसूस करते हैं, तो उनकी भी शिकायत सुनी जाए। इससे ऐसी आम-सहमति उभर सकती है, जिससे आरक्षण को लेकर बार-बार होने वाले विवाद का हल निकले। लेकिन ऐसा तभी होगा, जब सभी पक्ष सकारात्मक रुख अपनाएं और खुद को न्याय के मूलभूत सिद्धांतों के प्रति वचनबद्ध करें।

 
 
 

 

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