आलेख : अवाम की जुबान पर ठहरने वाले बोल – मृणाल पांडे

first02oct_02_10_2015सरकारी कामकाज या पंडितों की औपचारिक भाषा की तुलना में किसी भी देशकाल में घरों से बाजारों तक बोली जाने वाली आमफहम भाषा ही मानव-जाति पर उस समय के दबावों, उनसे उपजे बदलावों और उनसे बिठाए गए तालमेलों का कहीं अधिक सटीक दस्तावेज होती है। भारत के हिंदी विरोधी और समर्थक, सब खुशी या दु:ख से मान चुके हैं कि जमीनी राजनीति, मीडिया, टूरिज्म या लोकप्रिय फिल्में, कहीं भी बड़े पैमाने पर सफलता के लिए आमफहम हिंदी अपनाए बिना बात नहीं बन सकती। शुद्धतावादी मिली-जुली हिंदी पर कितनी ही छी-छी करें, वे भी बखूबी जानते हैं कि सड़कों-चायखानों में बोली जा रही हिंदी, जिससे चुनाव जीते जा रहे हैं, महज संस्कृत के सहारे जनभाषा नहीं बनी। देश-परदेस की अनेक बोलियों, भाषाओं से लैस हो और निरंतर नई चाल में ढलकर ही वह इतनी ताकतवर जनभाषा बनी है, जिससे कश्मीर से कन्याकुमारी व पाकिस्तान, अफगानिस्तान तक राजनेता या फिल्मकार सब अपनी बात संप्रेषित कर सकते हैं।

जनभाषा सरकारी अधिसूचना या आधिकारिक अकादमिक शब्दकोष या व्याकरण की स्थापनाओं से ही नहीं बनती। वह जनता के बीच उसकी भावनाओं की खराद पर बनने वाली जनता की संपत्ति है। उसका रूप जमाने की चाल के साथ बदलता रहता है। आज की आमफहम हिंदी का स्वरूप आज से अढ़ाई सौ साल पहले कितना फर्क था, इसे 1826 में नागरी लिपि में छपे पहले हिंदी अखबार उदंत मार्तंड की गवर्नर जनरल लखनऊ दौरे की रपट में देखें : ‘…राजमार्ग में दोनों ओर छोटी छोटी हवेलियों के बारजों पर मुजस्सर, कमख्वाब और ताश बादले के कामों के सुनहले औ रुपहले काम के जो कपड़े लोगों ने लटकाये थे..उनकी शोभा देखते ही बनती है…जेंव जेंव सवारी शहर में धंसी तेंव तेंव ठौर ठौर नाच रंग भी देखने में आये..”

यह उस समय के हिंदीभाषी गंगा-जमुनी समाज की सहज बोली-बानी का एक सहज और जीवंत बिंब है, जब हिंदी पट्टी में हिंदी और उर्दू एक ही स्रोतों से प्राणवायु लेती थीं। इसलिए अपने वाचिक रूप में वे एक-दूसरे से बहुत फर्क नहीं थीं। भेद लिपि तक ही सीमित था। आपसी बातचीत में कोई बाधा नहीं थी। अपने मिजाज और विदेशी शब्दों के बेझिझक उपयोग में दोनों भाषाओं ने हिंदी पट्टी की उस पूरी भौगोलिक चौहद्दी का लाभ उठाया, जो सदा से कई संस्कृतियों-बोलियों के बीच हंसमुख आदान-प्रदान का इलाका बनाती रही है। हिंदी-उर्दू आज भी बाजार से कैम्पस तक महंगाई, राग-विराग, राजनीति या प्रेम तक हर विषय पर बातचीत का सहज माध्यम बन सकती हैं। पर गए छह दशकों में उनके औपचारिक संस्थानों ने एक अजीब-सी भाषाई छुआछूत पाल रखी है, जिसकी कृपा से उनके साहित्यिक गद्य-पद्य में पराई मान ली गई बोलियों व देशज छंदों की सहज आवाजाही गायब होती गई है। आज हिंदी की संस्कृतनिष्ठ शुद्धता की बहाली की जिद पर अड़ा एक बड़ा वर्ग अकादमिक सरकारी संस्थाओं में अपने मठ बनाकर उस हिंदी की पुरजोर पैरवी कर रहा है, जो लोकप्रियता के पैमाने पर प्रेमचंद, गुलेरी, रघुवीर सहाय, मोहन राकेश, कमलेश्वर, मन्न्ू भंडारी या शिवानी की सहज-सुंदर हिंदी के सामने कहीं नहीं ठहरती। बस अकादमिक तथा आलोचकीय तमगे हर साल बटोरती रहती है। ‘हाय हिंदी साहित्य मर रहा है” का रुदन करने वाले और आम आदमी व शोषित किसान-मजदूरों के स्वघोषित जनवादी पक्षधरों का साहित्य भी अक्सर प्राग, हंगरी या बेइजिंग में ही कुलांचें भरता दिखता है। यही वजह है कि हिंदी साहित्य पर हो रही गोष्ठियों, साहित्य सम्मेलनों में महानगरीय भद्रलोक से लेकर आम कस्बाती पाठक सब बाहर ही रहते हैं। कोई सहज अंतरंग संवाद उनके बीच नहीं बन पाता। इसका हर तरह के लोकतांत्रिक विमर्श ने भारी मोल चुकाया है।

हिंदी की सहज क्षमता और सहज हिंदी के लोप से धार्मिक सहअस्तित्व पर सार्वजनिक विचार-विमर्श मुश्किल बनने का फायदा कट्टरपंथी धड़ों को मिल रहा है, जिन्होंने हिंदी को राजभाषा बनाने के हठ से गैरहिंदी वालों को खफा कर राजभाषा का जहाज सदा के लिए बालू में अटका दिया। जनवादी धड़ा जो कभी इप्टा और जनवादी लेखक संगठनों से जनभाषा के रूप में हिंदी को पुष्ट करता आया था, इस बीच अपने कुलीन बौद्धिक नेतृत्व के तले पिछले दसेक सालों में लगातार अहिंदीभाषी बन गया है। राजनैतिक वजहों से उर्दू ने अरबी-फारसी में अपनी जड़ें खोजकर उसे सामुदायिक पहचान की राजनीति से जोड़ दिया। नतीजतन सीमित कुलीन वर्गों की जमीनी तौर से राष्ट्रव्यापी धर्मनिरपेक्षता की पैरवी के लिए नाकाफी होते हुए भी अंग्रेजी कुलीनताकांक्षी लोगों के बीच ललक का बायस बनी और साथ ही राजकाज और शिक्षा संस्थानों पर छा गई। अहिंदीभाषी बंगाल तथा दक्षिण को क्या दोष दें, जबकि खुद हिंदी पट्टी के मध्यवर्ग ने हिंदी छोड़ अंग्रेजी पकड़ी और हिंदी को कभी भदेस तो कहीं सांप्रदायिक विचारों का वाहक कहकर त्याग दिया। इस शून्य को भरकर दक्षिणपंथी दलों ने जनभाषा को अपना धारदार हथियार बना लिया। पर मजा देखिए, सोशल मीडिया में वैचारिक भिन्न्ता के पक्षधरों के खिलाफ दक्षिण चरमपंथी वीर-बालक हिंदी से सटीक अपशब्द तक नहीं खोज पा रहे हैं। अंग्रेजी से लफ्ज उधार ले-लेकर वे अपने वैचारिक दुश्मनों को कभी ‘सेकुलर” और कभी ‘प्रेस्टिट्यूट” कह रहे हैं। गाली-गलौज से मीडिया बहसों में संस्कृति, आस्था तथा आहत जनभावना जैसे शब्दों की ध्वनियां भी बदल गई हैं।

मध्यकालीन भारत में जब ऐसा हुआ था, तब हिंदू-मुस्लिम सहअस्तित्व की अनिवार्यता के सवाल को लेकर कबीर, गोरखनाथ, जायसी और रहीम बेलौस सहजता से समाज के बीचोंबीच आ खड़े हुए थे और जनता ने अपना मत एकजुटता के पक्ष में डाल दिया था। हमारे समय में राजनीति के घाेडे पर सवार धर्मांधता लगातार बढ़ रही है, पर हिंदी के समाचार माध्यमों या समसामयिक साहित्य में भाषा की अहमकाना जकड़बंदी हावी है। इस वजह से जनता को राष्ट्रवाद या धर्मों के उस अंतरंग रूप के दर्शन नहीं मिल रहे, जिसने भारत को भारत बनाए रखा है। यह लड़ाई दो सदी पहले योरोप में भी लड़ी गई। पर भारत के लिए यह अधिक जटिल है। योरोप में धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व को लोकतांत्रिक राष्ट्रों की रचना के लिए राज्यसत्ता पर से तब महज मध्ययुगीन ईसाइयत की जकड़बंदी को खत्म करना था। भारत की चुनौती यह है कि किस तरह इस जाति-धर्मबहुल देश में हर जाति, मजहब की अपनी पहचान को कायम रखते हुए भी सारे समाज को एक ऐसी राष्ट्रीय पहचान दी जाए, जो जाति-धर्म के ऊपर हो। सवाल सिर्फ हिंदी भाषा के गिर्द खिंची दीवारें गिराने का नहीं, सहज हिंदी के सहारे हिंदी पट्टी की धार्मिक संवेदना और इतिहासबोध की जटिल बनावट को गहरे पैठकर उनको दोबारा समझने-समझाने का है।

 

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