धर्म और अर्थ के साथ क्यों जरूरी है काम?

love-1442575659वेद का उपदेश है मनुर्भव यानी तुम मनुष्य बनो और दैवी संतति उत्पन्न करो। मानव को पूर्ण मानवता प्रदान करने वाले अर्थ एक समान नाम पुरुषार्थ से बताए जाते हैं। ये चार हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मनुष्य मात्र के जीवन दर्शन का आधार मूलतः इस चतुर्वर्ग की प्राप्ति ही है।

अतः वह इस चतुर्वर्ग पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए ही प्रयासरत रहता है। यहां पुरुष शब्द से तात्पर्य मनुष्य मात्र से है तथा अर्थ शब्द का तात्पर्य है उद्देश्य प्रयोजन अथवा मूल्य।

हमारे यहां पुरुषार्थ विषयक चिन्तन अत्यन्त प्राचीन है। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत से लेकर कौटिल्य और परवर्ती विशाल साहित्य पुरुषार्थ विषयक वर्णन से भरा पड़ा है। महाभारत के तो प्रारंभ में ही ग्रन्थ के महत्व को प्रतिपादित करने वाला प्रसिद्ध पद्य है-

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धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च पुरुषर्षभ।

यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित।

-(आदिपर्व 62.53)

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महाभारत के शांतिपर्व में आए एक प्रसंग के अनुसार पीड़ित देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्माजी ने नीतिशास्त्र की रचना की जिसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का विवेचन किया। (शान्तिपर्व 59.29-30)

धारण करना ही है धर्म

धर्म प्रथम पुरुषार्थ है। धर्म शब्द का अर्थ है (धारण करना)-धरति इति धर्मः अथवा धारयति इति धर्मः। महाभारत के रचनाकार महर्षि वेदव्यास कहते हैं- धारणाद् धर्ममित्याहुरू अर्थात लोक को धारण करने से इसे धर्म कहा जाता है।

धर्म शब्द अनेकार्थवाची है। जैसे अग्नि का धर्म ऊष्णत्व है। ऊष्णता के अभाव में अग्नि की सत्ता नहीं होगी। वैसे वेद में धर्म के स्थान पर ऋत शब्द का प्रयोग अधिक देखने को मिलता है। ऋत का तात्पर्य है ब्रह्मांड सम्बन्धी व्यवस्था का नियम।

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परवर्ती साहित्य में ऋत के स्थान पर धर्म शब्द का प्रयोग होने लगा। धर्म में ऋत और यज्ञ दोनों सम्मिलित हैं। धर्म व्यवस्था का आधार है तो इस व्यवस्था निर्माण के लिए मानवमात्र के कत्र्तव्य का भी नाम है। हमारे यहां धर्म का व्यापक विवेचन हुआ है।

मनु ने सदाचार को परम धर्म कहा है आचारः परमो धर्मः (मनुस्मृति 1.108)। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, त्याग आदि सार्वभौम धर्म हैं। इसी प्रकार सामान्यधर्म, विशेषधर्म, स्वधर्म, परधर्म, आपद्धर्म इत्यादि को भी शास्त्रों ने व्याख्यायित किया है।

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अहिंसा सामान्य धर्म है लेकिन आततायी को दंड देना विशेष धर्म है। वस्तुतः पुरुषार्थ के रूप में धर्म का तात्पर्य कत्र्तव्य है। प्रत्येक मनुष्य कर्तव्य का पालन करें, यही धर्म पुरुषार्थ है।

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द्वितीय पुरुषार्थ है अर्थ

अर्थ द्वितीय पुरुषार्थ है। अर्थ का सम्बन्ध उन समस्त भौतिक संसाधनों से है, जो हमारे लिए आवश्यक हैं तथा हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाकर सांसारिक सुखों में वृद्धि करते हंै। धर्मानुकूल आचरण के लिए अर्थ का अत्यधिक महत्व है।

अर्थ का आश्रय लेकर ही अपने व्यक्तिगत अथवा सामाजिक कर्मों में प्रवृत्त हो सकता है। वह धर्म के सम्पादन में योजक का कार्य करता है। अतः अर्थ धर्म के साथ संयुक्त होकर ही अनुसरणीय है।

अधर्म से अर्जित अर्थ यज्ञ-दानादि में त्याज्य है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में इसकी विस्तृत विवेचना की है। अर्थशास्त्र अर्थ की व्यवस्था का निर्देशन करता है तो राजव्यवस्था दंडनीति व अर्थव्यवस्था को व्याख्यायित करता है।

मोक्ष परम पुरुषार्थ

महर्षि व्यास परम पुरुषार्थ मोक्ष की आधारभूमि प्रथम पुरुषार्थ धर्म को मानते हैं। मोक्ष हमारा गन्तव्य है और धर्म उसका मार्ग। अर्थ और काम पाथेय हैं। काम से सर्वथा मुक्ति पाना सम्भव नहीं है।

मोक्ष भी हमारा काम्य ही है। अर्थ भी साधन के रूप में लक्ष्य प्राप्ति तक सदैव साथ ही रहेगा। यही भाव अर्थ धातु का है। अर्थात उपपत्तिपूर्वक साध्यसिद्धि के लिए जिसकी अपेक्षा है, वह अर्थ है, तथापि भारतीय परम्परा के अनुसार पुरुषार्थ चतुष्टय में परस्पर समन्वय है।

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ये चारों पुरुषार्थ ही मनुष्य जीवन की यथार्थ उपलब्धि के लिए अनिवार्य हैं और यही इनकी श्रेष्ठता है। इन्हें प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए।

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अज्ञानता से मुक्ति है मोक्ष

मोक्ष को परम पुरुषार्थ कहा गया है। मानव जीवन का परम लक्ष्य यही है अज्ञान के बंधन से मुक्ति ही मोक्ष है। धर्मनिष्ठ होकर निष्काम भाव से कर्तव्यों का निर्वहन करना ही मोक्ष मार्ग है।

यह अध्यात्म का विषय है। अज्ञान के कारण जीवात्मा अहंता, राग, द्वेष आदि विकारों में पड़कर सांसारिक बन्धनों में फंस जाता है। अज्ञान का अत्यन्त अभाव होने पर इन बंधनों से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेना ही मोक्ष है।

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कामनाओं की इच्छा है काम

काम चतुर्वर्ग में तृतीय स्थान पर आता है। समस्त प्रकार की कामनाओं या इच्छाओं का नाम काम है। शास्त्र धर्म व अर्थ के अविरोध में ही काम के सेवन की अनुमति देते हैं तथा धर्म विरुद्ध सुखों का उपभोग निंदित मानते हैं।

कौटिल्य का कथन है, धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत। इस प्रकार काम पुरुषार्थ का तात्पर्य है, धर्म की मर्यादा में रहकर काम में प्रवृत्त होना। काम के बिना प्रवृत्ति सम्भव नहीं है तभी तो व्यास कहते हैं, सनातनो हि संकल्पः कामः इत्यभिधीयते।

 

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