गांव में है जॉब कार्ड धारक (जेबी) मजूदर, कागज में चुपके-चुपके चलती है जेसीबी
बेरोजगारी का आलम देखना है तो लखनऊ के 1090 चौराहे पर सुबह आ जाइए। यहां गांव का गरीब फुटपाथ पर सोते हुए मिलेगा। एक बैग में ही उसकी जिदगी चलती है। जिसमें एक चादर, आटा, आलू के साथ ही कुछ कपड़े रहते हैं। यहां झुग्गी-झोपड़ी वाले उससे रहने के लिए किराया भी वसूलते हैं। नालियों के किनारे ईंट जोड़कर भोजन पकाते हैं और खाने के बाद लेबर मंडी पहुंच जाते हैं। औसतन एक माह में इन्हें 15-20 दिन का ही रोजगार मिलता है।
ये दास्तां सूबे के ग्राम्य विकास आयुक्त एनपी सिंह ने मंगलवार को जिला पंचायत सभागर में सुनाई। उन्होंने कहा कि एक दिन मैं सुबह पांच बजे गोमतीनगर की तरफ मॉर्निंग फॉलोअप के लिए जा रहा था तो रास्ते में चौराहे के समीप कुछ मजदूर सोते दिखे। जब करीब सवा छह बजे लौटे तो वह ईंट के ऊपर खाना पकाते हुए दिखे। आयुक्त ने बताया कि ऐसा देखकर उनसे बात करने की इच्छा हुई। श्रमिक कहीं पहचान न लें, इसके लिए वह उनके पास जाकर बैठ गए। श्रमिक ने जब बताया कि वह बहराइच जिले के हैं तो उन्होंने सवाल किया कि मनरेगा में काम क्यों नहीं करते। श्रमिक ने जवाब दिया कि पहले तो गांव में काम नहीं मिलता, मिलता भी है तो बैंक से पैसा जबरन निकलवा लिया जाता है। ये पूछने पर कि गांव में काम नहीं होता तो बहुत चौंकाने वाला जवाब मिला कि गांव में काम होता है। हम जॉब कार्ड धारक (जेबी) मजूदर हैं। प्रधान ने अपने बिरादरी के लोगों, परिवार व पड़ोसियों के नाम से जॉबकार्ड बनवा रखे हैं, काम जेसीबी से करा लिया जाता है और भुगतान खाते में भेजकर निकलवा लेते हैं। आयुक्त ने कहा ये सब इसलिए हो रहा है कि अफसर गांव में जाना मुनासिब नहीं समझते। उन्होंने कहा कि फुटपाथ पर मिले श्रमिक की बातों का यकीन इसलिए मैने कर लिया, क्योंकि इससे पहले प्रतापगढ़ व सुलतानपुर में मिली शिकायतें जांच में सही पाई गई थीं।