भयंकर कन्फ्यूज़न है

 
नवीन चंद्र तिवारी 
भयंकर कन्फ्यूज़न है । हिंदी में कन्फ्यूजन के लिए कोई अच्छा शब्द ही नहीं मिल रहा है । शब्दकोश में देखा तो – संभ्रम , विभ्रम , उलझन , गड़बड़ , अराजकता इत्यादि मिले फिर लगा कि  सब कुछ मिला दिया जाय तो कन्फ्यूजन बन जाएगा इसलिए यही चुना । न सरकार को पता कि वो कहाँ जाना चाहती है न प्रशासन को पता कि उसे क्या दिशा निर्देश हैं । सरकार के सरकार दिल्ली में हैं और मुखिया अयोध्या चले गए और वहाँ बाबरी ज़मीन पर बैठते ही  जनता के लिए फ़तवा जारी किया है कि सब घर बैठकर नौ  दिन अनुष्ठान करें । अरे जनता तो घर पर ही करती थी,आप ज़रूर गोरखपुर से लखनऊ आकर क्रिया कर्म करने में लगे हैं । 
नवीन चंद्र तिवारी
फ़रमान हुआ कि परचून की दुकानें, दवा की दुकानें और अस्पताल खुले रहेंगे । सुबह सात बजे ही परचून की दुकान पहुंचे वहाँ देखा दुकानदार कराहता हुआ शटर बंद कर रहा था । पूछने पर उसने कहा कि सुबह ये सोचकर दुकान खोली कि एकदम से बहुत भीड़ न लगे लेकिन दरोगाजी ने आकर पहले तो दो डंडे पेशगी रसीद के दिए फिर कहा कि अबे दुकान केवल  आठ से ग्यारह  के बीच खुलेगी और दो हज़ार  रुपए लेकर चले गए । 
हमने सोचा चलो आज अंकल को चिप्स नहीं मिले तो दवाई ले लें । दवाई की दुकान बंद मिली । हमारी दुकान तो पाँच दिन से ही बंद है । ध्यान आया डाक्टर मज़े में होगा उसकी दुकान तो चल ही रही है तो अपने डॉक्टर दोस्त से हाल पूछने के लिए फ़ोन मिलाया । पता चला दो दिन से क्लिनिक बंद है । कारण ? बोले परसों जब क्लिनिक से लौट रहा था तो पुलिस ने रास्ते में रोका । डॉ  ने अपना सिटेथिस्कोप संविधान की तरह हाथ में उठाकर दिखाया तो दरोग़ा ने डंडा । ख़ैर इतनी कि डंडा गाड़ी के बोनट पर ही बजा । दरोग़ा बोले ये सब कुछ नहीं जाना है तो पैदल या साइकिल से जाएँ । डाक्टर को पैदल चलने का बहुत शौक़ है । सुबह जब शुरु होते हैं तो  किलोमीटर का वृत्त पूरा करके ही रूकते हैं ।लेकिन अब तक डॉक्टर की स्वास्थ्य के प्रति सजगता उनकी क़ानून के प्रति आस्था के साथ हवा हो चुकी थी । ये वही डंडा है जिससे चंद अंग्रेजों ने करोड़ों हिंदुस्तानियों की पिद्दी निकाल कर दो सौ  बरस ठाट से राज्य किया था । अंग्रेज चले गए डंडा छोड़ गए डॉक्टर किसी तरह कई कॉलोनियों की परिक्रमा करते हुए घर पहुँचे । तय कर लिया कि कल से क्लीनिक बंद।
 
किसी से मिलने जाने , अचानक दरवाज़ा खटखटाने का चलन तो अब वैसे भी ख़त्म हो चुका है । कुछ व्यावहारिक कारणों और कुछ व्यक्तिगत रिश्तों की संकीर्णता की वजह से अब कहीं बिना फ़ोन किए जाने का रिवाज़ ही नहीं रहा । और अगर कोई दूसरा साल दो साल में कभी ऐसा करे भी तो सुखद आश्चर्य की जगह अब एक दबी शिकायत और बनावटी मुस्कान ने ले ली है । कहाँ ग़लत समय आ धमके , वर्ल्ड कप फ़ाइनल में तो इनकी रूचि नहीं है , विस्की पीते नहीं हैं , ग़रज़ ये कि आज की शाम चौपट । ऐसे हालात में वैसे भी सुबह अख़बार और दिन भर वॉट्सएप  के ज़रिए ही देश समाज दुनिया से तार जुड़े रहते हैं सो आइसोलेशन का दरअसल कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है । 
सामान तो घर में बहुत भरा है लेकिन मन चिर असुरक्षित । इसलिए सोचा चलो आज सुबह के बिग बाज़ार के मैसेज का फ़ायदा उठा कर कुछ सामान फ़ोन पर ही ऑर्डर कर दें । आस पास के आउटलेट्स के जितने नम्बर दिए थे सब मिला दिए पर कहीं कोई उत्तर नहीं । बेसाख़्ता मुँह से दो चार गालियाँ निकल ही जाती हैं । हम हिंदुस्तानी साले फ़ायर पहले करते हैं और निशाना बाद में लगाते हैं । चूतिये ! कुछ और भी ….लेकिन हम पुरानी पीढ़ी के लोग हैं लिखने में कलम अटक जाती है । पढ़ने वाले समझदार हैं मन की गूंज सुनकर समझ लें । 
टी वी खोला , अरे अरे ये बेचारे डिलीवरी बॉय पेट हित से ज़्यादा देशहित का जज़्बा लिए निकल पड़े थे कि तभी राजधर्म का डंडा और प्रशासन की लात ऐसी पड़ी कि खून और आंसू एक होकर बहने लगे । 
भाड़ में जाए नौकरी और चूल्हे में जाए देशवासी । ये टी वी वाले और गिद्धों की तरह घेर रहे हैं हालाँकि साथ ही काली घटा के किनारे रजत रेखा चमकी , मन के एक कोने में ख़ुशी की लहर उमड़ी कि चलो पूरा देश टीवी में हमें देख रहा है । 
इतनी मार तो कोई बड़ी क़ीमत नहीं है एक दिन में ऐसी शोहरत पाने के लिए । कल्पना ने उड़ान भरी जैसे उस रजत रेखा का हार गले में डालने को आसमान बुला रहा हो । प्रिया जब देखेंगी तो ये मुँह जो उसे कभी न भाया , दौड़कर चूम लेगी । कुछ नहीं तो अपने घर के लिए कुछ ज़रूरी राशन की लिस्ट तो दे ही देगी । बरसों की उपेक्षा पल में हवा हो जाएगी । 
घर की दहलीज़ पर जैसे ही कदम रखा लगा स्वप्न जगत की दसवीं मंज़िल से पावर लिफ़्ट से उतर आया । एक झटका और लगा जब याद आया कि इस धक्का मुक्की में घर वाला छोटा थैला और माँ की दवा वहीं कहीं टीवी क्रू के बीच रह गई ! डिलीवरी बॉय यथार्थ की ज़मीन पर पैर घिसटता हुआ बिना सामान और दवा के घर आ गया। 
मैं भी बहुत सोच सोच कर थक गया । याद आया अभी तो इक्कीस  दिन सब कुछ बंद रहेगा । खाने का इंतज़ाम तो बक़ौल गुरु के भगवान ने कर ही दिया पीने का बक़ौल मियाँ गालिब हमें ही करना होता है ! झट अलमारी खोलकर झांका कि कहीं इंतज़ाम में कोई चूक तो नहीं हो गई । विस्की , जिन , वोदका का पर्याप्त स्टाक देखकर राहत की साँस ली । फ्रिज देखा तो दस पाँच बीयर सही तापमान में रखे हैं । लेकिन आज टी वी देखकर टेंशन कुछ ज़्यादा हो गया है हालाँकि ये फिर भी रिपब्लिक टीवी के दंगल से उपजे टेंशन से कहीं कम है । 
आज तो वोडका से ही राहत मिलेगी । एक पटियाला पेग बनाया और नेटफ्लिक्स पर अपना पसंदीदा प्रोग्राम शुरु । तीसरे पेग पर ध्यान आया किसी बड़ी हस्ती ने ठीक ही कहा है – “ शराब इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर हमें खुश देखना चाहता है ।”
अचानक ये प्रश्न मन की गहराइयों से कौंधा – फिर ये कौरोना वायरस क्यों बनाया ? इसी कन्फ्यूजन की मनोदशा में नींद ने आकर मुक्ति का द्वार कुछ घंटों के लिए खोल दिया  ।

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