संपादकीय : मुंबई ट्रेन कांड फैसले से दहशतगर्दों को सबक

justicegavel_30_09_2015मुंबई पुलिस के आतंकवाद विरोधी दस्ते (एटीएस) की मुक्तकंठ से प्रशंसा होनी चाहिए। 2006 के सिलसिलेवार ट्रेन बम धमाकों में वह न सिर्फ कोर्ट में मुजरिमों का दोष साबित करने में सफल रहा, बल्कि उनमें से 5 आतंकियों को कठोरतम दंड यानी सजा-ए-मौत दिलवाने में भी कामयाब रहा है। इससे भारत में खूनखराबा करने पर आमादा दहशतगर्दों को माकूल सबक मिलेगा। इससे यह संदेश जाएगा कि सीमापार रची गई साजिशों को बेनकाब करने में भारत की जांच एजेंसियां सक्षम हैं। साथ ही मुंबई के मकोका कोर्ट का फैसला अभियोजन पक्ष की कार्यकुशलता का प्रमाण भी है।

इससे जाहिर हुआ है कि हमारी आपराधिक न्याय व्यवस्था में देर संभव है, लेकिन राष्ट्रविरोधी अपराधी इससे चैन की सांस नहीं ले सकते। ट्रेन बम कांड में अभियोजन पक्ष 12 मुजरिमों के खिलाफ दोष साबित करने में सफल रहा। उनमें से सात को उम्रकैद सुनाई गई है। इन लोगों ने 11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों में सात जोरदार धमाके किए, जिनमें 189 लोग मारे गए और 800 से अधिक मुसाफिर घायल हुए थे।

ऐसे आतंकवादी हमलों में अपराधियों तक पहुंचना आसान नहीं होता। लेकिन एटीएस न केवल उन तक पहुंचा, बल्कि जिन 13 लोगों पर उसने केस चलाया, उनमें से 12 के खिलाफ ऐसे विश्वसनीय साक्ष्य जुटाने में वह सफल रहा, जो अदालत में अकाट्य सिद्ध हुए। नतीजतन, न्यायालय ने उन लोगों को दोषी ठहराया। उन लोगों पर षड्यंत्र रचने, साजिश को अमलीजामा पहनाने के लिए विस्फोटक और अन्य संसाधन जुटाने और फिर ट्रेनों में बम रखने के आरोप साबित हुए। साथ ही पुष्टि हुई कि इस निर्मम कार्रवाई के पीछे पाकिस्तान में संरक्षण पाए आतंकवादियों का हाथ था।

एटीएस ने लश्कर-ए-तैयबा के कमांडर आजम चीमा को इस साजिश का सरगना बताया था। उसके निर्देशन में दोषी ठहराए गए कुछ भारतीय पाकिस्तान गए। वहां हमले को अंजाम देने की ट्रेनिंग ली। बाद में उनके साथ कुछ पाकिस्तानी दहशतगर्द भी भारत आए। आखिरकार उन सबने मिल-जुलकर ट्रेन बम कांड को अंजाम दिया। उस घटना ने देश के मनोविज्ञान को चोटिल किया था। अपराधी गिरफ्त में नहीं आते, तो देशवासियों में लाचारी का भाव पैदा होना लाजिमी ही था।

लेकिन एटीएस के साथ-साथ अभियोजन पक्ष ने ऐसा नहीं होने दिया है। उलटे अब बारी आतंकवादियों के भयाक्रांत होने की है। उनके लिए संदेश साफ है। भारतीय राष्ट्र और इसके ठिकानों पर हमला कर वे महफूज नहीं बने रह सकते। यह जरूर है कि उन्हें सजा सुनाए जाने में नौ साल लग गए। अभी उच्चतर न्यायपालिका के रास्ते उनके सामने खुले हुए हैं। यानी वास्तव में सजा होने में अभी और वक्त लगेगा। बेशक भारतीय न्याय व्यवस्था की इस खामी को दूर करने की जरूरत है। इसके बावजूद फिलहाल हम सबके लिए मौका संतुष्ट होने का है।

 
 
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