सदाशयता नहीं, सख्ती से ही लगेगी जमाखोरी पर लगाम

tuarpulses_19_10_2015मध्य प्रदेश के खाद्य मंत्री कुंवर विजय शाह ने एक बेबाक वक्तव्य दिया – ‘विभाग द्वारा दाल की कालाबाजारी करने वालों पर की गई कार्रवाई उचित थी। अब यह मुख्यमंत्री की सदाशयता है कि उन्होंने व्यापारियों को तीन दिन की मोहलत दे दी है।” बाजार में आपूर्ति की कमी के चलते तुअर की दाल समेत अन्य दालों के भाव आसमान छू रहे हैं। दालों की कमी का एक प्राकृतिक कारण अवर्षा तो है ही, किंतु दूसरा मानव-निर्मित कारण जमाखोरी भी है। इससे निपटने के लिए सरकार ने व्यापारियों के स्टॉक पर छापेमारी की, जिसमें हजारों क्विंटल दालें जब्त की गई हैं, जो जमाखोरी का जीता-जागता प्रमाण है।

दरअसल हमारे प्रजातंत्र में सरकार किसी भी दल की हो, राजनेताओं को संगठित लॉबियों की बात सुनना ही पड़ती है। व्यापारियों की लॉबी तो संगठित होने के अलावा सशक्त भी है क्योंकि वह पार्टियों को आर्थिक संबल देती है। अत: प्रजातंत्र में सभी लॉबियों के प्रति ‘सदाशयता” रखना पड़ती है। लेकिन क्या कोई भी सरकार उत्पादक, उपभोक्ता व बिचौलिये व्यापारियों के प्रति समान ‘सदाशयता” रखकर सभी के हित समान रूप से सुनिश्चित कर सकती है? इसका जवाब है कि कोई भी सरकार बाजार का विकल्प तो छोड़िए, नियामक भी नहीं बन सकती।

देश के मौसम विभाग ने महीनों पहले संभावित सूखे की घोषणा कर दी थी। कृषि विशेषज्ञों ने दालों सहित अनेक खाद्यान्न के अभाव की चेतावनी भी दी थी। इसके बाद भी केंद्र ने दालों के आयात में देरी क्यों की? दालों का आयात अपर्याप्त मात्रा में क्यों किया गया? आयातित दालें बंदरगाहों पर क्यों पड़ी हैं और राज्य सरकारें अपने कोटे का माल उठाने में तत्परता क्यों नहीं दिखा रही हैं? राजनीतिक या प्रशासनिक नेतृत्व की अक्षमता या नीयत में खोट के कारण यदि बिचौलियों को लंबी अवधि का मौका मिल जाता है तो भला वणिक-वृत्ति लाभ उठाने से क्यों चूकेगी?

हमारे देश में समय-समय पर आलू, प्याज, टमाटर व दालों आदि का अभाव होता है। इस अभाव का ताल्लुक कृषि और उद्यानिकी क्षेत्र में कुप्रबंधन से है। अभाव के मौसम लगभग तय हैं। मौसमी भविष्यवाणी की एक सक्षम आधार संरचना हमारे पास है। केंद्र व राज्यों के पास खाद्य निगम भी हैं। भंडारण की व्यवस्था का दावा भी किया जाता है। फिर इस लंबे-चौड़े लवाजमे की उपलब्धता के बावजूद अभाव की स्थिति क्यों पैदा होती है?

हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे यहां कायदे-कानून तो कठोर हैं, किंतु उनका पालन निहायत पिलपिला है। उदाहरणार्थ हमारे पास एक अत्यंत सशक्त फूड कंट्रोल ऑर्डर है। इस कानून के रहते सरकार को खाद्यान्न्-गोदामों की चेकिंग करके बाजार का नियमन करने का पूरा अधिकार है। लेकिन यह सरकार के ऊपर है कि वह बिचौलियों पर ‘सदाशयता” दिखाती है या उपभोक्ता पर? इसी प्रकार सरकार ने बफर स्टॉक स्टेबिलाइजेशन फंड बनाया है, ताकि अभाव की स्थिति बनने के पहले ही वह बाजार में उपलब्ध हो जाए। हम अभाव पैदा करने वाले इन मूल मुद्दों पर कब विचार करेंगे?

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