यूपी में बीजेपी की बढी परेशानी, सब कुछ दांव पर

दिल्ली ब्यूरो: यूपी में सियासी खेल को देखते हुए चुनावी पैतरेबाजी में शामिल नेता परेशां है। दावे के बीच वे हांफते भी नजर आ रहे हैं। जनता भी भ्रमित है। जातीय राजनीति के साथ ही यूपी धार्मिक खेल भी जारी है। सीधे मंदिर की राजनीति के बजाय राष्ट्रबाद के नाम पर गोलबंदी की जा रही है। उधर सपा -बसपा की जातीय राजनीति की अपनी कहानी है और उनके दावे भी कुछ अलग तरह के है। उधर कांग्रेस के कुछ और राग है और पैतरे भी। कांग्रेस की उम्मीद भी कुछ अलगत तरह के हैं। ऐसे में यूपी की राजनीति बहुत कुछ कह रही है।
उत्तर प्रदेश ने हमेशा से चौंकाने वाले परिणाम दिए हैं। 2009 में उत्तर प्रदेश ने कांग्रेस को 22 सीटें दी थी. जबकि, भाजपा को यहां मात्र 9 सीटें मिली थी। यह कहना मुश्किल है कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी, लेकिन यह बात निश्चित है कि भाजपा को इस चुनाव में अच्छी ख़ासी हार मिलने जा रही है। ऐसा भी हो सकता है कि भाजपा दहाई के अंकों को भी नहीं छू पाए। इस तरह के राजनीतिक समीकरण ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की नींद उड़ा दी है।
2014 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने अपनी कुल सीटों का एक-चौथाई हिस्सा उत्तर प्रदेश से निकाला था। अपने सहयोगी “अपना दल” के साथ मिलकर पार्टी ने 80 में से 73 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बड़ी जीत के कारण नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन सके। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अपनी सरकार गंवाने के बाद उत्तर प्रदेश से भाजपा सहम सी गई है लेकिन यूपी को लेकर आक्रामक भी। उसे पता है कि यूपी से खोने के बाद कुछ नहीं बचेगा। उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी दल होने के बावजूद भाजपा डरी हुई है। पार्टी अपने उम्मीदवारों के चयन और स्पष्ट चुनावी रणनीति भी नहीं बना पा रही है। भाजपा की चिंता उत्तर प्रदेश के लिए जायज़ है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, भाजपा अपने अनुमान से डरी हुई नज़र आ रही है।
भाजपा के डरने का पहला और सबसे मजबूत कारण है- समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन। 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मत प्रतिशत के आंकड़ों को सामान्य अंकगणित से भी जोड़ें तो भाजपा 36 सीटों पर सिमटती दिख रही है। अगर यही वोट प्रतिशत 2017 के विधानसभा चुनाव में देखें तो भाजपा मात्र 23 सीटों पर सिमटती नज़र आती है। लेकिन, राजनीति आंकड़ों के हिसाब से नहीं चलती. हर बड़ी पार्टी बड़ा दांव खेलना चाहती है। इसकी एक बानगी गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उप चुनाव में देखने को मिली। इन चुनावों में विपक्षी दलों ने जितनी वोट हासिल की थी, वह 2014 और 2017 के चुनाव में उन्हें मिले कुल वोटों के योग से भी ज्यादा था।
दूसरा बड़ा कारण, जिसने नरेन्द्र मोदी की नींद उड़ा दी है, वह- कांग्रेस पार्टी में प्रियंका गांधी का सक्रिय होना। विश्लेषण से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस का वोट शेयर 49 प्रतिशत का है। 2014 के चुनाव में, कांग्रेस को 7.5 प्रतिशत वोट मिले थे, जो प्रियंका गांधी के सक्रिय होने के बाद और अधिक बढ़ सकती है. प्रियंका गांधी गिने-चुने जगहों पर चुनाव प्रचार कर रही हैं। प्रियंका मंदिरों में दर्शन करने जा रही हैं और इस तरह से सवर्ण वोटों में सेंध लगा सकती हैं। इसके अलावा, कांग्रेस पार्टी ने राज्य के 28 सीटों पर अपने मजबूत उम्मीदवार उतारे हैं।ये सभी उम्मीदवार सीधे मुकाबले में होंगे। इस तरह, कांग्रेस पार्टी को जो भी फ़ायदा होगा वह भाजपा के हिस्से के वोटों को काटकर ही मिलेगा। इस तरह सपा-बसपा गठबंधन को फ़ायदा होगा. इस तरह के समीकरण भाजपा के लिए डरावने हैं।
तीसरा फ़ैक्टर है कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में दोहरी एंटी एन्कम्बेन्सी यानी सत्ता विरोधी लहर का सामना करना है। सभी सर्वे में यही बताया गया कि उप चुनाव के परिणाम एक महज संयोग नहीं था। लेकिन, राज्य में नरेन्द्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की सरकार के कामों को लेकर लोगों के भीतर आक्रोश है। 2014 में नरेन्द्र मोदी ने जितने भी वादे किए थे, उन्हें पूरा नहीं किया जा सका। खेती के लिहाज से मोदी सरकार का कार्यकाल त्रासदी भरा रहा है। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी मोदी सरकार फ़ेल रही है. वही, योगी आदित्यनाथ ने राज्य में छोटी जातियों के ऊपर अपने ठाकुर यानी राजपूत जाति का दबदबा दिखाया है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर भी मोदी सरकार का 56 इंच का सीना फ़ेल साबित हुआ है। जनता के बीच “चौकीदार” नाम की ब्रांडिंग से जनता के मुख्य मुद्दे और सरकार के प्रति गुस्से को छिपाया नहीं जा सकता।

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