आलेख : वोटों की राजनीति का एक जरिया है आरक्षण

कहते हैं राजनीति में समय का बड़ा महत्व होता है। कभी-कभी आपकी कही हुई बात से भी ज्यादा अहम यह हो जाता है कि वह किस समय कही गई। आरक्षण के मुद्दे पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान के बारे में यही बात लागू reservation-issue_23_09_2015होती है। क्या बिहार में चुनाव की सरगर्मी न चल रही होती तो भी उनके बयान पर इतना ही विवाद होता? शायद नहीं। इससे एक बात तो कही जा सकती है कि चुनाव के समय किसी गंभीर मसले को उठाना जोखिम का काम है, क्योंकि उससे अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। भाजपा ने उनके बयान से फौरन अपने को अलग कर लिया। संघ की ओर से भी सफाई आ गई कि भागवत के बयान का यह अर्थ नहीं था। फिर भी उम्मीद के मुताबिक लालू प्रसाद ने भाजपा को चुनौती दे दी कि वह आरक्षण हटाकर तो दिखाए।

भागवत के बयान के संदर्भ में आरक्षण पर चर्चा से पहले उस विषय पर चर्चा करना जरूरी है जो इस विवाद से निकला है। यह तो तय है कि चुनाव के समय किसी गंभीर विषय पर बहस मुश्किल है, क्योंकि कोई भी पक्ष विषय के गुण-दोष पर ईमानदारी से चर्चा नहीं करेगा। सबकी नजर उससे चुनावी लाभ उठाने की होगी। इसलिए चुनाव के समय ऐसे विषयों पर बोलने से बचना चाहिए। यह बात राजनेता तो बखूबी समझते हैं, लेकिन जो वोट की राजनीति से सीधे नहीं जुड़े हैं, उनके साथ दिक्कत होती है। भागवत के साथ यही हुआ। उनके बयान से भाजपा को अचानक बचाव की मुद्रा में आना पड़ा।

सवाल केवल चुनाव के समय का ही नहीं है। सवाल है कि क्या अपने देश में किसी भी मुद्दे पर गंभीर बहस की गुंजाइश रह गई है, खास तौर से राजनीतिक दलों में? राजनीतिक दलों को ही दोष क्यों दें, बुद्धिजीवी भी ज्यादातर किसी न किसी राजनीतिक दल के मत का समर्थन या उसकी काट करते नजर आते हैं। आप किसी भी अहम मुद्दे पर लोगों से बात कीजिए – वे निजी बातचीत में जो बोलते हैं, वही बात सार्वजनिक तौर पर नहीं बोलते। संसद में बहस होती नहीं। संसद के बाहर बहस के राजनीतिक खेमेबंदी का शिकार हो जाने की आशंका बनी रहती है। सवाल है कि बहस होगी कहां?

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दो मुद्दे उठाए थे। एक, इस पर विचार होना चाहिए कि आरक्षण की जरूरत किसे है? दूसरा, आरक्षण कब तक जारी रहना चाहिए? उन्होंने यह नहीं कहा कि आरक्षण खत्म कर देना चाहिए। उन्होंने जो मुद्दे उठाए, वे वाजिब हैं। पिछले 65 सालों में आरक्षण का लाभ वंचित तबकों के निचले पायदान पर खड़े लोगों को नहीं मिला है। यह सवाल पिछड़ा वर्ग को आरक्षण मिलने के बाद से ज्यादा उठ रहा है, क्योंकि पिछड़ा वर्ग के आरक्षण का लाभ इस वर्ग की कुछ जातियों तक सीमित हो गया है।

आरक्षण का मसला दिन-ब-दिन एक ऐसी शक्ल अख्तियार करता जा रहा है जिसमें समाज हित की चिंता से ज्यादा वोट की चिंता नजर आती है। राजस्थान सरकार ने गुर्जरों और आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को आरक्षण देने के लिए कोटा 50 से बढ़ाकर 69 फीसद कर दिया है। राजस्थान सरकार के इस कदम का अदालत से खारिज होना तय है। इसलिए वह चाहती है कि केंद्र सरकार संविधान संशोधन करके इसे संवैधानिक सुरक्षा दे। यूपी और हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा और गुजरात में पटेल भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं।

आरक्षण का एक ही पैमाना होना चाहिए कि जो जातियां अस्पृश्यता का शिकार रही हैं, वही इसकी हकदार हों। सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से अच्छी स्थिति वाली जातियां भी अगर आरक्षण के दायरे में आती रहीं तो संविधान निर्माताओं का आरक्षण की व्यवस्था का ध्येय ही बेमानी हो जाएगा। नई-नई जातियों के पिछड़ा वर्ग में शामिल होने का एक और असर यह हो रहा है कि अति पिछड़ी जातियां अब अनुसूचित जाति या जनजाति में शामिल होना चाहती हैं।

अब किसी जाति का चुनाव में समर्थन हासिल करने के लिए आरक्षण एक हथियार बन गया है। राजनीतिक दलों में इसकी होड़ लगी है। इस होड़ से कहीं अगड़ी जाति के मतदाता नाराज न हो जाएं, इसके लिए आर्थिक आधार पर उन्हें भी आरक्षण देने की वकालत राज्यों में अब विधायी प्रस्ताव में बदल गई है। ऐसे हालात में अगर इस मुद्दे पर चर्चा की बात हो रही है तो उसमें बुराई क्या है? आखिर यह आकलन तो होना ही चाहिए कि संविधान बनाने वालों ने जिस मकसद से यह व्यवस्था की थी, वह कितनी कारगर रही? यह भी कि दस साल के लिए की गई व्यवस्था 65 साल में भी अपना लक्ष्य क्यों हासिल नहीं कर पाई? उसकी कमियों को दूर करने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

सदियों से सामाजिक रूप से दबे-कुचले वर्ग को समर्थ बनाने की व्यवस्था मूल समस्या का समाधान करने की बजाय अब खुद एक समस्या बन गई है। समस्या इन वर्गों के लोगों ने नहीं इन्हें वोट बैंक समझने वालों ने बनाई है। वोट बैंक के लिए आरक्षण की राजनीति का घड़ा धीरे-धीरे भर रहा है।

समस्या केवल राजनीति की नहीं है। समस्या सीमित अवसरों की भी है। सरकारी संस्थानों में नौकरी का मामला हो या शिक्षण संस्थाओं में दाखिले का, उपलब्धता की तुलना में मांग बहुत ज्यादा है। नए वर्गों-जातियों की ओर से आरक्षण की मांग और आरक्षण खत्म करने की मांग का सबसे बड़ा कारण यही है। निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर अपेक्षा के अनुरूप नहीं पैदा हो रहे हैं। निजी क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था इतनी महंगी है कि वह अमीरों द्वारा, अमीरों के लिए हो गई है। सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पीछे रह गए लोगों के लिए सरकारी व्यवस्था ही एकमात्र आसरा है।

 

Back to top button