यूपी विधानसभा अध्यक्ष का एक्‍सक्‍लूसिव इंटरव्‍यू, सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच संवाद जरूरी

यूपी विधानसभा अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित विधानसभा अध्यक्ष के संवैधानिक पद पर आसीन होने से पहले प्रदेश के संसदीय कार्य और कई विभागों के कैबिनेट मंत्री रहे हैं। वे आठ विधानसभा चुनाव लडऩे वाले तपे-तपाए राजनेता ही नहीं बल्कि एक विद्वान लेखक और साहित्यकार भी हैं। उनकी गिनती देश के जाने-माने साहित्यकारों और लेखकों में होती है। रविवार को कुछ फुर्सत के क्षण उन्होंने विश्ववार्ता समाचार पत्र समूह के लिए निकाले। अपने माल एवेन्यू स्थित सरकारी आवास पर विधानसभा अध्यक्ष श्री दीक्षित ने विश्ववार्ता ग्रुप के राज्य ब्यूरो प्रमुख गोलेश स्वामी से संसदीय परंपराओं से लेकर चुनावी राजनीति तक पर खुलकर बातचीत की। पेश है विधानसभा अध्यक्ष श्री दीक्षित से बातचीत के खास अंश-
ब्रिटेन ने लोकसभा अध्यक्ष और विधानसभा अध्यक्षों की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए एक व्यवस्था तय की कि जब लोकसभा अध्यक्ष या विधानसभा अध्यक्ष चुनाव लडऩे जाएंगे तो उनके खिलाफ कोई अन्य प्रत्याशी खड़ा नहीं होगा। उसे सर्वसम्मति से चुना जाता है। हमारे देश के वातावरण में ऐसा संभव नहीं हो पाया है। हालांकि संविधान ने लोकसभा अध्यक्ष, विधानसभा अध्यक्ष और विधान परिषद के सभापति को दल-बदल कानून से ऊपर रखा है। वे दल-बदल कानून के दायरे में नहीं आते। वे जब चाहें अपना दल बदल सकते हैं। दल-बदल करने पर अध्यक्ष की सदस्यता नहीं जाती।

पहले जनता की समस्याओं के लिए आंदोलन करने वाले, लिखने-पढऩे वाले, उनके लिए जेल जाने वाले और बिना किसी पद के सक्रिय रहकर जनता के लिए काम करने वाले चुनाव लड़ते थे। ऐसे लोगों को जनता हाथों-हाथ लेती थी। पैसे भी देती थी। मैं ने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1985 में चुनाव लड़ा। संसाधनों के नाम चार पहिया भी नहीं, एक मोटर साइकिल थी। लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति से चली कांग्रेस की आंधी में भी मैं चुनाव जीत गया। इसका मुख्य कारण था मेरा जनता के लिए किया गया संघर्ष व आंदोलन।
कोरोना काल में देश के किसी राज्य की विधानसभा या विधान परिषद का सत्र नहीं हुआ था। हां, राजस्थान और मध्य प्रदेश विधानसभा ने जरूर विश्वासमत के लिए एक दिन से भी कम समय के लिए संक्षिप्त बैठकें बुलाई थीं। ऐसी स्थिति में तीन दिन का सत्र बुलाना बड़ी चुनौती थी। खासकर विधायकों को कहां, कैसे बिठाया जाएगा। सीटों की कठिनाई थी। इसलिए उनके बैठने की व्यवस्था लाबी में भी की गई। उनके सामने इससे भी बड़ी चुनौती विधायकों और खुद को संक्रमण से बचाने की थी। विधायकों को कोरोना टेस्ट का सुझाव दिया गया और उसकी व्यवस्था भी की गयी। इसमें सभी ने सहयोग दिया। यूपी विधानसभा देश की पहली विधानसभा है, जिसके सभी माननीयों और विधानसभा सचिवालय के सभी 600 अधिकारियों और कर्मचारियों ने सत्र से पहले अपना कोरोना टेस्ट कराया।
कोरोना काल में यूपी विधानसभा का मानसून सत्र आपने अच्छे से निपटाया, इसके लिए आपको बधाई। यह सही है कि इस सत्र को बुलाना संवैधानिक अनिवार्यता थी, लेकिन इससे लोकतंत्र को क्या हासिल हुआ?
यूपी विधानसभा के इस सत्र से पूरी दुनिया में यह संदेश गया कि भारत संसदीय परंपराओं के प्रति कितना निष्ठावान है। कोरोना महामारी के दौरान संसदीय संस्थाओं की बैठक बुलाना एक जटिल प्रक्रिया थी। यहां तक कि लंदन के हाउस आफ कामंस (लोकसभा) ने वर्चुअल व्यवस्था की। कनाडा में भी नया प्रयोग किया गया। हमारे देश में ऐसे विकल्पों की चर्चा थी। देश की सबसे बड़ी 403 सदस्यों वाली विधानसभा का सत्र बुलाना एक चुनौती थी। लेकिन इसका बुलाया जाना अनिवार्य था और संवैधानिक बाध्यता भी, क्योंकि हमारे सामने अन्य कोई उदाहरण नहीं थे। कोरोना काल में देश के किसी राज्य की विधानसभा या विधान परिषद का सत्र नहीं हुआ था। हां, राजस्थान और मध्य प्रदेश विधानसभा ने जरूर विश्वासमत के लिए एक दिन से भी कम समय के लिए संक्षिप्त बैठकें बुलाई थीं। ऐसी स्थिति में तीन दिन का सत्र बुलाना बड़ी चुनौती थी। खासकर विधायकों को कहां, कैसे बिठाया जाएगा। सीटों की कठिनाई थी। इसलिए उनके बैठने की व्यवस्था लाबी में भी की गई। उनके सामने इससे भी बड़ी चुनौती विधायकों और खुद को संक्रमण से बचाने की थी। विधायकों को कोरोना टेस्ट का सुझाव दिया गया और उसकी व्यवस्था भी की गयी। इसमें सभी ने सहयोग दिया। यूपी विधानसभा देश की पहली विधानसभा है, जिसके सभी माननीयों और विधानसभा सचिवालय के सभी 600 अधिकारियों और कर्मचारियों ने सत्र से पहले अपना कोरोना टेस्ट कराया। 22 कार्मिक पाजिटिव निकले, जिनको कोरन्टाइन करना पड़ा। यूपी विधानसभा देश की ऐसी पहली विधानसभा भी बनी, जिसने अपने सदस्यों की वर्चुअल उपस्थिति मानी। इस सत्र में सरकार ने अपने 27 महत्वपूर्ण विधेयक पास कराए। विपक्ष और सत्ता पक्ष के सदस्यों द्वारा नियम-301 और नियम-51 के तहत जितनी सूचनाएं दी गयीं, सभी स्वीकार की गयीं। विषम परिस्थितियों में भी सदन की कार्यवाही चली। मुझे इस बात का शोक है कि दो कैबिनेट मंत्रियों सहित सदन के पांच वर्तमान सदस्यों और 22 पूर्व सदस्यों को हमने खोया।
विपक्ष हंगामा करता है, वह सार्थक क्यों नहीं होता?
संसदीय लोकतंत्र में सरकार की आलोचना करने के लिए विधि सम्मत साधन अपनाना यह विपक्ष का अधिकार है। माना जाता है कि देश की संसदीय व्यवस्था इंग्लैंड से प्रेरित है। ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था में माना जाता है कि विपक्ष के तीन काम हैं-पहला सलाह या सुझाव देना, दूसरा विरोध करना और तीसरा जनता के बीच अभियान चलाना और सरकार को बदलने के प्रयास करना। संविधान और संसदीय परंपरा का पालन करते हुए विरोध करने से लोकतंत्र मजबूत होता है। तीन साल के मेरे कार्यकाल में विपक्ष ने सहयोग दिया है, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूं। पहले के सदनों के अध्यक्षों ने कहा है कि सत्र की बैठकों के दौरान सदस्यों में गर्मी आना स्वाभाविक है, क्योंकि विचार विभिन्नता है। गर्मी के साथ उमस भी ठीक है। लेकिन उमस के बाद आंधी ठीक नहीं, क्योंकि आंधी से कई पेड़ गिर जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सदन के अंदर संसदीय परंपराओं का पालन करते हुए उसकी सीमाओं तक विरोध ठीक है, सीमा के बाहर नहीं।
विपक्ष का आक्रोश रोकने के लिए सत्ता पक्ष की क्या भूमिका होनी चाहिए?
विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच वाद-विवाद, तर्क-वितर्क चलते हैं। दोनों के बीच संवाद होते रहना चाहिए। कोई विपक्ष में स्थाई नहीं होता। पहले भाजपा विपक्ष में थी, अब सरकार में है। पहले सपा सत्ता में थी, अब विपक्ष में है। संसदीय लोकतंत्र में यह माना जाता है कि जनता ही अपने आदेश से किसी दल को सत्ता और दूसरे दल या कई दलों को विपक्ष का दायित्व सौंपती है। जिन्हें जनता बहुमत देती है, उनके लिए जनता का यह आदेश होता कि वह सरकार का काम करे। जनता ही विपक्ष में बैठने का आदेश देती है। सत्ता पक्ष का काम सरकार में रहकर जनता के हित में काम करने का है, जबकि विपक्ष का काम जनहित में सरकार के कामों की जांच-पड़ताल करना है। चुनाव में जनता ही दोनों के कामकाज का मूल्यांकन करके अगला आदेश देती है।
राजस्थान प्रकरण में विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका क्या ठीक थी?
विधानसभा अध्यक्ष के दायित्व बेहद संवेदनशील हैं। हम दल-बदल कानून के तहत संविधान की 10वीं अनुसूची के अनुसार न्यायिक प्रकृति का काम करते हैं। संविधान ने यह काम हमको सौंपा है। हम अपने कार्यालय का काम और अनुशासन देखते हैं तो हेड आफ डिपार्टमेंट की भूमिका में होते हैं। सदन चलाते समय अध्यक्ष की भूमिका में संविधान और नियमावली के अनुसार काम करते हैं। उस समय हम सदन में विशेषाधिकार और सदन की अपनी शक्तियों का भी प्रयोग करते हैं। इसलिए किस भूमिका में किस परिस्थिति में निर्णय किया गया, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है।
विधानसभा अध्यक्ष अपनी पार्टी के सदस्य के रूप में क्यों काम करते हैं?
लोकसभा अध्यक्ष और विधानसभा अध्यक्ष को निष्पक्ष बनाए रखने की दृष्टि से अनेक सुविचार आए थे और आते रहते हैं। यहां तक कि स्वाधीनता के शुरू के वर्षों में लोकसभा अध्यक्षों ने इस बारे में बहुत सुंदर टिप्पणियां कीं। ब्रिटेन ने लोकसभा अध्यक्ष और विधानसभा अध्यक्षों की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए एक व्यवस्था तय की कि जब लोकसभा अध्यक्ष या विधानसभा अध्यक्ष चुनाव लडऩे जाएंगे तो उनके खिलाफ कोई अन्य प्रत्याशी खड़ा नहीं होगा। उसे सर्वसम्मति से चुना जाता है। हमारे देश के वातावरण में ऐसा संभव नहीं हो पाया है। हालांकि संविधान ने लोकसभा अध्यक्ष, विधानसभा अध्यक्ष और विधान परिषद के सभापति को दल-बदल कानून से ऊपर रखा है। वे दल-बदल कानून के दायरे में नहीं आते। वे जब चाहें अपना दल बदल सकते हैं। दल बदल करने पर अध्यक्ष की सदस्यता नहीं जाती। लेकिन अपने निर्वाचन मंडल के प्रति वे उत्तरदायी होते हैं। जैसे उन्नाव की भगवंत नगर क्षेत्र की जनता के हित में कार्य करना मेरा कर्तव्य और दायित्व दोनों हैं। वैसे अध्यक्ष की निष्पक्षता को लेकर बहुत विचार हुआ है। यह विचार भी आया कि अध्यक्ष बनने के बाद उन्हें दोबारा चुनाव नहीं लडऩा चाहिए या निष्पक्षता के लिए अध्यक्ष सर्वसम्मति से चुना जाना चाहिए। अध्यक्ष के लिए दो वर्ग होते हैं, यानि या तो अध्यक्ष गैरराजनीतिक हो जाए या राजनीतिक। मैं स्वयं को एक राजनीतिक अध्यक्ष के रूप में पहचानता हूं। अध्यक्ष के पास सत्ता पक्ष या विपक्ष को उपकृत करने का कोई संसाधन नही है। यह संभव है कि सदन की कार्यवाही के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष में से किसी को कम या किसी को ज्यादा समय मिल जाए। वैसे हमारी कोशिश होती है कि समय के आवंटन में विषय की गंभीरता को देखते हुए वरीयता दी जाए।
विधायिका और न्यायपालिका के बीच कई बार आमना-सामना होता है, जबकि सबके अधिकार, शक्तियां और सीमाएं तय हैं। अतीत में यूपी विधानसभा और इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के आमने-सामने आने का उदाहरण भी है। ऐसा क्यों होता है?
हमारे देश के संविधान ने कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अलग-अलग शक्तियां और सिद्धांत तय किए हैं। संविधान ने सदनों की कार्यवाही के निरीक्षण और जांच का अधिकार न्यायालयों को नहीं दिया है। यदि सदन चल रहा है और सदन के भीतर कोई बात कही जाए, उस बात पर मुकदमा नहीं हो सकता है क्योंकि सदन की कार्यवाही में कोई टिप्पणी दर्ज होती है तो न्यायालय प्रमाण स्वरूप उसका संज्ञान नहीं लेगा। उसके आधार पर मानहानि का मुकदमा नहीं चल सकता। हां, सदन के बाहर के कृत्य और कार्यालय के काम न्यायालयों की परिधि में आते हैं। इसलिए हम न्यायालय के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करते हैं।
सदन का समय हंगामे में ज्यादा बर्बाद होता है। इसको कैसे नियंत्रित करेंगे?
हंगामा रोकने और संसदीय लोकतंत्र को और मजबूत बनाने के लिए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने एक कमेटी बनाई है, जिसका मैं सभापति हूं। कई राज्यों के विधानसभा अध्यक्ष इसके सदस्य हैं। इनके साथ बैठक भी की है। इनके अलावा देश के सभी पीठासीन अधिकारियों से लिखित पूछा गया है कि सदन की भीतर के सदस्यों के रोष को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है। सबके सुझाव आते ही मैं लोकसभा अध्यक्ष को अपनी रिपोर्ट सौंपूंगा।
पहले की सरकारों में देखा गया है कि सरकारें उदार होती थीं। विपक्ष के अच्छे सुझाव को मानती थीं और आरोपों की जांच कराती थीं। लेकिन अब कुछ वर्षों से देखा गया कि पिछली कुछ सरकारों में इन सब बातों को राजनीतिक चश्मे से देखा जाने लगा है?
संसदीय प्रणाली अपनी कमियों को स्वयं ही ठीक करती रहती है। इस तरह के बदलाव से निराश होने की जरूरत नहीं है। यह संसदीय व्यवस्था ही सबको ठीक करेगी। सरकार की हर अच्छाई और कमियां जनता तक पहुंचती हैं और जनता अपने लिए किए गए कामों को देखती है और उनका मूल्यांकन करती है। इस बीच, प्रचार माध्यमों का प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ा है। कस्बों से लेकर गांव तक अखबार और मोबाइल से समाचार पहुंच रहे हैं।
जब सत्ता पक्ष के भी विधायक बड़ी संख्या में अपनी समस्याएं सदन में उठाने लगते हैं तो आपको कैसे लगता है। क्या यह मंत्रियों और विधायकों के बीच संवादहीनता की स्थिति नही है?
सत्ता पक्ष के विधायकों द्वारा अपनी समस्याएं सदन में उठाने की पहले से परिपाटी रही है। अपनी समस्याएं उठाने का सदन उचित फोरम है। यहां नियम 301 और 51 के तहत सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों सूचनाएं देते हैं। मैं नहीं मानता कि संवादहीनता की स्थिति है। इस सरकार के मंत्री विधायकों से मिलते हैं। उनकी समस्याएं हल करने के लिए समय देते हैं।
आप पुराने अनुभवी राजनेता हैं। आपको लगता है कि वर्तमान खर्चीले चुनावी सिस्टम में कोई विधायक ईमानदार रहकर चुनाव लड़ सकता है। क्या इसमें सुधार होना चाहिए?
औचित्यपूर्ण और अच्छा सवाल किया आपने। चुनाव सुधारों पर लंबे समय से बहस हो रही है। पहले चुनाव लडऩे में पैसे कम खर्च होते थे, अब ज्यादा। दोनों के समय के बीच आधारभूत अंतर है। पहले जनता की समस्याओं के लिए आंदोलन करने वाले, लिखने-पढऩे वाले, उनके लिए जेल जाने वाले और बिना किसी पद के सक्रिय रहकर जनता के लिए काम करने वाले चुनाव लड़ते थे। ऐसे लोगों को जनता हाथों-हाथ लेती थी। पैसे भी देती थी। मैं ने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1985 में चुनाव लड़ा। संसाधनों के नाम चार पहिया भी नहीं, एक मोटर साइकिल थी। लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति से चली कांग्रेस की आंधी में भी मैं चुनाव जीत गया। इसका मुख्य कारण था मेरा जनता के लिए किया गया संघर्ष व आंदोलन। इस तरह बिना संसाधन के भी जीत गया। राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र और विचारों से जनता से जुड़ते हैं। जनता पार्टियों के साथ प्रत्याशी और उसके व्यक्तित्व का आंकलन भी करती है। ऐसे में जो प्रत्याशी अन्य चीजों का चुनावों में उपयोग करते हैं तो उनकी निन्दा भी होती है। चुनाव आयोग के पास प्रत्याशी और पार्टी के खर्च की जांच करने और खर्च को बढ़ाने का अधिकार है। लेकिन मैं आशावादी हूं कि महंगे चुनाव या चुनाव में अन्य चीजों के उपयोग की प्रवृत्ति ठीक होगी। जहां तक विधायकों के ईमानदार होने की बात है तो मैं अपना बता दूं, मैं आठ चुनाव लड़ा, लेकिन मेरे इन चुनावों में मेरा वेतन और खेती का पैसा कभी खर्च नहीं हुआ। किसी बड़े आदमी से चंदा भी नहीं लिया। सब जनता ने ही मिलकर चुनाव लड़ा। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं साइकिल से भी 40-40 किलोमीटर तक जनता के लिए दौड़ा हूं। हालांकि चुनाव सुधारों के लिए कई सुझाव आए हैं। जैसे व्यक्ति के बजाए पार्टी खड़ी हो। प्राप्त प्रतिशत वोट के हिसाब से सीट पार्टी को दी जाएं। यह विचार भी आया कि चुनाव लडऩे के लिए सरकार फंड दे। एक विचार यह भी था कि डीएम अपने-अपने जिले के सभी उम्मीदवारों को एक मंच पर बुलाकर सबको अपनी-अपनी बात कहने का मौका दें। कौन पहले बोले, इसके लिए टास सिस्टम या नाम के पहले शब्दों से तय किया जाए। लेकिन यह विचार आगे नहीं बढ़े। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उसकी क्षेत्र में इमेज कैसी है।
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