…तो इसलिए, श्रीहरि को लेना पड़ा धरती पर अवतार

हिंदू पौराणिक कथाओं में उल्लेखित देव और देवियों से जुड़ी हर घटना किसी न किसी प्रयोजन से होती है। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख विष्णु पुराण में मिलता है।

भगवान विष्णु के धाम, बैकुंठ लोक में जय और विजय नाम के दो द्वारपाल थे। एक बार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार (ये चारों सनकादिक ऋषि कहलाते हैं और देवताओं के पूर्वज माने जाते हैं) विष्णु लोक में भगवान के विष्णु के दर्शन के लिए आए।

जय और विजय ने इन सनकादिक ऋषियों को बैकुंठ द्वार पर ही रोक लिया और भीतर जाने से मना किया। तब उन ऋर्षियों में से एक ऋर्षि ने कहा, ‘हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है। लेकिन जय विजय ने उनकी नहीं सुनीं।’

सनकादिक ऋषियों ने गुस्से में कहा, ‘भगवान विष्णु के साथ रहने के कारण तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुंठ में नहीं हो सकता। इसलिए हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग पाप योनि में जाओ और अपने पाप का फल भुगतो।’ इस प्रकार शाप देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा मांगने लगे।

तभी भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने समस्त पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिए आए। भगवान विष्णु ने उनसे कहा, ‘यह जय और विजय नाम के मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहंकार बुद्धि को धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है। आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है। इनको शाप देकर आपने उत्तम कार्य किया है। इसलिए आप मुझे क्षमा करें।’

भगवान के इन मधुर वचनों से ऋषियों का क्रोध शांत हो गया। भगवान की इस उदारता से वे अति अनन्दित हुये और बोले, ‘आप धर्म की मर्यादा रखने के लिए ही ब्राह्मणों को इतना आदर देते हैं। हे नाथ! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध के वश में होकर शाप दे दिया है इसके लिये हम क्षमा चाहते हैं। आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे शाप से मुक्त कर सकते हैं।’

भगवान विष्णु ने कहा, ‘हे ऋषिगणों! आपने जो शाप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। ये अवश्य ही इस दण्ड के भागी हैं। ये दैत्य माता अदिति के गर्भ में जाकर दैत्य वंश में जन्म लेंगे और मेरे द्वारा इनका संहार होगा। ये मुझसे शत्रुभाव रखते हुये भी मेरे ही ध्यान में लीन रहेंगे। मेरे द्वारा इनका संहार होने के बाद ये पुनः इस धाम में वापस आ जाएंगे।

कहते हैं यही आगे चलकर हिरण्याक्ष और हिरण्याकश्यिपु, रावण और कुंभकर्ण के रूप में प्रसिद्ध हुए जिनका अंत करने के लिए भगवान विष्णु ने वराह अवतार, नृसिंह अवतार, राव अवतार लिया।

 

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