संवेदनशील मामले में जिम्मेदार रुख अपनाना जरूरी

dadri-family-l1_11_10_2015ग्रेटर नोएडा के दादरी इलाके के बिसाहड़ा गांव में गोमांस खाने-रखने के संदेह में एक मुस्लिम व्यक्ति की हत्या के मामले में राजनीति थमने का नाम नहीं ले रही है। जहां कुछ दल गोमांस खाने अथवा गोकशी को सामान्य बता रहे हैं, वहीं भाजपा नेता दादरी की घटना की निंदा करते हुए गोकशी पर प्रतिबंध की वकालत कर रहे हैं। वे अन्य दलों के नेताओं को यह चुनौती भी दे रहे हैं कि क्या वे गोकशी को सही ठहराने के लिए तैयार हैं? इसके जवाब में भाजपा विरोधी दल यह साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं कि दादरी में जो कुछ हुआ, उसके लिए भाजपा ही जिम्मेदार है और वह समाज के ध्रुवीकरण की कोशिश कर रही है।

गाय को लेकर सांप्रदायिक टकराव की घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं, लेकिन दादरी की घटना पर जैसा राजनीतिक भूचाल खड़ा हुआ, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण विपक्षी दलों के साथ-साथ मीडिया के एक हिस्से का जानबूझकर यह साबित करने का प्रयास रहा कि दादरी की घटना एक सुनियोजित साजिश का परिणाम थी। दादरी की शर्मनाक घटना को लेकर की जा रही बयानबाजी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के साथ ही टीवी चैनलों पर लगातार बहस के जरिये यह साबित करने की भी कोशिश की जा रही है कि भाजपा और उससे जुड़े संगठन सामाजिक माहौल को खराब करने में लगे हैं। बिहार के चुनाव को देखते हुए विपक्षी दलों को भी दादरी का मामला राजनीतिक दृष्टि से फायदेमंद नजर आ रहा है। वे खुद को समुदाय विशेष का हितैषी साबित करने की अतिरिक्त कोशिश कर रहे हैं।

लगता है राजनीतिक दल यह समझने को तैयार नहीं कि अब आम मतदाता उनके हथकंडों को अच्छे से समझने लगा है। वे राजनीतिक दलों की वैसी कोशिशों के प्रति सचेत रहते हैं, जैसी दादरी कांड व गोमांस को लेकर हो रही है। उनके लिए रोजी-रोटी और विकास के प्रश्न कहीं अधिक अहम हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री बिहार की अपनी चुनावी रैली में यही बोले कि हमें एक-दूसरे से नहीं, बल्कि गरीबी जैसी समस्याओं से लड़ना चाहिए। प्रधानमंत्री के अलावा उनके अनेक मंत्री और भाजपा के अन्य बड़े नेता भी दादरी की घटना की भर्त्सना कर चुके हैं, लेकिन विपक्ष और मीडिया का एक धड़ा मोदी सरकार पर लगातार सवाल खड़े कर रहा है। यह जरूरी नहीं कि प्रधानमंत्री हर मामले पर अपनी प्रतिक्रिया दें। राजनीति में माहिर प्रधानमंत्री यह जानते हैं कि उनकी बातों को राजनीतिक लाभ के लिए किस तरह तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है। वैसे भी यह स्पष्ट है कि दादरी की घटना पर प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया चाह रहे विपक्षी नेताओं का मकसद उनकी घेरेबंदी ही करना था।

देश यह विस्मृत नहीं कर सकता कि नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों के संदर्भ में किस तरह एक दशक से ज्यादा समय तक लगातार घेरा जाता रहा, इसके बावजूद कि न तो कभी उनके खिलाफ कभी कोई मामला दर्ज हुआ और न ही किसी अदालत ने उनके खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी की। यह विचित्र है कि उनकी हर टिप्पणी को सांप्रदायिकता के चश्मे से ही देखा जाता है और उनकी आरएसएस से जुड़ी पहचान को उभारने की कोशिश की जाती है। मोदी की संघ की पृष्ठभूमि अवश्य है, लेकिन वह अपनी इच्छा से भाजपा में शामिल हुए और अपनी योग्यता के आधार पर राजनीति में आगे बढ़ते गए। भाजपा के एजेंडे में तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिनका संबंध भारतीयता और देश की सांस्कृतिक विरासत से है। भाजपा के नेतृत्व से लेकर जमीनी कार्यकर्ताओं तक को अपनी पार्टी की रीति-नीति पर गर्व है। प्रधानमंत्री खुद भी भाजपा की इस रीति-नीति से गहरे सरोकार रखते हैं।

भाजपा की नीति में यह कहीं नहीं आता कि अन्य समाज और धर्मों के लोगों को भारत में जगह न मिले या उनके साथ किसी तरह का दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाए। खुद मोदी कई बार सामाजिक सद्भाव के संदर्भ में यह कह चुके हैं कि उनका मंत्र है भारत सबसे पहले और संविधान ही उनका सबसे बड़ा ग्रंथ है। मोदी के पहले राजग सरकार का संचालन करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी को उनके उदार और सहिष्णु विचारों के लिए जाना जाता था और अपनी इसी छवि के आधार पर वह लगभग दो दर्जन दलों वाली साझा सरकार का नेतृत्व करने में सफल रहे। वाजपेयी भी संघ पृष्ठभूमि वाले थे, लेकिन इससे प्रधानमंत्री के रूप में उनके कामकाज पर कभी कोई असर नहीं पड़ा।

वास्तव में मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठने वाले राजनेता की सोच में बहुत अंतर आ जाता है। उसके लिए अपने दल की विचारधारा से अधिक राज्य अथवा देश के सभी नागरिकों के कल्याण की भावना अहम होती है।

राजनीतिक दलों को सामाजिक सद्भाव के लिए प्रयास करने के साथ ही गोकशी जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी किसी एक राय पर पहुंचना होगा। उन्हें इस मामले पर व्यर्थ की बयानबाजी के बजाय इस पर विचार करना चाहिए कि कैसे हिंदू-मुस्लिम समुदायों की धार्मिक मान्यताएं और रीति-रिवाज एक-दूसरे के आड़े न आने पाएं। हर देश की अपनी कुछ मान्यताएं होती हैं। गाय की पूजा भारत में ऐसी ही एक मान्यता है। अगर इस मान्यता को चोट पहुंचेगी तो सामाजिक विभाजन होगा। आधुनिकता अपनी जगह है, लेकिन इसकी आड़ में हमारी सामाजिक मान्यताओं का निरादर अच्छी बात नहीं है।

दो धर्मों के बीच वैमनस्य अथवा तनाव केवल भारत में नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की कहानी है। पर क्या ऐसी हरेक घटना के लिए संबंधित देश के राजनीतिक नेतृत्व को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है? अगर मीडिया अनुचित रूप से किसी मामले को तूल देता है या फिर विपक्षी दल व्यर्थ का बखेड़ा करते हैं तो यह जरूरी नहीं कि सरकार में शामिल हर व्यक्ति उस पर प्रतिक्रिया दे। औसत भारतीय समाज धार्मिक मसलों पर कितना संवेदनशील है, यह किसी से छिपा नहीं। इन स्थितियों में सभी दलों और खासकर संस्कृति को विशेष महत्व देने वाले दलों के नेतृत्व के लिए यह जरूरी है कि वे अपने कार्यकर्ताओं-समर्थकों को प्रतिकूल हालात में भी संयम बरतने की सीख देते रहें।

इससे ही स्थितियां बदलेंगी। जहां तक सरकार की बात है, उससे यही अपेक्षित है कि अगर कभी किसी वजह से समाज में कोई तनाव उत्पन्न् हो जाए या सामाजिक ताने-बाने को क्षति पहुंचाने वाली कोई घटना घट जाए तो उसकी ओर से तत्काल कदम उठाए जाएं। विरोधी दलों व मीडिया से भी यही अपेक्षित है कि वे आग को भड़काने के बजाय उसे शांत करने का प्रयास करें।

दादरी की घटना में ज्यादातर विपक्षी दल और मीडिया का एक हिस्सा ठीक इसका उल्टा करता दिखा। जिस गांव में यह घटना हुई वहां के लोगों ने जिस तरह ईद और दिवाली साथ मनाने का फैसला किया और यह कहा कि हम साथ रहते रहे हैं और आगे भी रहेंगे, उसे विपक्षी दलों को भी सुनना चाहिए और मीडिया को भी।

 

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