जब हम बैठे हैं घरों में वो झेल रहे भूख की गोली…

बड़ी विदारक स्थिति है। हमे लाॅक डाउन फेल होने की चिंता है, उन्हें भूख से जीवन की घड़ी फेल होने का डर है। हमे कोरोना का शिकार होने का भय है, वो भूख और बेघरी का शिकार हो चुके हैं। हम घरों में समय काटने के टोटके तलाश रहे हैं, उन्हें यह भी नहीं पता कि लौटने पर घर वाले उन्हें भीतर लेंगे या नहीं। हम सोशल डिस्टेसिंग के सबक ले रहे हैं, उनसे जिंदगी का भरोसा ही डिस्टेंसिंग बना रहा है। गरीबों को लेकर सारी सरकारें और देश चिंतित हैं, लेकिन ठोस उपाय किसी के पास नहीं है। आदेश पर आदेश हैं, लेकिन जमीनी अमल नदारद-सा है, या है भी तो उससे किसी का भरोसा लौट नहीं रहा।
लाॅक डाउन के मीम्स, चुटकुले और ‘समय बिताने के लिए करना है कुछ काम’ टाइप कुछ मध्य और उच्चवर्गीय शगूफों के बरखिलाफ‍ ‍िदल्ली में अचानक प्रकट हुए लाखों मजदूरों के रेलों ने पूरे देश को कोरोना से ज्यादा हैरान और विचलित कर दिया। हजारों लोग अपने साजो-सामान, गृहस्थी, बच्चों को लादे पैदल ही अपने गांवों को निकल पड़े हैं। इस भोले विश्वास में कि इन हालात में वो गांव ही उन्हें आसरा देगा, जिसे रोजगार की तलाश में वो पीछे छोड़ आए थे। आज के जमाने में जब लोग 1 किमी पैदल चलने को भी ‘वाॅक’ की संज्ञा देते हों, तब हजार किमी पैदल कर घर पहुंचने की मजबूरी को क्या शब्द दें, समझ नहीं आता। दूसरी तरफ जब दिल्ली के आनंद नगर बस स्टैंड पर हजारों की तादाद में इकट्ठान लोगों का हुजूम यूपी और बिहार जाने वाली बसों में चढ़ने की कोशिश करते‍ दिखा तो लगा कि इन हालात में तो कोरोना भी इनसे खौफ खा जाएगा। चेहरों पर अंगोछों को ही मास्क बनाते और बस में एक ठो सीट के लिए लूमते लोगों के लिए जीने के वास्ते कुछ भी करने से ज्यादा किसी बात का कोई महत्व नहीं है। उधर सारे देश की पेशानी पर एक ही सवाल है ये कौन लोग हैं, क्यों इकट्ठा हो रहे हैं, क्या इन्हें जान का खतरा नहीं है?
सवाल जितना संजीदा है, जवाब उससे भी ज्यादा क्षुब्ध करने वाला है। देश की राजधानी में रह रहे ज्यादातर यूपी, बिहार, मप्र आदि राज्यों के ये वो लोग हैं, जो दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, खोमचे लगाते हैं या फिर और कोई छोटा-मोटा काम या कारोबार करते हैं। पहले जनता कर्फ्यू ने उन्हें डराया और फिर लाॅक डाउन ने उनकी रोजी-रोटी पर ही ताले डाल दिए। कारखानों, दुकानों और अन्य संस्थानों ने उन्हें ‘नो वर्क-नो पे’ के तहत छुट्टी पर जाने को कह दिया। रोजंदारी वालों को कोई एडवांस भी नहीं मिलता। इसी तरह जो लोग घरों में काम करते थे, उन्हें घर मालिको ने रवाना कर दिया। कुछ रहमदिल मार्च की पूरी तनख्वाह दे भी देंगे, लेकिन बिना काम के 21 दिन की पगार देने वाले उंगली पर गिनने वाले भी न होंगे। छोटे व्यवसायी और नौकरीपेशा लोगों की इतनी हैसियत नहीं होती‍ कि वो बगैर काम के ज्यादा दिन पैसा दे सकें। जब उनकी आय ही ठप है तो वो नौकरों को कहां से दें? यूं कहने को सरकार ने कारखानदारों, संस्थान मालिकों को ऐसे छोटे कामगारों को पूरा पैसा देने का आदेश दिया जरूर है, लेकिन उसका पालन कितना व्यावहारिक है, यह कोई नहीं देख रहा। जब पूरा अर्थ तंत्र ही ठप पड़ा हो, और जब पैसा आएगा ही नहीं तो देने की गुंजाइश भी कहां है?
यह मानवीय समस्या भी है, लेकिन समस्या केवल दिल्ली की नहीं है, पूरे देश की है। देश के अन्य बड़े शहरों में यही स्थिति बन रही है। दिल्ली इसलिए नजर में आ गया, क्योंकि यूपी यहां से बिल्कुल लगा हुआ है। जबकि बहुत से मजदूर, अहमदाबाद, जयपुर, सूरत, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे शहर भी छोड़ रहे हैं। वहां भी यह समस्या भयावह हो सकती है। इन शहरों ये लोग या तो बहुत छोटे मकानों में जैसे तैसे किराया देकर रहते हैं या फिर झुग्गी झोपड़ी में रहते हैं। टाउनशिप में लाॅक डाउन को ‘हैल्थ’ या ‘फेमिली टाइम’ के रूप में लेने जैसी उनकी न तो स्थिति है और न ही अपेक्षा।
ऐसे लोगों की संख्या कितनी है? अगर मोदी सरकार द्वारा 2015 में संसद में दिए गए आंकड़ों पर भरोसा करें तो न्यूनतम मजदूरी वृद्धि बिल पेश करते समय तत्कालीन श्रममंत्री संतोष गंगवार ने बताया था कि इससे 50 करोड़ लोगों को फायदा होगा। अभी केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने जो 1.70 लाख करोड़ का गरीबों के लिए जो पैकेज घोषित किया, उससे जन धन खातों के माध्यम से गरीबों को फायदा पहुंचाने की बात है। सरकार का ही कहना है कि देश में गरीबों के 36 करोड़ जन-धन खाते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि 14 करोड़ गरीबों के पास तो जन-धन खाते भी नहीं है। उन्हें आॅन लाइन सुविधा और राहत कैसे मिलेगी?
वैसे भी जो शहर छोड़कर अपने घरों को लौट रहे हैं, वो ज्यादातर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोग हैं। 2019 में जारी इकाॅनामिक सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कुल वर्क फोर्स में 93 फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र का है, लेकिन इनकी आर्थिक सुरक्षा का कोई भी ठोस प्रावधान नहीं है। इनकी तादाद करीब 43 करोड़ है। एक जानकारी के मुताबिक देश में सर्वाधिक दिहाड़ी मजदूर दिल्ली में काम करते हैं, जहां इनकी संख्या साढ़े 4 लाख से ज्यादा है। कोरोना इनके लिए बिना पाॅजिटिव डिटेक्ट हुए भी जानलेवा बन गया है।
दुर्भाग्य कि गरीब मजदूरों की इस मजबूरन घर वापसी (कुछ इसे पलायन कह रहे हैं) पर भी राजनीति हो रही है। कोई इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है? भाजपा से जुड़े एक श्रीमानजी ने तो इसे मजदूरों का ‘हाॅली डे सेलिब्रेशन’ ही बता दिया। अगर सब कुछ ठीक होता तो ये लाखों लोग इस तरह सोशल डिस्टेंसिंग को धता बताकर जान मुट्ठी में लेकर भीड़ में धक्के क्यों खाते? हालांकि मानवीयता के तहत कई राज्य सरकारों और सामाजिक संस्थाअों ने इनके भोजन ‍आदि की व्यवस्था की है। लेकिन कब तक? वैसे भी ये श्रमिक हैं, कोई भिखारी नहीं। और केवल खाने भर के लिए कोई उस शहर में क्यों रूकना चाहेगा, जहां रोटी और छत दोनो ही अनिश्चित है। जो लोग बदहवासी में घरों को लौट भी रहे हैं तो इस बात की गारंटी नहीं है कि गांव में उनका स्वागत किस रूप में होगा ? क्योंकि कोरोना ने हर रिश्ते को संदिग्ध बना दिया है। पश्चिम बंगाल के पुरूलिया में तो घर लौटे मजदूर पेड़ों पर मचान बनाकर रहने पर मजबूर हैं, क्योंकि वो क्वारेंटाइन में हैं और क्वारेंटाइन होने के लिए भी उनके पास घर नहीं है। घर पहुंचने की पागल आस में कई मजदूर रास्ते में हादसों में जानें गंवा बैठे हैं। कई लाॅक डाउन तोड़ने के आरोप में पुलिस के हाथों पिट रहे हैं। इनकी कोई सोशल सिक्योरिटी नहीं है। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा कि वे किससे लड़ें, कैसे लड़े, ‍िकस भरोसे पर लड़ें।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह बयान गलत नहीं है ‍िक इससे तो लाॅक डाउन का मकसद ही पर‍ाजित हो जाएगा। क्योंकि भीड़ तंत्र तो कोरोना के लिए तो शूटिंग रेंज साबित होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी ‘मन की बात’ में उन गरीबों से माफी मांगी, जिनके सारे सपने लाॅक डाउन में लाॅक हो गए हैं। लेकिन यह तो सहानुभूति हुई, उपाय क्या है? अभी केन्द्र सरकार ने ऐसे लोगों को खाना और नकदी देने के आदेश राज्य सरकारों को दिए हैं। लेकिन यह सहायता इन्हें कब और कैसे पहुंचेगी, कहना मुश्किल है। यह सभी मान रहे हैं कि कोरोना जैसी लाइलाज बीमारी का ऐहतियाती तोड़ केवल लाॅक डाउन है। लेकिन इस लाॅक डाउन में गरीब की जगह कहां और किस रूप में है, यह तय होना भी तो जरूरी है।
सचमुच विचित्र‍ स्थिति है। अगर लाॅक डाउन न करे तो कोरोना से भारी जनहानि का खतरा और लाॅक डाउन में रहें तो भूख और बेघरी से जान जाने का खतरा। शायद इस देश के गरीब के पास जीने और मरने में से कुछ एक चुनने के बजाए केवल कैसे मरने का विकल्प ही बाकी रह गया है। कोरोना से मरे या फिर पेट न भरने के कारण मरे। और इस स्थिति के लिए केवल भाग्य नहीं हम सब भी दोषी है। क्या आपको नहीं लगता?
अजय बोकिल/सुबह सबेरे से साभार

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