वयोवृद्ध शीला दीक्षित कुशल राजनीतिक योद्धा के तौर पर डटी रहीं सियासी मैदान में

81 साल की उम्र में भी वयोवृद्ध शीला दीक्षित कुशल राजनीतिक योद्धा के तौर पर सियासी मैदान में डटी रहीं। आरोपों और आलोचनाओं के कठघरे में वह हमेशा रहीं। विपक्षी दलों के साथ-साथ पार्टी की अंदरूनी कलह से भी जूझती रहीं, लेकिन शह और मात के खेल में हर बार अपने विरोधियों पर भारी पड़ी।

वापसी करते ही डर गई थी भाजपा और आप

सन 1998 से 2013 तक जब शीला दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं, तब तो उनके विरोधी आरोप लगाते रहने के सिवाए उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाए। जब वह मुख्यमंत्री नहीं रहीं, तब भी केवल तभी तक विरोधी अपनी जमीन बचाए रख सके, जब तक शीला सक्रिय राजनीति से दूर रहीं। जनवरी 2019 में जैसे ही वह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनीं तो इतने भर से भाजपा और आम आदमी पार्टी सियासी संकट महसूस करने लगीं।

बगावत का किया था सामना

शीला को पार्टी में भी बगावत का खूब सामना करना पड़ा। जब प्रदेश अध्यक्ष के पद पर जयप्रकाश अग्रवाल थे तो भी अनेक बार दोनों के बीच मतभेद सामने आते रहते थे। वरिष्ठ नेता अजय माकन के साथ उनका 36 का आंकड़ा किसी से छिपा नहीं है। शतरंज की बिसात पर चाल खेली गई कि आम आदमी पार्टी से कांग्रेस का गठबंधन हुआ तो बदनाम शीला दीक्षित होंगी, लेकिन शीला ने यह चाल कामयाब ही न होने दी।

पार्टी की मजबूती के लिए उठाने वाली थी कदम

पिछले कुछ दिनों से प्रदेश कांग्रेस दो गुटों में बंटी नजर आ रही है। एक गुट शीला समर्थक तो दूसरा प्रदेश प्रभारी पीसी चाको समर्थक नेताओं का। चाको सहित अपने दो कार्यकारी अध्यक्षों के खुला विरोध करने पर भी शीला ने न केवल लोकसभा चुनाव में हार की समीक्षा के लिए पांच सदस्यीय कमेटी का गठन किया बल्कि उस कमेटी की सिफारिश पर ही पहले 280 ब्लॉक समितियां भंग की और बाद में सभी 14 जिला एवं 280 ब्लॉक पर्यवेक्षक नियुक्त किए। जल्द ही वह संगठन की मजबूती के लिए और भी बहुत से कदम उठाने वाली थीं, लेकिन नियति को शायद यह मंजूर न था।

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