ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जानिए महिलाओं को किस प्रकार से कष्ट देते हैं राहु, मंगल और शनि

महिलाओं की कुण्डली में राहु, शनि या मंगल की उपस्थिति मात्र भांति-भांति के संकेत देती है। इस लेख का उद्देश्य वर्षों का अनुभव प्रकट करना है, जो शारीरिक कष्टों को देखने के लिए आवश्यक है।

स्त्री की कुण्डली में पंचम भाव में राहु की उपस्थिति का अर्थ उनके नाभि प्रदेश से लेकर बस्ति प्रदेश तक के अंगों में आने वाले कष्टों से अभिप्रेत है। अधिकांश मामलों में पंचमस्थ राहु उन विषयों पर अधिकार रखते हैं जो या तो ग्रंथि रूप में हों या सर्पाकृति हों या अंतडिय़ों की तरह बहुत सारे मोड़ों वाले हों।

बाह्य जगत में लहसुन, अदरक या कई तरह की फलियां इस श्रेणी में आ जाती हैं। शरीर के अंदर अंतडिय़ां, कभी-कभी किडनी तथा अधिकांश मामलों में फैलोपियन ट्यूब या यूट्रस संबंधी समस्याएं राहु के कारण आती हैं।

पंचमस्थ राहु को यदि मंगल पीडि़त करें या राहु-मंगल युति हो या पंचमेश का संबंध राहु-मंगल से हो जाए तो पाराशर जी के अनुसार सर्प के श्राप से संतान क्षय बताया गया है। इन स्थितियों में सर्प की पूजा से सर्प के श्राप का निवारण करना पाराशर जी ने बताया है। हमारे अनुभव में आया है कि ये मामले संतानहीनता के न होकर संतान उत्पन्न होने के बाद उसका क्षय या गर्भधारण के बाद गर्भक्षय से संबंधित होते हैं।

यदि पंचम भाव को केवल राहु प्रभावित करें तो यह दोष संतान क्षय न होकर फैलोपियन ट्यूब में इंफेक्शन होकर गर्भ की अक्षमता में बदल जाते हैं। काकवंध्या के योग उन मामलों में अधिक हैं जब राहु तो पंचम भाव में हों या पंचमेश के साथ हों तथा सप्तम या नवम भाव को अन्य पाप ग्रह प्रभावित कर रहे हों।

शनि देवता पंचम भाव पर कु प्रभाव रखें तो संतान संबंधी कष्ट जीवन के मध्य काल में आते हैं। इनमें से कुछ योगों को समझना होगा।

शनि यदि सम राशि में हो और बुध विषम राशि में हो तथा दोनों में परस्पर दृष्टि हो तो अपूर्ण गर्भ होता है।

पंचमेश नीच राशि का हो और पंचम भाव को न देखे एवं पंचम भाव में बुध-शनि हो तो स्त्री काकवंध्या होती है।

पंचम भाव में मिथुन, कन्या, मकर या कुंभ राशि हो और उस भाव पर शनि की दृष्टि या योग हो तो पत्नी से संतान प्राप्ति में बाधाएं आती है।

यदि पंचम स्थान में राहु हो, पंचमेश पापग्रहों से युक्त हो तथा गुरु मकर राशि में हो तो पुत्र का सुख पूर्ण नहीं होता।

चंद्रमा से द्वितीय तथा व्यय भाव में मंगल, शनि हो (इनमें से एक व्यय में एवं एक द्वितीय में) तो मंगल व शनि इनमें से जो बलवान हो और गर्भकाल में वह जिस मास का स्वामी हो उस मास में गर्भवती स्त्री को मृत्यु तुल्य कष्ट देता है।

चंद्रमा, मंगल या शनि दोनों में से एक से युत हो और दूसरे से दृष्ट हो तो मंगल, शनि में जो बली होगा, उसी के कारण संतान का क्षय होगा।

लग्न में शुक्र-चन्द्र तथा शनि मंगल से युत हो और पंचम भाव में पापग्रह की राशि हो तो संतानोत्पत्ति लगभग असंभव होती है।

सप्तम में मंगल या पाप नवांश तथा सप्तम पर शनि की दृष्टि हो तो गुप्त रोग होते हैं।

सप्तम में राहु एवं सूर्य तथा पंचम में पापग्रह अथवा अष्टम में शुक्र-गुरु-राहु हो तो स्त्री की संतान उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है।

अष्टम में शुक्र-गुरु-मंगल हों या सप्तम में मंगल, शनि से दृष्ट हो तो स्त्री को गर्भपात होते रहते हैं।
 

सूर्य, मंगल, शनि, राहु यदि बली होकर पंचम में हों तो संतान हानि करते हैं लेकिन निर्बल हों तो संतानदायी होते हैं।

इन सबमें एक बात समान रूप से देखने को मिलती है कि पंचम भाव या पंचम से चतुर्थ या पंचम से छठा, आठवां भाव पीडि़त हो तो स्त्री की कोख पर असर आता है चाहे गर्भावस्था में या बच्चे के जन्म लेने के बाद। राहु का इन सबमें सबसे अधिक असर नजर आता है। राहु रोकने में विश्वास करते हैं और शनि या मंगल नष्ट करने में। जितने भी ज्योतिष शास्त्र हैं उन सबमें पूर्व जन्मकृत कर्मों के कारण ऐसी हिंसा देखने को मिलती है जिसके कारण माता-पिता सभी दुखी होते हैं।

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