शरीर के बाहर इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी होता है, वह शरीर में प्रकट होता है!

दिसंबर में उत्तरायण की शुरुआत से ले कर जून में दक्षिणायन तक के साल को ज्ञान पद कहा जाता है। यह मानवीय क्षमताओं को अर्जित करने का समय होता है।22 दिसम्बर से 21 जून तक अक समय उत्तरायण के नाम से जाना जाता है। इस समय पृथ्वी के सन्दर्भ में सूर्य की गति उत्तर दिशा में हो जाती है। जानते हैं कि ऐसा होने पर शरीर में ऊर्जा ऊपर के चक्रों में प्रबल हो जाती है!उत्तरायण का समय – 22 दिसम्बर-

हमारी संस्कृति और दुनिया में लगभग हर संस्कृति (मिश्र, यूनान और ग्रीक) साल में इन चार घटनाओं -अयनांत (सॉलस्टिस), संपात (इक्वीनॉक्स), अयनांत, संपात – पर विशेष रूप से आधारित है।गौतम ने भी उत्तरायण के बाद की तीसरी पूर्णिमा को अंतर्ज्ञान प्राप्त किया। और भारत में ऐसे ऋषियों, साधुओं, सिद्धपुरुषों और योगियों के अनगिनत उदाहरण हैं, जिन्होंने इस दौरान अपना नश्वर शरीर छोड़ा।योगिक परंपरा में यह एक बड़ा महत्वपूर्ण पहलू है। अभी फिलहाल हम उत्तरायण के कगार पर हैं, जब पृथ्वी की स्थिति के अनुसार सूर्य की गति दक्षिण से उत्तर की ओर हो जाती है। वैसे देखा जाए, तो सूर्य कहीं नहीं जाता। ब्रह्मांडीय व्यवस्था के संदर्भ में होता यह है कि 22 दिसंबर को होने वाले अयनांत को सूर्य मकर रेखा पर होता है। उस दिन के बाद से अगर आप सूर्योदय और सूर्य की गति पर नजर रखें, तो पाएंगे कि धीरे-धीरे वह उत्तर की ओर जा रहा है। दिसंबर में उत्तरायण की शुरुआत से ले कर जून में दक्षिणायन की शुरुआत तक के इस आधे साल को ज्ञान पद कहा जाता है।

पृथ्वी पर होने वाली हर घटना का असर होता है-

मनुष्य पृथ्वी पर होने वाली किसी भी घटना से अछूता नहीं रह सकता। मैं यह बात सिर्फ पर्यावरण की दृष्टि से ही नहीं कह रहा हूँ, क्योंकि आप जिसे “मैं” कहते हैं, वह तो दरअसल इस धरती का टुकड़ा मात्र है, जो धरती से कहीं ज्यादा संवेदनशील और बहुत ज्यादा ग्रहणशील है।अगर मानवीय शरीर को एक खास स्तर की तीव्रता और संवेदनशीलता तक ले जाया जाए तो वह अपने आप में ब्रह्मांड है। शरीर के बाहर इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी होता है, वह सूक्ष्म रूप से शरीर में प्रकट होता है।जाहिर है, ऐसे में इस ग्रह पर जो कुछ भी घटित होगा, उसका हजार गुना ज्यादा असर मानव तंत्र पर होगा।

इसका अनुभव और इस्तेमाल करने के लिए बस आपके भीतर थोड़ी सी संवेदनशीलता और ग्रहणशीलता होनी जरूरी है। कई लोग अनजाने में इस चीज का उपयोग कर रहे हैं, उन्हें यह पता ही नहीं होता कि वे क्या कर रहे हैं। अनजाने में, लोग किसी खास दिन किसी खास तरह का बरताव करने लगते हैं। हर इंसान, वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, फिर चाहे वह प्रसिद्ध खिलाड़ी हो, कलाकार हो, संगीतकार हो, राजनेता हो या बुद्धिजीवी, किसी खास दिन किसी खास समय पर किसी अज्ञात कारण से बहुत अच्छा प्रदर्शन करता है। और फिर वही व्यक्ति किसी अज्ञात कारण से किसी और दिन वैसा प्रदर्शन नहीं कर पाता, जैसा उस ने किसी खास मौके पर किया था। इसकी वजह सिर्फ आप ही नहीं है। दरअसल, यह ग्रह और इसके पूरे तंत्र की परिक्रमा आपको प्रभावित करती है।

उत्तरायण और दक्षिणायन में अंतर-

पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरायण का समय तृप्ति या पूर्णता का होता है, जबकि दक्षिणायण का समय ग्रहणशीलता का होता है।ब्रह्मांडीय व्यवस्था के संदर्भ में होता यह है कि 22 दिसंबर को होने वाले अयनांत को सूर्य मकर रेखा पर होता है। उस दिन के बाद से अगर आप सूर्योदय और सूर्य की गति पर नजर रखें, तो पाएंगे कि धीरे-धीरे वह उत्तर की ओर जा रहा है। इस चीज को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि साल का पहले आधे हिस्से यानी जनवरी से जून तक के समय को पौरुष या मर्दाना माना जाता है, जबकि दक्षिणायण के समय को स्त्रैण माना जाता है।

पृथ्वी के लक्षण जब पौरुष से बदलकर स्त्रैण हो जाते हैं तो वह समय साधकों के लिए बहुत अच्छा माना जाता है, क्योंकि इस दौरान हम साधना पद में प्रवेश कर जाते हैं, जहां ग्रहणशीलता बहुत अच्छी होती है। इस तरह से हम देखते हैं कि उत्तरायण और दक्षिणायण का मानवीय तंत्र और उसके कार्यों पर खासा प्रभाव पड़ता है। आध्यात्मिक साधक अपनी साधना को उसी दृष्टि से साधते हैं। जब सूर्य उत्तर की ओर होता है तो वे एक तरह की साधना करते हैं और जब सूर्य दक्षिण की ओर होता है तो वे दूसरे तरह की साधना करते हैं।

विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार चक्रों में ऊर्जा चढ़ती है-

सूर्य के दक्षिण में होने से अनाहत चक्र के नीचे के हिस्से का शुद्धिकरण आसानी से होता है। जब सूर्य उत्तर में होता है तो अनाहत चक्र के ऊपरी हिस्से में बड़ी सरलता से कार्य होता है।इस चीज को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि साल का पहले आधे हिस्से यानी जनवरी से जून तक के समय को पौरुष या मर्दाना माना जाता है, जबकि दक्षिणायण के समय को स्त्रैण माना जाता है। अगर आप इन चक्रों को देखें तो इनके दो अलग-अलग आयाम होते हैं। अनाहत के निचले हिस्से में मणिपूरक, स्वाधिष्ठान और मूलधार केंद्र होते हैं, जो शरीर का संतुलन बनाने के साथ-साथ इसमें स्थिरता भी लाते हैं। यही पृथ्वी का गुण धर्म भी है। ये आपको पृथ्वी की तरफ खींचते हैं। यही इनकी प्रकृति है। आप अपनी जितनी ज्यादा ऊर्जा तीनों चक्रों पर केंद्रित करेंगे, उतना ही आपके गुण-धर्म पृथ्वी की तरह होते जाएंगे और आप उतने की प्रकृति के अधीन होते जाएंगे।

जबकि अनाहत के ऊपर विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार चक्र होते हैं, जो आपको ऊपर की ओर ले जाते हैं। अगर आपकी ऊर्जा इन केंद्रों में प्रबल हो जाती है तो यह आपको पृथ्वी से दूर खींचेगी। यह तीनों केंद्र आपको एक और शक्ति से जोड़ते हैं, जिसे आम तौर पर ग्रेस या कृपा कहा जाता है। कृपा आपको हमेशा पृथ्वी से दूर ले जाने की कोशिश करती है। तो निचले तीन केंद्र और ऊपर के तीन केंद्रों के बीच में अनाहत चक्र होता है। पहले तीन आपको पृथ्वी की ओर खींचते हैं जबकि ऊपरी तीन चक्र आपको पृथ्वी से दूर ढकेलते हैं। अनाहत इन दोनों के बीच संतुलन का काम करता है।

उत्तरायण अंतर्ज्ञान पाने का समय है-

उत्तरायण अंतर्ज्ञान पाने के लिए है। यह अनंत और परम को पाने का समय है; खास तौर से संपात तक का इसका पहला आधा भाग जो मार्च में आता है।सूर्य के दक्षिण में होने से अनाहत चक्र के नीचे के हिस्से का शुद्धिकरण आसानी से होता है। जब सूर्य उत्तर में होता है तो अनाहत चक्र के ऊपरी हिस्से में बड़ी सरलता से कार्य होता है। यह वह समय है, जब अधिकतम कृपा उपलब्ध होती है, या कहा जाए तो इस दौरान मानव प्रणाली कृपा पाने के लिए किसी और समय से ज्यादा ग्रहणशील होती है। आध्यात्मिक इतिहास हमें बताता है कि ज्यादातर लोगों ने सूर्य के उत्तरी गोलार्ध वाले इस दौर में ही अंतर्ज्ञान पाया। आध्यात्मिक रूप से जाग्रत लोगों ने इस संक्रांति को हमेशा मानव चेतना में खिलने की संभावना के रूप में पहचाना है। सर्वाधिक प्रसिद्ध कथाओं में से एक भीष्म की है, जो कई हफ़्तों तक बाणों की शय्या पर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे।

बहुत गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद उन्होंने उत्तरायण आने तक अपने प्राण नहीं छोड़े, क्योंकि अपना शरीर छोडऩे के समय में वे प्रकृति के इस संक्रांति काल का लाभ लेना चाहते थे। गौतम ने भी उत्तरायण के बाद की तीसरी पूर्णिमा को अंतर्ज्ञान प्राप्त किया। और भारत में ऐसे ऋषियों, साधुओं, सिद्धपुरुषों और योगियों के अनगिनत उदाहरण हैं, जिन्होंने इस दौरान अपना नश्वर शरीर छोड़ा।

उत्तरायण – फसल-कटाई और ज्ञान प्राप्ति का समयउत्तरायण फसल काटने का समय होता है और इसी लाभ को देखते हुए खेतों में फसल की कटाई शुरू होती है। पोंगल और संक्रांति फसल-कटाई के पर्व होते हैं।दिसंबर में उत्तरायण की शुरुआत से ले कर जून में दक्षिणायन की शुरुआत तक के इस आधे साल को ज्ञान पद कहा जाता है। इसलिए यह सिर्फ फसल काटने का समय नहीं, बल्कि मानवीय क्षमताओं को अर्जित करने का भी समय होता है। अगर मानवीय शरीर को एक खास स्तर की तीव्रता और संवेदनशीलता तक ले जाया जाए तो वह अपने आप में ब्रह्मांड है। शरीर के बाहर इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी होता है, वह सूक्ष्म रूप से शरीर में प्रकट होता है। हालांकि यह हरेक व्यक्ति के साथ होता है, बस ज्यादातर लोग इसे समझ नहीं पाते।

अगर इंसान बाहर होने वाली घटनाओं और गतिविधियों के प्रति जागरूक होकर उसका तालमेल अपने भीतर चल रही गतिविधियों से कर लेता है तो इस मानवीय तंत्र को थोड़ा और अधिक सुव्यवस्थित व उद्देश्यपूर्ण बनाया जा सकता है। अगर आप चाहते हैं कि आपका यह हाड़-मांस का शरीर ब्रह्मांडीय शरीर के गुणों को ग्रहण करें तो आपके लिए दक्षिणायण और उत्तरायण की गतिविधियों को समझना और उनके साथ तालमेल बैठाना बेहद जरूरी है।दिसंबर में उत्तरायण की शुरुआत से ले कर जून में दक्षिणायन की शुरुआत तक के इस आधे साल को ज्ञान पद कहा जाता है। पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरायण का समय तृप्ति या पूर्णता का होता है, जबकि दक्षिणायण का समय ग्रहणशीलता का होता है।

 

Back to top button