भारतीय कामगारों की राष्ट्र्व्यापी सिविल नाफ़रमानी

राम दत्त त्रिपाठी, राजनीतिक विश्लेषक 
देश भर से जो खबरें और तस्वीरें आ रही हैं उनसे लगता है जैसे भारत में सरकार नाम की संस्था केवल बड़े उद्योग व्यापार वालों की सुनती है. आम नागरिक की बात या भूखे प्यासे अपने घरों को लौट रहे श्रमिकों का करुण क्रंदन, चीख पुकार  उसे सुनायी नहीं  दे रही. दूसरी बात यह कि एक प्रांत या ज़िले से दूसरे ज़िले जाने के लिए सरकार की अनुमति चाहिए. रुकावट के जवाब में एक स्वाभिमानी माँ ने तो अपने भूखे बच्चे के लिए सरकार का दूध और खाना लेने से इंकार कर दिया. कहा ऐसी सरकार का खाना भी नहीं लेना चाहिए. ऐसी स्वाभिमानी माँ का पैर छूकर प्रणाम करने का मन  करता है. 
सरकार से करबद्ध प्रार्थना है कि उन्हें भारत का नागरिक समझें  , गिरमिटिया मज़दूर नहीं.  इन्हें इंसान मानते तो भूखे प्यासे शांतिपूर्ण लोगों का रास्ता रोक कर उन पर लाठियाँ न भांजते.
भारत का संविधान नागरिकों को जीवन के अनेक मौलिक अधिकार देता है. भारतीय नागरिकों कों पूरे देश में अबाध आवागमन , रहने, बसने और आजीविका अर्जन की स्वतंत्रता  के मौलिक अधिकार की गारंटी देते हैं आजादी के 73 वर्षों में भारत ने सामाजिक, सांस्कृतिक  और भौतिक प्रगति व बदलाव की लंबी यात्रा तय की है फिर भी यह देश आज भी गरीबों का देश है जहां उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़, झारखण्ड , उडी़सा, बंगाल और असम में बड़ी आबादी बमुश्किल से दो जून का चूल्हा जलाने का इंतजाम कर पाती  है। उन्हें अपने जन्मस्थान पर पर्याप्त रोजगार न मिलने, सूद खोरी के त्रास और आपदाओं के कारण देश के उन क्षेत्रों को पलायन करना पड़ता है  जहां बारहमासी रोजगार मिल सके. सरकार के पास इनका कोई हिसाब किताब नहीं है.  अनुमानतः ऐसे रोजगार के लिए विस्थापित गरीब मजदूरों की संख्या करोड़ों  में हैं . वे समस्त असुविधाओं और नागरिकों के लिए उपलब्ध होने वाले सरकारी समर्थन के अभाव में भी हंसी-खुशी जीवन जी रहे थे , क्योंकि उनकी भेंट अपनी नियति – वर्ष के 365 दिनों के रोजगार से हो रही थी ।
कहते हैं सुख के दिन थोडे़ ही होते हैं । गरीब मजदूरों के लिए कोरोना लाॅकडाऊन  एक दुःखद प्रहार की तरह आया । उनके रोजागार स्थलों में ताला पड़ गया , घरों से दूर परदेस  में उनकी जीवन नाल अचानक कट गयी। वे समझ नहीं पा रहे कि कोरोना ऐसी क्या बला है जिसने पूरे देश में तालाबन्दी कर दी । न कांग्रेस , न अन्य किसी विपक्षी राजनीतिक दल ने कोई बन्दी नहीं बुलायी, फिर भी तालाबन्द देश। शहर सूने, सड़कें सूनीं । किसी मजबूरी में बाहर आना पडा़ तो पुलिस के जवानों की लाठियां लहूलुहान करने, उठक बैठक कराने, मेढक दौड़ कराने , चालान कटने की जिल्लत अलग से।
महामारी कोरोना से देश को बचाने के लिए  प्रधानमंत्री मोदी ने पहले एक ट्रायल एक दिवसीय लाॅक डाऊन किया और उसमें 100 प्रतिशत जन सहयोग देखकर दो सप्ताह का लाॅक डाउन घोषित कर दिया । अब हम लाॅकडाऊन 3 में चल रहे  हैं और चौथा लाॅक डाऊन कुछ ढिलाई के साथ  18 मई से शुरू होगा।
निकल पड़े अपने गाँव  की ओर 
 

लगातार बन्दी से राशन-पानी खत्म हो गया और इस कारण हतप्रभ मजदूर पैदल , साइकिल, आटो, हथठेला ,  और अन्य जो भी उपलब्ध साधन मिले , उससे निर्जन सड़कों पर निकल पडे़ अपने अपने देस की ओर । सड़कों पर हफ्तों तक चलने वाले उनके पैदल मार्च में सहयोग के लिए एक भी ढाबा नहीं, पानी का एक भी आऊट लेट नहीं, एक भी मेडिकल फैसिलिटी नहीं । सड़क पर धूप, बेबसी , अपमान , दिशाहीन पुलिस जवानों  का अत्याचार ही मिला,  पर विकल्प रहित  उन गरीबों को केवल और केवल अपना देस ही दिखता रहा , वे रुके नहीं थके नहीं , माने नहीं।
दिल कचोटने वाले दृश्य 
इससे लाॅकडाऊन का एक मार्मिक और दिल को कचोटने वाला  पक्ष सामने आया । सड़कों पर बेरोजगार गरीबों की नदियां  उमड़ने लगीं। अनेक चित्र आये जिसने आत्मा को झकझोर कर रख दिये। कन्धे पर बैलगाडी़ का जुआ, सूटकेस  रोलर पर लटकता उनींदा  बच्चा और रोलर को खीचती मां , पानी की प्लास्टिक बोतलों को पिचकाकर फफोले पडे़  पैरों में सूत से  बांधकर चलते लोग, सड़क पर पुलिस के जवानों की लठमारी व बटमारी से बचने के लिए रेलवे ट्रैक पर पैदल चल कर मालगाडी़ से कटते जाते लोग। हृदय भर आता रहा पर शायद सत्ता प्रतिष्ठान को  न तो दिल होता है और न आंखे ।
न्याय की  देवी ने तो पहले से आँखों में पट्टी बांध रखी है ताकि न्याय का तराज़ू किसी की आँख का भी लिहाज़ न करे. न्याय की देवी अदालतों में अब भी सुशोभित है.  लेकिन लगता है  न्याय की  ऊँची कुर्सी पर बैठने वाले लोग, जस्टिस लोया का हश्र देखने के बाद  स्वर्णिम गोगोई युग में प्रवेश कर गए हैं.   लाॅक डाऊन के 51 दिन हो गये , यह दृश्य लगभग रोज के हैं और सरकार सड़कों पर निकल पडे़ गरीबों के मामले  में ब्रिटिश सरकार से भी ज्यादा संवेदनहीन हो गयी।पर न्यायमूर्ति अख़बारों या टीवी चैनल्स की दारुण कथाओं का संज्ञान नहीं ले रहे हैं.
सरकार को  विदेशों में फंसे कुलीन भारतीय दिखायी पडे़ , उनके दर्द को वह सुन सकी और उनके लिए “वन्दे भारत” कार्यक्रम लांच कर दिया । कुछ राज्य सरकारों को कोटा में फंसे हजारों छात्र दिखायी पडे़ और उनका इंतेजाम हो गया।पर हजारों प्रोफेशनल्स, महानगरों के  अस्पतालों में इलाज के लिए निकले लोग , तीर्थयात्री, बाराती  संवाद कार्यक्रमों में, रिश्तेदारियों में गये लोग बड़ी  संख्या में फंसे हैं।
त्वरित कार्य योजना का अभाव 
इन सबकी  वापसी के लिए एक चटपट कार्य योजना होनी ही चाहिये थी। पर दुःख और आक्रोश की बात यह है कि प्रवासी गरीबों, मजदूरों के लिए कोई भी नजरिया, योजना और कार्य किसी भी सरकार ने चाहे केन्द्र हो या राज्य , नहीं प्रस्तुत किया,  सिवाय उत्तर प्रदेश के कुछ सीमित प्रयासों के ।
रेल मंत्रालय ने काफी हो-हल्ले के बाद अभी 4 लाख मजदूरों के लिए जिन 350 ट्रेनों की व्यवस्था की है उसमें भी स्पष्टता और सुव्यवस्था का अभाव मिला। शायद यह हृदय हीनता  हमारे देश के उस सामंती अतीत की छाया  है जिसमें गरीब गरीब होता था और अमीर – अमीर माना जाता रहा है। संविधान और कानून ने सबको समान कर दिया फिर भी सरकार चलाने वालों के दिमांग में ऊंच और नीच, अमीर और गरीब की ग्रन्थि अभी फोडा़ बनकर अवाम को प्रताड़ित  करने में लगी है। 
तभी तो 5000 किलोमीटर की दूरी से हवाई जहाज से लाये जाने वालों के लिए भगीरथ प्रयास किये गये पर अपनी अवाम, जिसके वोट से राजनीतिक दलों की किस्मत बनती-बिगड़ती है , जिनके श्रम से उद्योग धन्धे चलते हैं , उनके लिए वे सिसकियां भी नहीं ले रहे।  उनकी संख्या करोड़ों में है तो भई उन्हें  बस ट्रेन जो दे सकते हो दो,  जो नहीं सो नहीं , पर  सड़क पर कम से कम सम्मान, स्नेह और सुरक्षा से चलने की सुविधा ही दे दो । उल्टे सहयोग करने की जगह,  सजग नागरिकों या स्वयं सेवी लोगों  को भी पुलिस ने खाना पानी देने  के स्टाल लगाने में आपत्ति की. इसके लिए भी डी एम की अनुमति चाहिए।

अपने घर पहुँचने के मज़बूत निर्णय के चलते सड़क पर पुलिस की बाधा से बचने के लिए गंदा नाला पार कर  रेल ट्रैक पर चले तो पलक झपकते ही  औरंगाबाद में मालगाड़ी से कुचलकर मारे गए. कई और जगह सड़क दुर्घटना का शिकार हुए. सीमेंट कंक्रीट मिक्सर , पेट्रोल टैंक के चैम्बर में घुसकर या प्याज के बोरों में छिपकर 1000 मील की यात्रा करना सरकार को द्रवित नहीं करता पर देश के तमाम नागरिकों और सिस्टम के अंदर घुटन महसूस कर रहे  लोगों को विचलित जरूर करता है।
ये रुकावटें हैं क्यों ? 
औद्योगिक एवं संपन्न राज्य जैसे गुजरात और कर्नाटक और बंगाल भी मजदूरोंको निकलने नहीं देना चाहते ताकि लाॅकडाऊन के समापन के बाद उनके यहां मजदूरों की कमी की समस्या न हो। जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार , उडी़सा आदि राज्य उन्हे आने नहीं देना चाहते इस डर से कि कहीं वापस आ रहे प्रवासी मजदूर Covid संक्रमण की स्थित को और बिगाड़ न दें। बिहार में तो आने वाले चुनाव में असंतोष का डर भी होगा.
मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का स्वतः संज्ञान लेने वाली अदालतें भी इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी का संज्ञान नहीं ले रही हैं.  अदालतों को शक्ति है कि वह सरकार से कह सके कि “audi alteram partum “( अर्थात दूसरे पक्ष को भी सुनो  )। गरीबों को आपने 51 दिनों पहले अचानक बता दिया कि सब तालाबंदी हो गयी , उन्हें तालाबन्दी के लिए तैयारी का न मौका दिया न प्रभावशाली फूलप्रूफ इंतेजाम किया  और पुलिस लगाकर कह दिया कि डेहरी से बाहर पैर रखा तो टांगे तोड़ देंगे , ऐसी सख्ती  की ज़रूरत क्या थी तब जबकि  25 मार्च को कोविड 19 के मरीज मात्र 526 थे !
कोई संवेदनशील सरकार बिना तैयारी और प्रवास पर गए लोगों तथा रोज़ी रोटी खो चुके  मजदूरों को वापसी करने का समय दिये बगैर ऐसा देशव्यापी चक्का जाम नहीं करती.   क्या सरकार चाहती है कि वे मजदूर धनी राज्यों के बंधुआ हो जांय ? स्वाभिमानी मेहनतकश अपनी जननी-जन्मभूमि से हजारों मील दूर भिखमंगई के  प्रस्ताव को कदापि स्वीकार न करेंगे ।
घर वापसी की बेहद जटिल प्रक्रिया 
तमाम होहल्ला के बाद प्रवासी श्रमिकों को उनके गृह राज्य लाने के लिए बेमन से ही बड़ी जटिल प्रक्रिया तैयार की गयी.सबसे पहले मजदूरों को भेजने के लिए सहमत राज्य उनकी ज़िलेवार लिस्ट बनाएँ.  भेजने वाले राज्य  लिस्ट के अनुसार प्रवासी मजदूरों के गंतव्य स्थलों की सूची बनाएँ. यह सूची संबंधित राज्य को सौंपे. संबंधित राज्य  मजदूरों को घरों तक पहुंचाने के  लिए जिला मजिस्ट्रेटों से संपर्क कर 14 दिनों के लिए कोरेन्टाइन की समुचित व्यवस्था कराएँ. अब इसके बाद मजदूरों को वापस लेने वाला राज्य इस कार्य के लिए नियुक्त नोडल अफसर के माध्यम से अपनी स्वीकृति को भेजते हुए मजदूरों को भेजने का आग्रह करे। इसके लिए मजदूरो के गृह  राज्य केन्द्र सरकार से सोशल डिस्टैन्सिंग नियम के अनुसार रेल सुविधा का आग्रह करे व अपने 15 प्रतिशत हिस्से का रेल किराये का भुगतान भी करे। भुगतान पाकर केन्द्र सरकार रेलवे को मजदूरों  के बोर्डिंग स्थान पर रेल बोगियों की समुचित व्यवस्था के निर्देश दे.
इतना सब व्यवस्थित हो जाने के बाद तब मजदूरों को बताया जाय कि उनकी वापसी के लिए कहां से कहां तक क्या इंतेजाम किया गया है। गरीब रोजगार विहीन मजदूर औसतन  500 रु की फीस देकर प्राइवेट डाॅक्टर से कोरोना जांच कराकर निगेटिव होने  का सर्टीफिकेट निकलवाए ।इसके बाद प्रवासी मजदूर एक सजग अफसरों की चौकस टीम की देखरेख में ट्रेन के डिब्बे में प्रवेश पाये। गंतव्य तक पहुँच कर सीधे कोरैन्टीइन में 14 दिन बिताए. जब सब नाॅर्मल रहे तो अपने परिवार में जाये।
जो  राजनीतिक दल सत्ता में हैं नहीं और कुछ कर नहीं सकते वे रेल किराया देने के लिए ताल ठोंक  रहे हैं, ताकि  मज़दूर बिना और समय गँवाए घर पहुँचें। उन्होंने कुछ ट्रेनें चलवायी भी. पर जिन्हें  मौका है इस संकट की घड़ी में कुछ कर दिखाने का वे सत्ता के नशे में मस्त  हैं ।
बीसवीं सदी का अद्भुत सविनय अवज्ञा आंदोलन 

परिणामतः लाखों लोग बंगलूरू, हैदराबाद, मुम्बई , सूरत ,अहमदाबाद,  दिल्ली, लुधियाना से निकल कर इस भयानक धूप में बस्ती, बस्तर और बर्दवान के लिए गांधी के दण्डी मार्च की तरह सविनय अवज्ञा करते जा रहे हैं । उनके मन में पुलिस या प्रशासन के प्रति कटुता भी नहीं दिखी. उनका सत्याग्रह राजनीतिक दलों की तरह हंगामे , आगज़नी और तोड़फोड़ वाला नहीं है. वह सत्याग्रह के नियम के अनुसार बिना प्रतिकार कष्ट सह रहे हैं.
नामक सत्याग्रह के लिए दांडी मार्चवह दृश्य याद कीजिए जब अंग्रेज सरकार की पुलिस नमक सत्याग्रहियों पर लाठियाँ भांज रही थी. और लोग फिर भी आगे बढ़ रहे थे. गांधीवादी तो अपने आश्रमों , भवनों और संस्थानों में  हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे पर लोग अपने आप आगे बढ़ गए. अब भी मौक़ा है गांधीवादी इन श्रमिकों के पीछे चलकर इस असीम जन  शक्ति  के नव निर्माण के रचनात्मक कार्यों में मदद करें  और उन्हें निराश हताश न होने दें. मज़दूर संगठनों के लिए भी यह अवसर है लोगों को संगठित कर उन्हें रचनात्मक डिश दें. अन्यथा यह अद्भुत असीम ऊर्जा किसी और रास्ते पर चल पड़ी, तो सरकार को आलीशान दफ़्तरों और बंगलों में बैठने नहीं देगी. भारत के नक़्शे में रेड जोन का और विस्तार हो जाएगा जिसकी कल्पना भी  भयावह  है. 
अभी महाभारत सीरियल चल रहा है, जिसमें कृष्ण का अद्भुत और सार्वकालिक गीता संदेश है. आपके पास पुस्तक होगी, न हो तो नेट पर देख लीजिए. अध्याय दो श्लोक चौदह :
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा 
आगमापायिनः अनित्यास्तांस्तिक्षस्व भारत।
हे भरतवंशज कुन्तीपुत्र, सुख दुख का आगमन इन्द्रियजन्य है, इनका आना जाना क्षणिक होता है इसलिए उनको उसी मनोभाव में रहकर सहन करने का प्रयास करना चाहिए।
कहने का मतलब यह नहीं कि चुपचाप अन्याय सहो. मतलब यह कि उस कष्ट को बिना प्रतिकार झेल जाओ और अन्यायी के प्रति दुर्भावना के बिना कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ो. बिना प्रतिकार यानि निजी भौतिक असुविधा और कष्ट को बिना  चूँ चपड़  सह कर अपने अधिकार के लिए न्याय युद्ध लड़ने का एक अलग आनंद है. इससे  एक ग़ज़ब की शक्ति मिलती है जो अंततः अन्यायी का हृदय परिवर्तन अथवा उसे परास्त करती है. समूल नष्ट. समझो जड़ में मट्ठा. 
आज लाखों करोड़ों पुरुषार्थी श्रमिक यही कर रहे हैं. सिविल नाफ़रमानी. मारो कितना मारोगे. रोको कहाँ – खान रोकोगे. भारतीय समाज में सुख दुःख  बर्दाश्त करके धीरज और शांति के आगे बढ़ने की अद्भुत शक्ति है.  यह मज़दूर उन इलाक़ों के हैं जो साल दर  साल डायरिया, तपेदिक, चिकनगुनिया, रहस्यमय बुख़ार, इंसेफ़्लाइटिस जैसी ठीक हो सकने वाली बीमारियाँ झेलते रहे हैं. गोरखपुर मेडिकल कालेज के बच्चों वाले वार्ड में मैंने कितने माँ बाप को अपने नौनिहालों के शव गोद में ले जाते देखा है. इनके पुरखों ने सौ साल पहले प्लेग की महामारी झेली है और दादी नानी से वे सब किससे सुने हैं.
इन्हें मृत्यु का इतना भय नही. बस चाहत यह कि अगर मरना ही है तो अपने घर गाँव में अपने लोगों के बीच मरें या रास्ते में मर जाएँ. अनेक लोग रास्तों में बलिदान हुए. उनकी आत्मा हमें आपको चैन से नहीं बैठने  देगी. 
इन लोगों को  रोक पाना पुलिस प्रशासन के वश में नहीं. इनके दिलों के तार आपस में जुड़ें हैं.  हज़ार दो हज़ार लम्बी सड़कों को इन्होंने अपने कदमों से नाप कर गोरखपुर से मुंबई की दूरी ख़त्म कर दी और उस रेल को ठेंगा दिखा दिया, जिसके जनरल डिब्बे में  भूसे की तरह भर कर परदेस जाते थे.मेरी निगाह में श्रमिकों की यह यात्राएँ दिल्ली की सबसे मज़बूत  पर बेलगाम सत्ता और राज्य सरकारों के खिलाफ सविनय अवज्ञा आन्दोलन हैं .
रेलवे  सक्षम, लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति  का अभाव 
भारतीय रेलवे सामान्य दिनों  में एक दिन में 15000 ट्रेनों को चलाकर 4 करोड़ से अधिक यात्रियों को इधर से उधर पहुंचाने की क्षमता रखती है .  वह  करने पर आ जाय तो कोविड काल में डिस्टैन्सिंग के नियम का पालन करते हुए भी   प्रति दिन 1000 ट्रेन चलाकर 7-8 दिनों में मजदूरों को इस विपत्ति से उबार सकती है। 
लालफ़ीताशाही के आरोपों के बावजूद भारत की नौकरशाही बंगला देश युद्ध के समय एक करोड़ शरणार्थियों और क़रीब एक लाख युद्ध बंदियों को सम्भाल चुकी है. कोई कारण नहीं  कि वह आज इस कोविड – 19 बीमारी से पैदा समस्याओं को संभाल न सके।
बस देर है राजनीतिक आकाओं में इन गरीब मज़दूरों के प्रति सच्ची हमदर्दी और इच्छा शक्ति की . एक बार दिल्ली दरबार इशारा तो करे. रेल भवन  बस चंद कदम दूर है. ट्रेनों के पहिए फ़ौरन दौड़ने लगेंगे , हज़ारों बसें सड़कों पर आ जाएँगी. सरकार कहे तो  हमारी  सेना भी नागरिकों की सेवा में पीछे नहीं रहेगी. इन्हें  वातानुकूलित डिब्बों की ज़रूरत नहीं. ये श्रमिक तो साधारण रेल गाड़ियों , बसों और माल वाहक ट्रकों में भी चले आएँगे, यहाँ तक कि मालगाड़ी के डिब्बे में भी. 

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