प्रकृति का नाश करने वाली राजनीतिक व्यवस्था, तकनीकी , उद्योग नहीं चाहिए 

 
दिल्ली में कचरे का पहाड़
राम दत्त त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार 
कचरे के पहाड़ सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक गम्भीर समस्या हैं. समस्या की जड़ है हमारी शासन प्रशासन की व्यवस्था उत्पादन और वितरण प्रणाली , हमारी उपभोग की आदतें और जीवनशैली . हर घर,आफिस, कारख़ाने, अस्पताल, बाज़ार  और दुकान से रोज़ ढेर सारा ठोस कचरा निकलता है. यत्र तत्र सर्वत्र कचरा सड़क, पार्क, तालाब, झील या नदी के किनारे पर बिखरा और सड़ता रहता है. कई जगह कूड़े के पहाड़ बन गए हैं, जिनकी बदबू से लोगों का जीना दूभर है. ऊपर ही नहीं यह ज़मीन के अंदर का पानी भी प्रदूषित कर रहा है. हर साल हज़ारों लोग बीमार पड़ते हैं और मरते भी हैं. बड़ी मात्रा ऐसे कचरे की है जो जैविक या प्राकृतिक पदार्थ नहीं है, इसलिए न वह स्वत: नष्ट होता है , न किसी जीव जंतु के काम आता है.
अपने देश में ऐसे मोहल्ले , कालोनियाँ, औद्योगिक क्षेत्र और बाज़ार नहीं  हैं , जहॉं कूड़े को छॉंटकर अलग – अलग रखने , ढोने और ठिकाने लगाने की समुचित व्यवस्था हो. कुछ बड़े शहरों में जो परियोजनाएँ शुरू की गयीं वह भी भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था का शिकार होकर फ़्लॉप हो गयीं. कूड़ा छाँटने और उठाने की समुचित व्यवस्था न होने से कई जगह सफ़ाई कर्मचारी उसे नालों में ढकेल देते हैं .इस कचरे का एक हिस्सा नालों के ज़रिये नदियों में जा रहा है. गोमती सफ़ाई अभियान के दौरान कई जगह नालों पर जालियाँ लगायी गयीं तो ट्रकों ठोस कचरा निकलते देखा. सबको मालूम है कि इस कचरे से तरह – तरह की बीमारियॉं फैलती हैं.मगर उसका ठीक लेखा जोखा किसी के पास नहीं होता.कचरे को कहाँ और कैसे खपाया जाये , इस पर तो बहुत चर्चा होती है , मगर इस पर कम चर्चा होती है कि कचरे को कम कैसे किया जाये.वास्तव में कचरा कम करने  के लिए  उत्पादन और उपभोग दोनों के तरीक़ों में बदलाव लाना पड़ेगा.
गॉंव में हम खाने – पीने के लिए अनाज आटा, दाल, चावल , चूड़ा , सत्तू , फल , सब्ज़ी , दूध , घी , मट्ठा , तेल आदि लोकल चीज़ें ही इस्तेमाल करते थे. टूथपेस्ट और टूथब्रश के बजाय नीम या बबूल की दातून इस्तेमाल करते थे.मसाले सुबह शाम घर में ही सिल पर पिस जाते थे , जिससे उनके रस और ख़ुशबू बरकरार रहते थे और पैकिंग का कचरा भी नहीं होता था. कपड़ा या तो लोकल बुना जाता था , या फिर मिलों का कपड़ा थान से ख़रीदकर स्थानीय दर्ज़ी से सिलवाया जाता था. शादी ब्याह में दोना – पत्तल , कुल्हड़ और परई गाँव का ही बना होता था , जिसके सड़ाने या गलाने की समस्या नहीं थी. पर अब वहाँ  भी बाज़ार प्रवेश कर गया है.अब गाँवों में भी प्लास्टिक या थर्माकोल के कप , कटोरी , गिलास और प्लेट इस्तेमाल हो रहे हैं. पहले घरों में पानदान थे , अब गाँवों में भी गुटके के पाउच बिकते हैं. बाई चीज़ें भी पोलिथिन या प्लास्टिक थैलियों में बिकती हैं.बाँस या लकड़ी की चारपाई मूँज या सनई की रस्सियों से बुन ली जाती थी. प्लास्टिक या नायलान की रस्सी नही होती थी. अब तो चारपाई का फ़्रेम भी लोहे का और निवाड़ प्लास्टिक की होती है. अब तो मछरदानी भी नायलान की बनती है. सूती खादी और हैंडलूम में पोलियस्टर धागा घुस गया है.रज़ाई और कम्बल में भी ।  
तखत भी गाँव में ही बढ़ई  बना  जाते थे. अब लोहार, बढ़ई कम हो गए हैं.मिट्टी के बर्तन वाले कुम्हारों का धंधा भी चौपट है. करीब- करीब हर घर में जानवर पाले जाते थे. खाने की थाली में बचा जूठन और फल सब्ज़ी का छिलका जानवरों के चारे में मिला दिया जाता था. ट्रैक्टर , ट्यूबवेल और थ्रेशर आदि के इस्तेमाल से अब जानवर बहुत कम हो गये हैं और खेतिहर मजदूर बेकार.चारे पानी की कमी से लोग बिना दूध वाले और बूढ़े जानवर तो रखना ही नही चाहते. हम जैविक खेती की बात चाहे जितनी करें, लेकिन अब गाँवों में गोबर की खाद मिलना कम हो गयी है.
राम दत्त त्रिपाठी
हर परिवार को गाँव के किनारे घूर डालने की जगह निश्चित होती है , जिसमें गोबर और अन्य सड़ने वाला कचरा डाला जाता है. दीपावली में इस घूरे पर भी दिया जलाया जाता है , क्योंकि यही घूर क़ीमती जैविक कम्पोस्ट बन जाता है.इसे बैलगाड़ियों पर लादकर खेत में डाला जाता है. शहरों में जिनके पास जगह है वे भी सब्ज़ियों  और फलों के छिलकों की कंपोस्ट  खाद बनाने ने बजाय प्लास्टिक थैलियों में कूड़े में फेंक देते हैं, जो आवारा  गायों के पेट में जाता है. डाक्टरों ने सैकड़ों गायों के पेट से आपरेशन करके प्लास्टिक थैलियाँ निकालीं हैं, पर इनकी तस्वीरें देख कर भी हमारी आँखें नहीं  खुलतीं।कम्पोस्ट खाद के साथ ही गॉंव के तालाब से निकालकर नयी मिट्टी भी खेत में डाली जाती थी . कच्चे घर बनाने या मरम्मत के लिए भी तालाब से मिट्टी निकाली जाती थी , जिससे बरसात का पानी इकट्ठा होता था तो कुओं का जलस्तर भी ठीक रहता था.तालाब से पशु पक्षियों को भी पानी मिलता था. अब पक्के सीमेंट के मकान होने से तालाब गहरे नहीं होते और हर साल जलस्तर नीचे जा रहा है. कुएँ तालाब गाँव के सामुदायिक जीवन के अंग होते थे, जो हैंड पम्प  के युग में कम हो गया है.
गाँव के घर बनाने में भी स्थानीय सामग्री इस्तेमाल होती थी, सीमेंट , सरिया, लोहे आदि का इस्तेमाल नही के बराबर होता था। हम तो अपने कपड़े भी उसर ज़मीन पर निकालने वाली रेहू से साफ़ कर लेते थे। गाँव के लोनिया कारगर इससे सोडा तैयार कर लेते हैं। तालाबों से ग्राउंड वाटर रिचार्ज होने से नदियों का जलस्तर भी ठीक रहता है.मगर अब तालाब सूखने के साथ ही नदियों में ग्राउंड वाटर रिचार्ज की समस्या है. गंगा, यमुना में पानी की कमी का यह भी एक कारण है . चाहे कुएँ से पानी भरना हो , बर्तन माँजना , कपड़े धोना , जानवरों के चारे का इंतज़ाम हो या दो चार किलोमीटर तक स्कूल अथवा हाट बाजार जाना हो शारीरिक श्रम सबकी दिनचर्या का अनिवार्य अंग था. बिना डाक्टरी सलाह ही हर कोई शारीरिक श्रम कर लेता था. मेरे बचपन में तो हर घर में आटा पीसने के लिए जाँत , चकरी , कांड़ी – मूसल आदि थे.सुबह हमारी नींद खुलने से पहले हमारी दादी रोज़ की ज़रूरत का आटा ख़ुद पीस लेती थीं। अब शादी के मंडप में हल , मूसल और चकरी के खिलौने रखे जाते हैं.

इस जीवनशैली में  सामान की पैकिंग वाला कचरा नहीं होता था. प्लास्टिक की बोतलें या थैलियाँ नहीं थीं. इस तरह स्थानीय कारीगरों को रोजगार मिलता था , जिनके बच्चे अब बेरोजगार होकर शहर भाग रहे हैं . किसी भी गाँव या क़स्बे के बाजार में लोकल सामान बहुत कम होता है.विदेशों से आयातित अथवा देसी कारख़ानों का सामान ही मिलता है , जिसकी पैकिंग में प्लास्टिक , काग़ज़ , गत्ता , फ़ोम आदि इस्तेमाल होता है. यह सारा सामान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक न हो भी तमाम ऐसा कचरा लाता है , जिसको ठिकाने लगाना बड़ी समस्या है . अब कपड़ा, अनाज, सब्ज़ी, फल, दूध, अंडे, चीनी  आदि  रोज़मर्रा की चीज़ें भी सैकड़ों किलोमीटर दूर से या विदेश से आयातित होते हैं. इनकी ढुलाई में कितना डीज़ल जलता है. दूर से सामान लाने से उसकी पैकिंग में ढेर सारा सामान लगता है, जो बाद में कचरे में तब्दील हो जाता है.स्थानीय स्तर पर उत्पादन न होने से लोग बेरोज़गार होते हैं। जो काम ईस्ट इंडिया कम्पनी ने शुरू किया था, वह आज भी जारी है.
 
भोजन और वस्त्र  आदि के अलावा आजकल बिजली और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों का कचरा एक नयी समस्या है, जिसमें ख़तरनाक बैटरी आदि भी होती है. यह कचरा भी अरबों टन होता है. कचरे की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि उसकी ढुलाई और ठिकाने के लगाने के लिए ख़ाली ज़मीन मिलना एक विकट समस्या है. यह कचरा हमारी उत्पादन और वितरण प्रणाली के साथ – साथ जीवन शैली से जुड़ा है. यह जीवन शैली न केवल बेहिसाब ठोस कचरा पैदा करती है वरन गंदगी के साथ – साथ पर्यावरण, स्वास्थ्य और रोज़गार की समस्या भी पैदा करती है.
आज जब हम स्मार्ट शहर और स्मार्ट गाँव बनाने की बात कर रहे हैं तो हमें ठहर कर सोचना चाहिए कि  क्या हम दैनिक उपयोग की वस्तुएँ जैसे कपड़ा, अनाज, फल, साबुन, जूता आदि स्थानीय स्तर पर पैदा नहीं कर सकते, जिससे लोगों को रोज़गार मिले, कचरा कम निकले और हमारे पर्यावरण और स्वास्थ्य की भी रक्षा हो.
यह प्रश्न हमारे स्थानीय स्वशासन  से भी जुड़ा है.राज्य सरकारें अपने अधिकारों के लिए तो लड़ती हैं, लेकिन शहरी और ग्रामीण निकायों को स्थानीय सरकार के बजाय अपने अधीन विभाग की तरह नियंत्रित करती हैं.स्थानीय निकायों में बढ़ती आबादी के अनुरूप स्टाफ़ नहीं नियुक्त होते. जो स्टाफ़ है उसमें भी वर्क कल्चर नहीं.हमने चीन के शंघाई , बीजिंग और दूसरे शहरों में देखा कि हर बाज़ार में साफ़ सुथरा सार्वजनिक शौचालय है. सड़क पर हर थोड़ी दूर पर कूड़ेदान हैं. बाज़ार में सफ़ाई कर्मचारी पूरे समय ड्यूटी पर रहते हैं. शंघाई में एक रोज़ हम बाज़ार में थे.पोती की काँच की बोतल हाथ से गिरकर टूट गयी. जब तक हम कॉंच के टुकड़े समेटते , एक मुस्तैद सफ़ाई कर्मचारी आया और बिना कुछ कहे सारे टुकड़े समेटकर सफ़ाई कर दी. यूरोप के प्राग शहर में मैंने बरसों पहले देखा था कि भोर होने से पहले ही सड़कों बाज़ारों की सफ़ाई करके घरों के बाहर थैलियों में क़रीने से रखा कूड़ा उठा लिया जाता था. लंदन में मोहल्लों के बाहर एक जगह कई बड़े कूड़ेदान देखे जहाँ लोग अलग तरह का कचरा अलग कूड़ेदान में डालते थे.
नागरिकों में बचपन से ही ऐसे संस्कार डाले जाते हैं कि कोई आदमी काग़ज़ का टुकड़ा भी इधर – उधर नहीं फेंकता. हम भारतीय घर का कूड़ा सड़क, नाली, पार्क या नदी में फेंकने पर शर्मिंदा नही होते.हमारे यहॉं पॉश कालोनियाँ में कूड़ा बिखरा मिलता है. हम समझते हैं कि सफ़ाई करना केवल सफ़ाई कर्मचारी का काम है. हमारे यहॉं व्यक्तिगत शुचिता पर ज़्यादा ज़ोर है . हम घर का कूड़ा सड़क या नाली में फेंकने पर शर्मिंदा नहीं होते. जहॉं लोग कचरा कूड़ेदान में डालते हैं , समय से उठाया नहीं जाता . कहते हैं कि कूड़ा गाड़ियों का डीज़ल भी चोर बाज़ार में बिक जाता है. सरकारें प्लास्टिक और पोलीथिन थैलियों का उपयोग रोकने की बात करती हैं , पर इनका उत्पादन बंद नहीं करवातीं.
 वैज्ञानिकों को केवल उद्योगों  के मुनाफ़े के लिए ऐसी तकनीकी नहीं विकसित करनी चाहिए जो प्रकृति का नाश करे।वैज्ञानिक समाज हित को सर्वोपर रखें। अध्यात्म से प्रेरणा लें।  प्रकृति में कुछ भी बेकार नहीं होता। एक का कचरा दूसरे का भोजन या उपयोगी सामान होता है। दुर्भाग्य है कि आज वैज्ञानिक प्रगति ही प्रकृति के लिए ख़तरा बन गयी है।
इसके अलावा हमारी दिनों दिन केंद्रित हो रही राजनीतिक शासन प्रणाली भी बहुत समस्याओं की जड़ में है। समझने की बात है कि केंद्रीय या प्रांतीय राजधानी में बैठकर स्थानीय स्वशासन नही चलाया जा सकता.निचले स्तर की स्थानीय सरकारें मज़बूत और सक्षम हों तो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को सफ़ाई के लिए हाथ में झाड़ू नहीं पकड़ना पड़ेगा। तब यह ज़िम्मेदारी ग्राम प्रधान , सभासद और नगर प्रमुख की होगी. और उन्हें जवाब देना होगा.
 

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