इस जगह पर होता है ये विचित्र कारनामा, जिसके आगे पूरी दुनिया हो जाती है नतमस्तक
July 5, 2018
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ईरान के बारे में आपने बहुत से किस्से कहानियां सुने होंगे। इन दिनों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो इसकी चर्चा काफी गर्म है। एटमी प्रोग्राम को लेकर ये अमरीका समेत तमाम पश्चिमी देशों के निशाने पर है। लेकिन, ईरान सभ्यता का बहुत पुराना केंद्र रहा है। किसी जमाने में यहां पर तमाम आर्य जनजातियों ने पनाह ली थी। इस्लाम से पहले ईरान पारसी धर्म का केंद्र था। पैगम्बर जरथुष्ट्र ईरान में ही हुए थे।
पारसी धर्म के दौर और उससे पहले भी ईरान ने इंसानी सभ्यता के विकास में बहुत अहम रोल निभाया है। एक वक्त ऐसा था कि ईरान के राजाओं की हुकूमत यूनान से हिंदुस्तान तक फैली हुई थी। बादशाह दारा और साइरस ने बड़े साम्राज्य स्थापित किए थे।
लेकिन, आज आपको ईरान की ऐसी उपलब्धि के बारे में बताते हैं, जिसे सुनकर आप को शायद पहले-पहल यकीन ही न हो। ईरान को कुदरत ने तमाम नेमतें बख्शी हैं, लेकिन, सारी खूबियों के बावजूद यहां एक कमी रह गई। अन्य देशों की तरह यहां कलकल करती नदियां और चश्मे नहीं हैं, लेकिन जमीन के नीचे पानी भरपूर है।
पानी की किल्लत का हल एक जमाने से ईरानियों को पीने के पानी की बहुत किल्लत झेलनी पड़ती थी, लेकिन पहले के जमाने में ईरान में साइंस ने इतनी तरक्की कर ली थी कि ईरानियों ने इस मुश्किल का तोड़ इंजीनियरिंग के कमाल से ढूंढ निकाला।
ईरान में पहाड़ बहुत हैं। इनकी तलहटियों में अक्सर भूगर्भ जल की बड़ी मात्रा मिल जाती है। आज से करीब तीन हजार साल पहले ईरानियों ने इसी भूगर्भ जल को गहराई से निकालकर ढलान के जरिए दूर-दूर तक पहुंचाने का तरीका सीख लिया था और कामयाबी से इस्तेमाल भी किया।
जमींदोज पानी निकालने की ईरान की इस तकनीक के नमूने ईरान के शहरों इस्फान से लेकर याज्द और दूसरे इलाकों में मिलते हैं। पानी सप्लाई की इस शानदार इंजीनियरिंग को फारसी जबान में ‘कारिज’ कहते हैं, लेकिन, इसका अरबी नाम ‘कनात’ चलन में ज्यादा है।
पहाड़ों की तलहटी से पानी निकालकर इसे दूर-दूर तक पहुंचाने वाला सिस्टम आज भी चलन में है। 2016 में यूनेस्को ने इसे वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल कर लिया है। पहाड़ों में कनात बनाने के लिए सबसे पहले ऐसी जगह की पहचान की जाती थी जहां जमीन के अंदर प्रचुर मात्रा में गाद वाली मिट्टी हो। फिर बड़ा गड्ढा खोद कर जमीन के अंदर पानी तक पहुंच बनाई जाती थी। कनात के जरिए ही ऊंचाई से निचले इलाकों में सिंचाई के लिए पानी पहुंचाया जाता था।
जमीन के भीतर पानी की नालियों का जाल ऊपर से देखने पर ये गड्ढे ऐसे ही मालूम होते हैं जैसे कच्ची जमीन में चींटियां गड्ढा खोद कर अपने लिए घर तैयार करती हैं। ऊपर से देखने में ये अंदाजा नहीं लगता है कि अंदर नालियों का जाल बना हुआ है। जमीन के ऊपर ये गड्ढे हवा पास करने के लिए बनाए जाते थे ताकि अंदर खुदाई कर रहे मजदूरों की सांस न घुटे।
कनात असल में जमीन के भीतर पानी की नालियों का जाल होता है। इसके अंदर कई कक्ष बने होते हैं। ठीक इसी तरह कनात में भी जमीन के अंदर अलग-अलग कक्ष बनाए जाते थे। कई जगह पर पानी थोड़ी-सी मिट्टी हटाने पर ही निकल आता है। तो कई जगह तीन सौ मीटर की गहराई तक खुदाई करनी पड़ती थी।
जमीन के अंदर दलदली मिट्टी में छेद करके मिट्टी बाहर निकाली जाती थी। फिर गड़्ढे बनाकर वहां पानी निकाला जाता था। कनात के अंदर ढलान इस तरह से बनाए जाते थे कि पानी तेज बहाव के साथ चलता रहे। कनात बनाने का तरीका काफी पेचीदा था, लेकिन इसकी बदौलत ही ईरान सदियों तक अपने सूखे इलाकों तक पानी पहुंचाता रहा।
इसकी बेहतरीन मिसाल तो दक्षिण-पूर्वी ईरान के प्रांत फार्स में देखने को मिलती है। 550 से 330 ईसा पूर्व में यहां एकेमेनिड वंश के राजाओं ने ‘पर्सिपोलिस’ नाम का शहर बसाया था। ये शहर ‘जागरोस’ पहाड़ों से घिरा था। यहां के मैदानों में सूखा था और हवा काफी गर्म थी। रेगिस्तानी इलाकों की तरह यहां के लोगों को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ता था, लेकिन कनात जैसी तकनीत की बदौलत पर्सिपोलिस एकेमेनिड वंश के राजाओं के लिए सत्ता का सबसे बड़ा केंद्र बन गया।
यहीं से उन्होंने अपनी हुकूमत यूनान से लेकर हिंदुस्तान तक कायम कर ली। इस शहर को उन्होंने दुनिया का सबसे आलीशान शहर बना दिया। बड़े-बड़े पार्क और बाग इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगाते थे।
एयरकंडीशनिंग के इसी तरीके का चलन वक्त के साथ पानी सप्लाई का ईरान का कनात सिस्टम दुनिया भर में फैल गया। कुछ तो ईरान के बादशाहों की बदौलत और कुछ यहां पर आने वालों की वजह से। जो भी ईरान आया वो यहां से कनात सिस्टम की जानकारी लेकर लौटा और अपने यहां उसे आजमाया।
एक इतिहासकार ने तो यहां तक दावा किया है कि मिस्र के राजा कनात सिस्टम से इतने खुश हुए कि उन्होंने फारस के राजा दारा महान को फराओ की उपाधि से नवाजा। कनात से ना सिर्फ पीने का पानी मिलता था बल्कि ये एयर कंडिशनिंग का भी काम करते थे। मिसाल के लिए मध्य ईरान का इलाका याज्द काफी गर्म है।
यहां कनात के पास ठंडी हवा गुजारने के लिए ‘बगदीर’ बनाए गए हैं। कनात में शाफ्ट के जरिए जो गड़्ढे बनाए गए हैं, वहां से गर्म हवा जमीन के अंदर जाती है और पानी के संपर्क में आकर ठंडी हो जाती है। याज्द के पुराने घरों में आज भी एयरकंडीशनिंग का यही तरीका चलन में है।
बर्फ जमाने के तहखाने यखचाल कनात का एक और इस्तेमाल होता था। जाड़े के दिनों में ठंडा पानी पहाड़ों से कनात के जरिए यहां पहुंचाया जाता था। यहां आकर ठंडी दीवारों के बीच ये पानी जम कर बर्फ बन जाता था। इन बर्फ जमाने वाले तहखानों को ‘यखचाल’ कहते थे।
यखचाल फारसी शब्द है जिसका मतलब है ‘बर्फ के गड्ढे’। यहां सर्दी के मौसम में बर्फ जमाने का काम किया जाता था, ताकि गर्मी के दिनों में इसका इस्तेमाल हो सके। बर्फ जमाने का ये तरीका यहां करीब 400 ईसा पूर्व यानी आज से करीब ढाई हजार साल पहले विकसित किया गया था। यखचाल में बर्फ जमा रहने से जमीन के ऊपर का तापमान भी संतुलित रहता है।
कनात सिस्टम न सिर्फ ईरानियों की पानी की जरूरत पूरा करता है बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से रूहानी मकसद भी पूरा करता है। कनात की बदौलत ही यहां के राजा इतने खूबसूरत बाग बना सके कि इन्हें आज यूनेस्को की लिस्ट में शामिल कर लिया गया है।
इन बागों में हरी घास की परतें कालीन जैसी मालूम होती हैं। इन बागों को चहार बाग कहते थे। फूलों से लदे लहलहाते पेड़ और कल-कल करते पानी के चश्मों से लबरेज ये बाग रूह को सुकून देते हैं।
बाग-ए-खोशनेविसान ये बाग चार हिस्सों में बने हैं इसीलिए इन्हें ‘चहार बाग’ यानी ‘चार बाग’ कहा जाता है। इन बागों को देखकर एहसास होता है कि पारसी लोग कुदरत के प्रेमी थे। कोई शक नहीं कि इब्राहिमी मजहबों (इस्लाम, ईसाई और यहूदी) में जिस जन्नत की कल्पना की गई है, उसका ख्याल इन चार बागों से ही प्रेरित है। फारसी लोग इन्हें ‘परीदाइदा’ का नाम देते हैं। जन्नत के लिए अंग्रेजी शब्द ‘पैराडाइज’ इसी फारसी शब्द से बना है।
ईरान की राजधानी तेहरान के मशहूर बाग हैं ‘बाग-ए-खोशनेविसान’ यानी ‘तस्वीरें उकेरने वालों का बाग’, ‘बाग-ए-मुजेह’ यानी ‘म्यूजिम गार्डन’, ‘बाग-ए-फिरदौस’ यानी ‘पैराडाइज गार्डन’। कुछ जानकार दावा करते हैं कि हो सकता है इन बागों की खूबसूरती ने ही ईरान के मशहूर शायर हाफिज और शेख सादी को शायरी की प्रेरणा दी हो।
ईरान के चहार बाग की फिलॉसफी का असर दुनिया के कई देशों में देखा जा सकता है। मोरक्को के शहर मराकश के महलों, स्पेन के किले अलहमरा के सहन में बने बाग और फ्रांस के राष्ट्रपति निवास यानी वर्साय पैलेस के आर्किटेक्चर पर फारस की कला और संस्कृति का असर साफ देखा जा सकता है। ये अरबों के जरिए दूर-दूर तक पहुंचा।
फारस के चहार बाग से प्रेरित है मुगल गार्डन मुगल बादशाह फारसी जबान और संस्कृति को दुनिया में अव्वल मानते थे। मुगलों ने न सिर्फ ईरानियों की भाषा फारसी को अपनी जबान बनाया बल्कि उनकी वास्तुकला को भी गले से लगाया। ईरानियों के चहार बाग की तर्ज पर मुगल बादशाहों ने कश्मीर से लेकर दिल्ली और लाहौर तक बाग तामीर कराए।
हमारे राष्ट्रपति भवन का मुगल गार्डेन भी फारस की चहार बाग परंपरा से ही प्रेरित है। हुमायूं के मकबरे, ताजमहल के आस-पास, लाहौर और कश्मीर के मुगल गार्डेन भी फारसी संस्कृति के भारत पर असर की मिसाल हैं। मुगल काल में इन्हें भारत में भी चहार बाग ही कहा जाता था। हालांकि नई तकनीक आने के बाद ईरानियों की कनात पर निर्भरता कम हुई है, लेकिन गांव देहातों में आज भी इसी के जरिए पानी पहुंचाया जाता है।
कनात की देखरेख का काम स्थानीय लोगों को सामाजिक तौर पर जोड़ने का काम भी करता है। साइरस महान ने अपने दम पर ईरान में बैठकर दूर-दूर तक अपना राज्य फैलाया। जरा सोचिए अगर ईरान के सूखे वातावरण में कनात जैसा सिस्टम नहीं बना होता तो क्या इतना बड़ा साम्राज्य स्थापित हो सकता था।