लॉक डाउन से ही होगा कोरोना लॉक

शबाहत हुसैन विजेता
कोरोना की महामारी से दुनिया में कोहराम है। ताकतवर मुल्क घुटनों पर झुके हुए हैं। तमाम मुल्कों के साथ हिन्दुस्तान को भी इस महामारी ने बख्शा नहीं है। यह महामारी हिन्दुस्तान में क्योंकि कई मुल्कों को अपने पाँव तले रौंदती हुई दाखिल हुई है इसलिए हिन्दुस्तान के सामने दूसरे मुल्कों में की गई कोशिशें और उन कोशिशों का अंजाम भी सबक लेने के लिए था।
सरकार ने दूसरे मुल्कों की उन कोशिशों को फ़ौरन अपनाया जो इस महामारी से निबटने के लिए सबसे कारगर हथियार साबित हुई थीं।
कोरोना से निबटने का सबसे कारगर हथियार है लॉक डाउन. यह संक्रामक बीमारी है. इंसान से इंसान में फैलती है इसलिए सबसे ज़रूरी है मूवमेंट रोकना. जो जहाँ है उसका वहीं ठहर जाना. भारत सरकार ने यही किया, जो जहाँ था उसे वहीं रोक देने की पहल की. पूरे मुल्क का चक्का जाम कर दिया.
ट्रेनें तक रोक दीं. सड़कों पर सन्नाटा छा गया. लोगों के घरों से निकलने पर रोक लगा दी गई. दुनिया की दूरियों को कम करने में माहिर जहाज़ पंख कटे पक्षियों की तरह हवाई अड्डों पर खड़े कर दिए गए.
लॉक डाउन का नतीजा भी अच्छा ही नज़र आ रहा है। जिस रफ़्तार में दुनिया के दूसरे देशों में यह महामारी बहुत तेज़ी से फ़ैल रही है उसे देखते हुए भारत में मरीजों के बढ़ने की रफ़्तार बहुत कम है। अब तक की कोशिशें रंग लाई हैं लेकिन अब लापरवाही का चैप्टर भी जुड़ने जा रहा है। यह चैप्टर क्या गुल खिलायेगा इसे आने वाला वक्त ही बतायेगा।
दरअसल लॉक डाउन के बाद जब सब कुछ बंद हो गया है तो मजदूरों को काम मिलना भी बंद हो गया है। बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के गरीब लोग मजदूरी करने के लिए दिल्ली, पंजाब और मुम्बई जाते रहे हैं। काम बंद हो गया है तो मजदूरों के सामने भूखों मरने किन नौबत आ गई है।

लॉक डाउन हो गया है तो रफ़्तार भी थम चुकी है।मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए न ट्रेन है न बस। मजदूरों ने सैकड़ों किलोमीटर का सफ़र पैदल ही शुरू कर दिया है। सन्नाटी पड़ी सड़कों पर मजदूरों की पैदल भीड़ आबाद करती नज़र आ रही है।
सड़कों पर चलती यह पैदल भीड़ सोशल मीडिया पर फ़िक्र का मुद्दा बनी है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इन मजदूरों को बसों के ज़रिये उनके घर पहुंचाने का बीड़ा भी उठा लिया है। यह काम शुरू भी हो गया है।
मजदूरों को लेकर जा रही सरकारी बसें कहीं संक्रमण फैलाने की वजह तो नहीं बनने जा रही हैं यह सवाल आने वाले वक्त में ज़रूर उठेगा। सवाल यह है कि जब लॉक डाउन हो गया है तो फिर इन मजदूरों को भीड़ की शक्ल में सड़क पर चलने की इजाज़त आखिर क्यों है? मजदूर जिस सूबे में है, उस सूबे की सरकार की ज़िम्मेदारी है कि इमरजेंसी में उसके रहने और खाने का इंतजाम भी वह करे।

सड़क पर पैदल चलने को मजबूर यह मजदूर काम नहीं रहने और पैसा खत्म हो जाने की वजह से ही तो पैदल जाने को मजबूर हुए हैं। इन मजदूरों को अगर लॉक डाउन की वजह से खाली पड़े स्कूलों में ठहराकर अगर उनके खाने का इंतजाम कर दिया गया होता तो सड़कों पर पैदल चल रहे मजदूर आराम से ठहर गए होते।
सवाल यह है कि इन मजदूरों में अगर कोई एक भे संक्रमण का शिकार है तो वह लगातार संक्रमण फैलाता हुए इस सूबे से उस सूबे में चक्कर लगाता जा रहा है. उसे एक जगह ठहरा दिया जाए तो एक तरफ संक्रमण आगे बढ़ने से रुक जाएगा तो दूसरी तरफ अगर उसमें संक्रमण दिखेगा तो उसे सरकार आसानी से आइसोलेट भी कर पायेगी।
कोरोना से निबटने के लिए भारत सरकार ने भी अपना खजाना खोला है और उद्योगपतियों ने भी काफी मदद की है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का दावा है कि वह चार लाख लोगों का रोजाना खाने का इंतजाम कर रहे हैं। तो फिर इन मजदूरों के खाने का इंतजाम होने में कहाँ दिक्कत है। इस सवाल का हल ज़रूर निकलना चाहिए।

दिल्ली के मुख्यमंत्री का चार लाख लोगों को खाना खिलाने का दावा अचानक तब दम तोड़ देता है जब दिल्ली से मुरैना पैदल जा रहा रणवीर रास्ते में भूख और थकान की वजह से दम तोड़ देता है। झांसी के पत्रकार संतोष पाठक के अनुसार काम बंद हो जाने के बाद रणवीर को किराने वाले ने खाने का सामान उधार देना बंद कर दिया था और मकान मालिक बगैर किराया दिए अपने घर में रखने को तैयार नहीं था।
पेट भरने की उम्मीद और सर की छत दोनों छिन जाने के बाद आखिर रणवीर क्या करता। वह पैदल ही दिल्ली से मुरैना के लिए निकल पड़ा और रास्ते में थकान और भूख की वजह से उसकी जान चली गई।

सड़कों पर पैदल जा रहे मजदूर सन्नाटी सड़कों पर क्या सुरक्षित हैं यह भी बहुत बड़ा सवाल है। एक युवा मजदूर अपनी पत्नी को कंधे पर बिठाकर पैदल चल रहा है क्योंकि उसकी पत्नी के पैर में फ्रैक्चर हो गया है और वह अपने पैरों पर खड़ी भी नहीं हो सकती। सवाल यह है कि अपनी पत्नी को कंधे पर बिठाकर क्या कोई नौजवान कई सौ किलोमीटर का सफ़र तय कर सकता है।
सड़कों पर छोटे-छोटे तमाम बच्चे भी पैदल चल रहे हैं। यह बच्चे आखिर कितनी दूरी तय कर पायेंगे। सड़कें बड़ी बेरहम होती हैं। वह आखिर कब तक इन्हें सुरक्षित चलने देंगी। मुम्बई अहमदाबाद हाइवे पर 28 मार्च को एक तेज़ रफ़्तार टैम्पो ने 7 मजदूरों को कुचल दिया। 4 मजदूरों की मौके पर ही मौत हो गई जबकि 3 की हालत खराब है।

सवाल यह है कि इन मजदूरों को सड़कों पर पैदल चलने ही क्यों दिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश की सरकार इन मजदूरों को अपनी सरकारी बसों से मुफ्त लेकर चल पड़ी है लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने सवाल उठा दिया है कि अगर उन मजदूरों को आने दिया तो लॉक डाउन का क्या मतलब रह जाएगा।

तो सवाल यह है कि दिल्ली से बिहार सीमा तक उत्तर प्रदेश की जो बसें लेकर आयेंगी वह मजदूरों को कहाँ छोड़ेंगी? बिहार सरकार जब उन्हें लेने से इनकार करेगी तो ज़ाहिर है कि यूपी सरकार को उन्हें यूपी में ही कहीं रोकना पड़ेगा। यही काम दिल्ली में भी तो हो सकता था।
बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने जो सवाल उठाया है वह गलत भी नहीं है।उन मजदूरों को ले लिया तो फिर लॉक डाउन का क्या मतलब रह जाएगा। एक भी मजदूर संक्रमित हुआ तो उसका पता कैसे चलेगा। हज़ारों मजदूरों को लेकर कोई भी सरकार उन्हें आइसोलेशन में नहीं रख सकती। वह जहाँ हैं वहीं रोककर महामारी को ज़रूर रोका जा सकता है।
नेपाल सरकार ने अपनी सीमाएं बंद कर अपने नागरिकों को लेने से भी इनकार कर पूरी दुनिया के सामने यह सन्देश भेज दिया है कि कोरोना को जहाँ का तहां रोकना है तो लॉक डाउन के मतलब को समझना होगा।

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