बकरीद के दूसरे दिन दी गई ऊंट की कुर्बानी, 7 हिस्सों में बांटने का है रिवाज

camel_1443237501वाराणसी. मदनपुरा इलाके में बकरीद के दूसरे दिन शनिवार को ऊंट की कुर्बानी दी गई। ब्रिटिश काल से चल रहे इस परंपरा को देखने के लिए हजारों लोग पहुंचे। ईद-उल-अजहा के मुकद्दस मौके पर इलाके के लोगों ने ऊंट की कुर्बानी के खास इंतजाम किए थे। भीड़ को देखते हुए जिला प्रशासन ने सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था रखी थी।
 
जुनैद अहमद ने बताया कि कुर्बानी का मकसद इंसान के अंदर के जानवर को खत्म करना है। ऐसा करने के बाद वह नेक रास्ते पर चलने लगता है। उन्होंने बताया कि अल्लाह इंसान को उसके कर्मों से ही बनाता और बिगाड़ता है। ऊंट की कुर्बानी के बाद इसके सात हिस्से किए जाते हैं। जो भी परिवार कुर्बानी कराता है, इसके सात हिस्से उसके पास जाता है। इसके बाद लोगों में इसे बांटा जाता है। यह कुर्बानी बुरी बलाओं से इंसानियत को बचाती है। इससे बरकत भी होती है।
 
क्या है बकरीद
मौलाना असरफ अंसारी ने बताया कि ईद-उल-अजहा (बकरीद) इस्लाम धर्म के लोगों का खास त्योहार है। अरबी में ईद-उल-अजहा का मतलब कुर्बानी की ईद होती है। रमजान के पाक महीने की समाप्ति के लगभग 70 दिनों बाद इसे मनाया जाता है। इस दिन मुस्लिम लोग ईदगाहों और मस्जिदों में खास नमाज अदा करते हैं। इसके बाद ऊंट, बकरे या भैंस की कुर्बानी दी जाती है। इसका मांस सभी लोगों में बांटा जाता है। इस दिन घरों में लजीज पकवान और सेवइयां बनाई जाती हैं। साथ ही अन्य समुदायों के लोगों को भी दावत भी दी जाती है।
 
क्यों किए जाते हैं कुर्बानी के सात हिस्से
अरब की तर्ज पर बनारस में भी ऊंट की कुर्बानी देने का रिवाज है। मोहम्मद यासीन बताते हैं कि अरब में कुर्बानी के सात हिस्से किए जाते हैं। जो लोग ऊंट को खरीदकर लाते हैं, उनके परिवार के एक सदस्य के नाम पर हर हिस्सा होता है। कुर्बानी के बाद ऊंट को इन लोगों में बांटा जाता है।
 
क्या होती है कीमत
अमूमन एक ऊंट की कीमत 35 हजार रुपए होती है। वजन के हिसाब से इसकी कीमत ज्यादा भी हो सकती है। मदनपुरा में जिस ऊंट की कुर्बानी दी गई, उसे मिर्जापुर के स्थानीय बाजार से खरीदा गया।
 
क्यों दी जाती है कुर्बानी
मौलाना असरफ अंसारी ने बताया कि एक दिन हजरत इब्राहिम ने सपना देखा। सपने में अल्लाह ने उनसे अपने बेटे हजरत इस्माइल की कुर्बानी देने के लिए कहा। ऐसे में वह इसे हकीकत का रूप देने निकल पड़े। रास्ते में उन्हें तीन शैतान मिले, जो इसमें रूकावट डालना चाहते थे। हालांकि, ऐसा नहीं हो सका। उनकी सच्ची इबादत से बला टल गई। अल्लाह ने उनके बेटे को बचा लिया और उसके बदले बकरे की कुर्बानी हो गई। तब से यह परंपरा बरकरार है।

 

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