भक्त और भगवान के बीच की दूरी खत्म करता है यह महामंत्र

श्री चैतन्य महाप्रभु का जन्म बंगाल के नवद्वीप नामक ग्राम में शक संवत 1407 की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शची देवी था। ये भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे। इन्हें लोग श्री राधा का अवतार मानते हैं। बंगाल के वैष्णव तो इन्हें भगवान का ही अवतार मानते हैं।भक्त और भगवान के बीच की दूरी खत्म करता है यह महामंत्र

श्री चैतन्य महाप्रभु विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। न्याय शास्त्र में इनको प्रकांड पांडित्य प्राप्त था। कहते हैं कि इन्होंने न्याय शास्त्र पर एक अपूर्व ग्रंथ लिखा था, जिसे देखकर इनके एक मित्र को बड़ी ईर्ष्या हुई क्योंकि उन्हें भय था कि इनके ग्रंथ के प्रकाश में आने पर उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ का आदर कम हो जाएगा। इस पर श्री चैतन्य ने अपने ग्रंथ को गंगा जी में बहा दिया।

चौबीस वर्ष की अवस्था में श्री चैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास लिया। इनके गुरु का नाम श्री केशव भारती था। इनके जीवन में अनेक अलौकिक घटनाएं हुईं, जिनसे इनके विशिष्ट शक्ति सम्पन्न भगवद्विभूति होने का परिचय मिलता है। इन्होंने एक बार अद्वैत प्रभु को अपने विश्व रूप का दर्शन कराया था। नित्यानंद प्रभु ने इनके नारायण रूप और श्री कृष्ण रूप का दर्शन किया था। इनकी माता शची देवी ने नित्यानंद प्रभु और इनको बलराम और श्रीकृष्ण रूप में देखा था। चैतन्य चरितामृत के अनुसार इन्होंने कई कुष्ठ रोगियों और असाध्य रोगों से पीड़ित रोगियों को रोग मुक्त किया था।

श्री चैतन्य महाप्रभु के जीवन के अंतिम छ: वर्ष तो राधा भाव में ही बीते। उन दिनों इनके अंदर महाभाव के सारे लक्षण प्रकट हुए थे। जिस समय यह श्री कृष्ण प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य करने लगते थे लोग देखते ही रह जाते थे। इनकी विलक्षण प्रतिभा और श्रीकृष्ण भक्ति का लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानंद सरस्वती जैसे वेदांती भी इनके क्षण मात्र के सत्संग से श्री कृष्ण प्रेमी बन गए। इनके प्रभाव से विरोधी भी इनके भक्त बन गए और जगाई, मधाई जैसे दुराचारी भी संत हो गए। इनका प्रधान उद्देश्य भगवन्नाम का प्रचार करना और संसार में भगवद् भक्ति और शांति की स्थापना करना था। इनके भक्ति सिद्धांत में द्वैत और अद्वैत का बड़ा ही सुंदर समन्वय हुआ है। इन्होंने कलिमल ग्रसित जीवों के उद्धार के लिए भगवन्नाम संकीर्तन को ही प्रमुख उपाय माना है।

इनके उपदेशों का सार है, ‘‘मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन का अधिक से अधिक समय भगवान के सुमधुर नामों के संकीर्तन में लगाए। यही अंत:करण की शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय है। कीर्तन करते समय वह प्रेम में इतना मग्न हो जाए कि उसके नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगे, उसकी वाणी गद्गद् हो जाए और शरीर पुलकित हो जाए। भगवन्नाम के उच्चारण में देश काल का कोई बंधन नहीं है। भगवान ने अपनी सारी शक्ति और अपना सारा माधुर्य अपने नामों में भर दिया है। यद्यपि भगवान के सभी नाम मधुर और कल्याणकारी हैं, परंतु ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।’ यह महामंत्र सबसे अधिक मधुर और भगवत्प्रेम को बढ़ाने वाला है।

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